ग्रक्रिथन्‌

2 9 ति

(८ ईने

हमरे “' निबेधमारादशंकी '› आखोचना छ्खिती बार बाबू बाखमुकु- दनी गुप सम्पादक ““भारतमित्र '› ने वहत ही कहा था किं “अ- अतक दिदीमे चिपट्णकरकी मतिं विचारसी निवैधरेखक नही इए हं इसीसे इस भकारकी कारं पुस्तकभी दिदीमे नरी भै 1 # जिन चिपटूणकर शाद्ीकी नि्ब॑धमारके कतिपय छेखोंका हमने हिद अनुबाद्‌ करके उन लेखोका नाम निचेधमाछादङं '› रक्खा है, उन्दीके र्ति हए ““ संस्कृतकविपचक '› नामक छेखेकि हिदी अनुवादका आन हमं अपने नानाभाषावीराविकारद पाठर्कोकी सेवामे सादर समर्पित करते हँ हमे भरोसा है किं हमार पठित समानमे ““ निवंधमालादङे निस आदरकी दृष्टस देखा गया उसी आदरकी टष्टिसे उक्त चिपलरण- करनीकीं कृतिका हमारा वर्तमान उद्योगभी देखा जायगा !

चिपटूणकर महारयको प॑चत्वको माप्त हए आन २२ वषं हए तवसे अव विद्याकी उन्नति कटी अधिक हो गई ईै। अतः सभवहैकि चिपटूणकरनीने अपने निवंधोमे जो बाते छ्िसी हँ उनसे आधिक वार्ति हमारे आधुनिक कृतविदय रोगोको ज्ञात हो चकी होगी पर तिस परभी हमे भगोपा हे किं हमारे निज्ञासान्वित पाटकगण चिपर्ूणकरजीके भावोको पठ भसन्न होगि आनसे वाईस वर्षे पृव्वै, वत्तीस वकी अव- स्थाम स्वगेकी यात्रा करनेवाे भद्‌ पुरुषने हमारे विश्विख्यात कवियोके अरोकिक गुणोको किस भकार सत्रसाधारणपर भकारित किया, ओर उनके गुणोको हम छोगोके हदयमदेशमे एक वार पुनः उसने किंस मकार नागृत कर दिया, उसी भ्रकार अन्यान्य छोगोने हमारे कदियेकि समु-

मै६ भारतमिघ्रकी १८ जून १९०० की र्या देद्धिये !

ज्वरु यको निन भोथे ओ्षिपोसे करुकित किया था, उन उसने किंस भमाणपू्णं चतुरासे दूर कर दिया, आदि वातोको हमोर रसभावज्ञ पाठटकगण यदि अपने विचारक्षत्रमे लगे तौ वह ग॒ अपन अधिक ज्ञानके कारण, उक्त शाखीनीकी उपेक्षा कदा- पि नही करेगे; भव्युत उनके उपकारका स्मरण कर सहसा उनके चिरकु- तज्ञ हग शास्रीनीके विचार ओर भावोका हमारे पाटकोकेो यथां ज्ञान हो संकै इसी अभिपायसे हमने उनके ठेखोमें कुछ ॒न्युनाधिक्य नही किया हे यदि कही कुछ किया दहीहैती एक दो स्थान पर रिपणीके स्वरूपम री किया है, मुख्य टठेखमे अणुमात्र भी परिवर्चन हमने नहीं क्या हे इस ग्रंथके अंगरेनी, संस्कृत तथा दिदौ नाननेवारे विद्चकचूडामणि गण यदि हमारे इस गरंथको केवर संस्छृतके यत्परानास्ति पंडित भकां- डके समानम्‌ प्रविष्ट करनेका प्रयत्न करेगे ती हमं भरोसाहे कि वह छोगभी इस प्रकारके उत्तमोत्तम निषध ङिखनेकेियि उत्साहित होगे इस ग्ंथके प्रकाराककी इच्छा थी फं इस यथक साथ शाखीनीकीं संक्षि जीवनी भी छाप दी नाय; पर हमारा विचार शखीजीका जीवनचरित स्तं रूपसे छिखनेका होनेके कारण हमने वैसा नही किया संस्कृत कविप॑- चको पठ यदि हमरे जिज्ञासामि पाटकगण शाखरीनीके नीवनचरितकेटिये होगे तै हम उनकी मनस्व्किटिये अवर्यमेव भयल करेगे हम नागरीके भसिद्ध सुषटेखक "सरस्वती" के सम्पादक श्रीयुत <^ द्विवेदीफो अनेकानेक साधुवादं देते कि निने इस अनुवादकी बारवार चच की, जिसे पट नयपृर्के तेष समाछोषक?) के स्वामी मिस्टर नैन निन व्येयसे मरकाशित करनेकी इच्छा हमप्र भकारित

की, ओर तदनुसार आपने न्दं आन मकाशित भी कर दू एतदथ हमं उक्त महानुभाव को हादिके धन्यवाद देकर इस पराकथनको समाप करते हे भवभृतिको आत्मरचित निम्रिखित शोकका अनुभव हंजा हो वानमभी हज हौ, पर हमे तो उसका अनुभव पूणं सूपसे भप्त हो चुका

ये नाम केचिदिह नः प्रथयंत्यवजञा जानंतु ते किमपि तान्‌ प्रति नेष यत्नः। उत्पस्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधम्मां कालोष्ययं निरवाधेर्विएुला प्रथ्वी

सन १८९८ मे हम इस अनुगादको परिपणे कर चुके थे हमोर ब- हत कुक रछिखा पदी करनेपर बाघ्र ध्यानसिंह सादिषके सत्परामरंसे नवर- किशोर मुद्रणाख्यके स्वामी वात्र भरयागनारायण साहिवने इन टेखोमेसे “कालिदास ओर“'भवभूतिको ''सन १९० ०मे निन न्ययसे मकारशत किया। ओर नाने क्यो, अवाशेष्ट तीन टेखोको छापनेसे मुहमोड कर उन्हे आपने हमारे पास रीय दिया तवसे यह्‌ रेख योही हमार पास पडे रहे अतमे उक्त महादायने अपनी ओरसे हमे चिट्टी छ्िखिकर इन्दे हमसे निस प्रकार मंगाकर छपवाया ओर इन्दे मकाशितं किया वह सब अभी उपर उद्धत हरी चका है

चिसुरनी विनीत ज्ये जुङ्का तृतीया {~ गंगाभसाद्‌ अच्चिहोन्नी, सं° १९६१. | अनुवादकर्त १८५१९०४,

&

सूचना-इस संस्करणके छपनेम हमरोगोसे अक्षरसंकरनविर्रमे जो रमाद्‌ हो गये है तद्भे हम अपने उदार पाठकेसि क्षमा मांगते दँ काय्यैवाहुत्यात्‌ एसा होगया है भविष्यत्मे हमलोग ेसी असावधानी नही होने दगे स॒द्रणाटलयाधीश. हिदीके काय्यैदक्ष हितैषी श्रीयुत सेठ सखेमराननीने हमरे इस ग्रथको निस उदारताके साथ छापा है तदर्थं हम सेठनीके चिरङृतज्ञ हे

भ्रकाच्चक.

रसवाटिका

विना श्सोका संपूर्ण ज्ञान हए काव्ये म्मका ज्ञात रोना किन तो क्या बरन असंभवही रै संस्कृत तथा भाषाक अनेको रसविषयक ग्रथोको रात दिन पटने परभी रसका जो रहस्य पाठकोको नरीं समन्ञा होगा वह इस “रसबाटिका› दारा सहनहीमे ज्ञात हो जायगा क्योकि दस प्रथमे रसोका तथा उनके अपर अगेका वर्णन गद्यमे करके गयहीमे उनके उदाहर्णोका स्पष्टीकरणभी कर दिया गया है रसनिज्ञासु रोगो केच्यि यह ग्रंथ स्वैथेव उपादेय है मूल्य ) डाकन्यय अरग

खेमराज श्रीकृष्णदास मालिक. (“श्रीवेडूटेश्वर स्टीम्‌ प्रेस-कायपांलय, गिरगोष-वंबर.

समारोचक

इतिहास, काव्य, ददन तथा अन्यान्य उपयोगी विषयोके उत्तमोत्तम भरेथोका संग्रह कर उनके दारा यदि छाम उटनेकी इच्छा हो तो “समारो- चक को पठा कीनिये 1 इस मासिकपत्रमे उक्त विषयक रेख तथा ग्थोकी निःपक्षपातपूरित आरोचना् छपा करती हे वार्षिक मूत्य९॥ |

मि० जेनवेय-जयपुर.

काव्य्मज्‌षा

िदीके वच॑मान सुविख्यात कविभवर महावीरमसादनी द्विवेदीने हिदी- कके प्रसाराथं समय पर निन भासादिक तथा प्रभावोत्ादकं कान्यरत्नोको रचकर संवादपत्ोमे यच त्र छपवाया था, उन्हे, तथा उनके अपर

म्‌

काव्यरत्नोको वड़े परिश्रमसे एकतित कर, उस संग्रहका नाम हमने “कान्यमेनूषा› रक्खां है इष संयहकी पशेसामें हम इतनादी छ्खना अरं समक्चते रँ कि इसमें नो कुछ है वह सब स्वनामधन्य उक्त दिवेदीनीकी असामान्य प्रतिभाका विनुभण शीघ्र मेगादये यह मंनूषा हाथो हाथ भिकगई, ओर विकी नाती है मिण जेन वैद्य ग्रंथ भकाद्राक) जोहरी वाजार जयपुर्‌.

संस्ृतकृविपञ्चक भूामक्ा।

| --<~>-- अयि दरूद्रविदस्यदमान मर्द ,

` तव किमपि लिहतो म॑ज्ञ॒ यजत भगाः

दिशे दिशि निरपेक्ष्तावकीनं विघ्रृण्वन्‌

परिमलमयमन्यो वांघवो गंधवाहः >

पडितरान जगन्नाथ

आन दित इस घातकी कोई विशेष आवद्यकता नरी है # वर्तमानं विषयकी उपयुक्तता तथा उपयोगिता मदरिंत कग्नेकेल्यि एक छख्वी चौढी भूमिका छिस नाय क्योकि हम।रे देशक सोभाग्यवशच अपरटोगोकी अपेक्षा अंगरेन पंडितरोगोका चित्त इस विषयकी ओर पथम आष्ट होने, तथा उमके द्वार य॒रोपीय अन्यान्य नातियोको उसका रिघ्ह परिचय होनानेके कारण, उसकी नगन्मान्यता कभीकी निधित हो चुकी है हमारी गीर्वाण भाषाके काव्यामृतसागरका केवट एक सिन्द पान करतही दी- पान्तरनिवासी विद्यापारददी पंडितगण अत्यत विस्मित हो तन्मय हौ गये,- किंसीने अपने कवित्वदपंको ति्छानरि दी कोड स्वयं समस्त नगकी मरोसाके पाज होनेषपर भी विनीतभावपैक हमारे भाट बन गभे, ओर कोद कोईै तो आनदातिश्चयमे सप्र हो विदेह हा गये यह सब घट- नाए अभी सौ वषैके भीतरकी ही हे) इतने थडे कारृहीमे हमारी पाचीन आय्य भाषानि समूचे जगपर अपना अधिकार जमा छिया ओर अष अनेक ग्रकारसे वह जहांतहां अग्रगण्य मानी नाती हे, ससारभरकी महान्‌ > पाठ- शाखा तथा विद्यार्योमि वह्‌ बडे चाव॒ ओर उत्साहके साथ पटा

* "हे विकसितकमल| तुञ्रसे गरेहृए अस्यत मधुर परागका सेवन कर, तेर निकटही भ्रमरमण मञ्‌ गुजारव करते रई, परतु तेरे परिमलको स्वाथ रहित वृद्धिदा चास ओर विस्तृतकरेनवाल् यहं पवन तेरे विषयमे भपनी षधुना एक निरलेहौ प्रकारसे प्रदिव करता हे 1)»

भूमिका

भाती दै; ओर उत्तरोत्तर हमार पुराने षडे बडे यंथकारोको पस्तकाट्येमं मधान >, स्थान प्राप होते नाते रै; ओर नो वेदादि यंथ, हमारी अज्ञानताके कारण यहां हमें मिद्टीमोर नान पड रहे है वेही युरो- पीय पडितग्णोको बहुमूत्य योध हो रहै ह, ओर रेम्स, सहाइन्‌ , मिसिसिषी, आदि सरिताभके तीरपर उनकी घोषणा नहां तहां भारभ हे रही है! एस समयपर हमार देशमे वत्तमान विषयकी जा विक्षण उपेक्षा तथा उदासी नता देख पडती है उससे अत्यंत आश्चप्यित हाना पडता है निनरोगोको पाणिन्यादि शाखपरणतारओं तथा कार्दासादि कवियोकेखियि अत्यंत अभि- मानी होना चाहिय, ओर जिन्ह उनकी बुद्धिमानीका ज्ञान माप्त करनेकेषिये उत्क इच्छा होनी चाहिये, अन वही छोग धरतीभरके छोगोमें उनके विषयमे निधित हो रे है; ओर हमारे घरका पास्विय हमे यह्‌ विदेशी टोग करा रहे है, इस बातको देख हम रोग तनिक भी छानित नही होत; हमारे दशकी यथाथ अवर्थाका जिसे पणं जान नही है क्या वह इसे क्षण भरभी सच मान सकता है !

सारदा, हमारे वर्तमान उद्योगका आभिभराय यही है कि हमारी भाचीन विद्याके अत्यंत हृदयग्राही भाग कक्षितारूप वत्त॑मानविषय दारा तीभी उक्त अज्ञतानन्य उक्त अवस्थामे कुछ सुधार हो अब यह बात सच है किं यह विषय परम गंभीर हे ओर साथही उसकी यथावत्‌ विवेचना करना सामान्यं बुद्धिवारे मनुष्यका काम नही है यथाथ कित्व नेसे सुदुष्माव्य वरु है वैसेदी यथा रसिकताभी सुदुष्पाप्य वस्तु है, रत्नपरीक्षकरोग जैसे टका- सेर नहि पाये नति, ओर कभी पाये जार्येगे, वही बात कवितामभेज्ोके विषयमे भी चारेतार्थं होती सस्कृतके किसी कविने छिखा दैः

मार्मिकः को मरंदानामंतेरण मधुव्रतम्‌

५८ मधुवत अर्थात्‌ भरमरोके सिवाय मकरंदका रसन दूसरा ओर कौन 2१ तायं इसी न्यायानुसार काछ्िदास भवभूति मभृति कविवरोकी वाणीके नाना विध गुण-करूप भकयित करमेकेष्यि आरिर्टोद, आ$सन्‌ तथा पंडितरान नगचराथकसेही किसी 'मधूवरत' को जन्मग्रहण करना चाहिये

भूमिका)

तभी सकृत कवितास्वरूप विदार कमल्काननसे मधुविदु निकारा जाकर उसका छाम स्वं साधारणको भप्त हो सकेगा पर यद्यपि यह सब बाते आनदिन हमे अनुकृ नही है, ओर उनका योग कव मापन होगा उसका ठीक अनुमानभी नही किंया ना सकेता, एेसी अवस्थामे हम समक्चत है कि यह' वर्तमान यल हमरे विद्यामय देराभाईयोको बहुत कु उपयोगी होगा

उपर अभी उद्धिखित हो ही चुका है कि संस्कत कविताका विस्तार कु कम नही केवर रामायण ' महाभारत भागवत ' ' बृहत्कथा # रानतरगिणी ' आदि यथ ही लीनैय तौ जान पड़ेगा करि इनका पूणीवरोकन कोर एेसा पैसा काम नही है फिर इसके सिवाय रघुवंशादि पचमहाकान्य, ' शर्कृतल्ा 'उत्तररामचरित' भृति नारक, नारकेकिं पुनः चपू भाणादि अपर भेद ओर सामान्यतः कान्यके नामसे पुकारे जानेवाठे नाना विषयक छोटे षडे सेकडो प्रयधोपर नब हम षष्टि पात करते हे तब एक महान्‌ विस्तार दष्टिगत होता है ओर इनमे यदि चारो वेद ओर जटारहो पुराण मिखाव्ि नय, तौ फिर कोई कैसा री प्रचंड पाठक क्यो हो पर वहं इस पतैतोपम गंथसमूहको देखतेदी

कसप्रापि यह यथ समूचा उपलब्ध नही होता 1 कुछ भाग अवरय प्ये जति ३, न्द पके श्रतकर उनका नाम कथासारतसागर, रक्खा गया वृहत्कथके क्तौ गुणा- इन सबोधन दे गोवद्धंनाचाथेने दो स्थानपर लिखा ३-- श्रीर,मायणभारतदृहत्कथाना कवीतन्नमस्कृम्मैः 1 ध्िस्नोता इव सरसा सरस्वती स्फुरति येभिन्ना ओरमो पूवे विभिन्नकृत्ता गाणादचभवमूतिवाणरषुकोरेः वाग्देषी मजत्तो मम सन्तः पर्यन्तु को दोषः एक शोकम उक्त किकी ग्यास्नोके साय समता वद चतुरादने प्रदित की गयी है। अतिदीधेजीवदोषाटृढ्यासेन यश्ोऽपडारिन ईत केने च्येत गुण टच" एव जन्मान्तरापन्नः उत्तः समह इतत बातको स्पष्ट रूपते प्रमाणित करते कि जिस समय साशती निपिवदर की गर उस समय ' वृदृतकया मलीमाति प्रचलित |

भूमिका

हतेधेर्यं हए बिना नं रह सकेगा # साराञ वर्तमान विषयकी सीमा महासागरकी सीमाकी नाई सर्वथा दुष्य है वहां छो यही पहचनेतकक- स्यि मनुप्यका संपृणं आयुप्यभी अलम्‌ हंगा ती फिर इतने मचंड विस्तारको पूर्णतया द्रैटकर उसका यथावत्‌ विषरण चि्रपयवनाना केसा दुर्घट काम है सो सहनरीमे ज्ञात हो सकता हे तात्पय्यै वत्तेमान विषय ठेसा नही हे कि णक मनुप्य परिश्रम कर उसमे सफलता प्राप्त कर सके, कितु उसमे सफर्ता प्राप्रकरनेक हेतु प्रत्यक मनुप्यको अपनी मचिक अनुसार विषय च॒नकर परिश्रम करना समुचितंहे, नव एेसा कियानायगा तभी सफलता प्रप्र हागी अन्यथा हासकेगी सो स्पष्टही है उपरितन कथित वियषोमेसे अत्यन्त रमणीक तथा रोचक नान पडनेवाटा अत्यन्त सुगमं भाग वह है निसके ज्ञानका अव इउध्र कान्यव्युत्पात्ति ` कहते 'हं अंगरेनीमे इसे ' ८1? -<८ 110 "1८ ` के नामस पुकारते दँ इस भागको सुगम कहने का कारण यह है किं रामायण, भारत ओर भाग- वृताटि एतिहासिक यथ, मल्स्यकृम्मोदि पुराण यथ्‌ अय॑त्‌ महाकाय हानेके कारण परम दुगमरै, उनमे वेद तो सुविस्तृत दानेके अतिरिक्त मायः दुर्बोध एवं नरिटभी + सारांग जिस विषयकी हम अगे विवेचना कृरनवाछे है वह॒ विषय काव्यका है यकि विश्वविव्या्योमि नवेसे मस्कृत भाषाका पचार मारभ किया गया तवसे विद्याख्यस्थ रोग मायः उसके लिये बहत परिश्रम कसते है, ओर यही कारण है कि हमोर्गोको उसका उत्तरोत्तर अधिकाधिक परिचय माप्तहाति नाता है भाचीन काल-

> सरविलियम्‌ जोन्स॒ साहिवने एक स्थानपर लिखाहै

५५ पषलाल्छल, तृाट्ला छपा, कप्लाकाला 10 प्तप 1 द्प्नापा९, 111९ प्रज्णा पीप 716१6४8 1६617 ; 2१५ 616 ॥1€ 101नड# 12 फणपाोत्‌ एत शप्र लि 5111616 [ला1821 पाऽ त्म्‌ 156 पणत्‌ इल्‌] [ठाद [रह धट (त्राण 1028, = १700४ {6 एप्त दगुडा्रगाञ ०॥ एलु 18 [द्पणात्‌ #€ वगा0€8 [त्‌ा४ }*

` # सस्कृतके मृरोपीय प्रम विरूपात विद्धान्‌ मोक्षमूखर साहवका प्रचड उयोगकाड वकी विस्तीर्णैता वथा जरिलताका प्रत्यक्ष प्रमाण है भके करग्वेदको भली भांति भधौतकर सटीक प्रकाशित करनेकेल्वि उक्त विदान्‌ को वीस वषै ल्ग सक्त ग्रथ सन्‌ १८४५ मँ हाथमे क्या गया धा जोर १८५५ शेष इभा

भूमिका

के पेडित कहानेवाछे छोगभी इसीका पारसीलन किया कसते थे, पौराणिक छोग इतिहास ओर पुराणोको विचारा करते थे ओर वैदिक रोग वेदोकों अधीत किया करते थे ¦ तौ यही सव कारण है कि निनके योगसे सम्मति हमने वर्तमान विषयके उक्त भागकाही निरूपण कसना निश्चित किया हे अब इसमे कोई संदेह नह है कि आनदिन हमारे यर्हो यह प्रभकरनेवारे लोगमी विद्यमान रै कि, इस निरूपणस क्या रम है ! हां इतना अवदय है फ, ठेसा प्रश्न यथार्थं रसिक तथा देशाभिमानी पुरुषोंदाश उपस्थित नरी किया जायगा क्योके, निम भ्कारसे एक सामान्य मनु- ष्यके मंहसेभी यह म्रश्र म्रायःन निकटेगा कि सुर्गेधित पृष्पकी सुगंध छेकर मुघने कया करना है वा ख्छनारुरमको रीटावछोकनसे मने क्या छाम है! ओर यदि रेपे भन उस धन्य व्यक्तिके मुंहेस विनिसत हुए ही ती उसके विषयमे यह कल्पना करमेके छि बाध्य होना पडताहै कि, इत महात्माके विषयमे विधिका विधान कुछ विरष भकारका है ठीक वही बात उक्त रसिकचूडामणिके विषयमे संघटित हो सकती निस कविताका राछित्य अनुवादव्यवधानावगुंठित होनपरभी इतना चक ओर रमणीक हज है कि, उसने अपनी मदत्‌ प्रभाके योगसेही युरोपनि- वासी रसिकतापट्‌ भरष्ठननोके चिन्तको मुग्ध कर छया हे, उसी कविताके स्वरूपके पूर्णतया हमारे आछोकपथरमे आनेपरभी यदि हमारी चित्तवृत्ति- यां ज्योकी त्यों निष्कंप बनी रहँ तौ अतमें हमे यही कहना पडेगा किं अगरेनोके नये सुधारसपन्न हो हमने गुरुननोपरभी अपनी पराकाष्ठा मदक्िंत करनेमे कोई वात उठा नदी खी सारा वर्तमान विषयके निरूपणका मरथम एव भधान कारण उसकी रमणीयता है इस्त छम- कोना छोग विदोष उपयोगी नरी विचारे, ओर नो खोग समञ्जते है कि, कान्याध्ययन करना केवरु व्यर्थम काटातिपात करनेका एक सा- धनमान है,उनसे विबवादकर हम नही समज्ञते कि,हम अपने अभिमेतार्थं को उनके गले उतार देगे, एतावता उसके विषयमे अधिक चच कर, यहां केरल इतनाह सूचित करते हे कि वत्तेमान विषयसे हमारे पाठकों

भूमिका -

को उक्तं भधान उपयोगिताके अतिरिक्त भौर भी दो महान्‌ खम होसक- तेदह उनरमसे एक तो राष्ट नाति ) से संबेध रखनेवाखा है, ओर दूसरा देशभाषासे संवे रखता है जातिके संबधे यह छम होगा कि, संप्रति हम निस आत्मविषयक टनादायक अज्ञानांधकारर्मे पडे हए ह, उसका तमःपर्छ दूर हो हमें हमारी यथाथ योग्यता भङर्माति वि- दित हो नायगी ओर भाषाके सबेधसे यह छाम होगा कि, पुरानी संस्के- भाषा समति पचित भादेक्िक भाषामोकी आदिनननी होने तथा अत्यंत पार्णतदशाको भाप्र होनेके अतर अवनत होनेके कारण उसका ज्ञान वन्तंमान भाषाञोकी व्युप्र्नि तथा उन्नति हनेकेथ्यि परमे- पयोगी हागा

यारो वर्त॑मानविषयके स्वरूप तथा उसकी उपयुक्तताके विषयमे आलोचना कीगई अब अगे निरूपणके संबेधसे कुछ थोडासा छ्खि- कर ईस भूमिकाको हम शेष करते है अगले रेखोके पठनानेपर्‌ हमार पाठकोको ज्ञात दोगा कि, वे सव स्वतंत्ररूपसे छवि गये हैँ अथौ उनके विषय भतिपादनमें अंगरेन यथकत्तौ वा एतदेश्रीय पंडितोके मत मतांतयका बुद्धिपुरःसर अनुकरण नरी करिया गया है मसंगवशात्‌ स्थान स्यानपर उनका उद्धेख कर कटी करी उनसे विरोधही नही दिखु- छाया गया कितु करी कदी उनका संडन भी किया गया है यहांपर हमं अपने पाठकोकौ यह बात सूचित कर देना अपना कतव्य समङ्घते है कि, उक्त खंडन मंडन दुष्ठबुद्धि बा अभिमानके कारण नरी किया गया है } संमति हम अपने देशकी निस बातकी वर्तमान अवस्थाको विचारकष्रमे छेते है उसमे पिरे पंच पचस वर्षोकी अपेक्षा आन दिन आकार पातारका अंतर रक्षित होता है पाटे हम अगेनरोगोकी विद्या तथा विभवको देख निस प्रकार आश्च््य॑वाफत हो नाते थे, जीर चिन्तमे यदी भाव उतपन्न होता था फ, हमरोग उनके समने केवछ पामर दहै, उन रोगोकी योम्यताको इमछोग कदापि मप्र कर सकेगे; सो सब वतिं अव॒ धीरे परिवर्तन ग्रहण करने रमी अंगरेनी

भूभिका )

विदाके भरसादसे हमछेगेकिं मन निस नूतन संस्कारसे संस्कृत हो आ- जदिन चा ओर उनके जो फर दृष्टि पथमे आन रगे उनसे मत्यक्ष होता है फ, उक्त समस्त विचारकलाप्‌ केवर भ्रमनन्य थे यह्‌ कथन आत्मनन्य घासे नही किया गया है कितु इसका अब इधर छागोको पद्पदपर अनुभव मिर्ते नाता है तात्पस्यै आगामि टेखोमे जो वर्ति दृष्िगत होगी उन्दे उक्त अवस्थांतरका फट समञ्चना चाहिये।क्योकिं वत्त- मान विषयी रेसा है कि, उसके विषयमे सम्मति परद्रिीत करनेके यि हमरोग जैसे अधिकृत रे, वेसे दरीपंतरनिवासी चतुस्वुडामणि होनेपर भी नरी हो प्कते। इसका प्रथम कारणतो यह्‌ कहा जा सकता दहै कि, वे प्रस्थ होनेके कारण संस्कृत भाषाका उन्हे पूणे ज्ञान हना कठिन काय्यै है तिसपर भी नाति ( राष्ट) भेदके कारण हमारे सहस्रावधि विचार तथा रीति मांतिका उन छगोको यथावत्‌ ज्ञान होना तो पायः असंभवही एतावता अगरेन नाटकाचाय्य रोक्सपियरफे विषमे वहद्देरॐ साहे जो सम्मति मदशित की है उसे अगरेनलोग निस पकार जणुमातर भी नरी मानते, उसी परकारसे इन छोमोके जिन बहुतर पडितोने हमारे भाचीन कविवरोको जिन दोषोसे दूषित कि दै उर तिरस्कृत करने तथा उनकी समारोचना करनेकेखिये दमरोग भी पूर्णरूप आधित हे अतः उनक्रा प्रदशित करना द्वेष-उुद्धिनन्य तथा अभिमाननात कास्य कदापि नही समश्नाना सकता

यह बात भरी यथाथ हो क्रि उक्त अधिकारको हमलछोग पूर्ण- तया व्यवदह्त्‌ कर्‌ सकते हे पर्‌ उसका विदेष तीव्रताके साथ व्यव हारमे खाना मारे रिय उचित नी क्योकि, हमारी पाचीन भाषाको यह पाश्चात्यं पंडितगण यदि पुरस्छरेत क्रते ती

रू गत शतान्रोमे फरातीख लागा ब्हट्टेर नामका एक परम पिग््यातत मनुष्य या, उतकी कोरि क& प्रकारे श्रवणगत होती है भर्याव्‌ उतका नाम सुषिषूपान कवि, नारकेप्रणेता तथा दतिष्टाक् लेखकादिर्कोकी प्रेणीर्म पाया जाताद्े। उसमे अगरेशा भाषाको भरीमाति भधीतकर अपने रो्गोको उसके ग्र्थोका विशेष म्रेमो बना दियाया] मगेर्शलोर्गोकी द्रसते मतमिन्नता केवर एक दती वाततम प्रायी जाती हि कि) ममरेज रोग े्पियरको देवतामूर्चिं मानते नोर इख पडितकौ सम्माति कि, उसको योग्पषा इतनी प्रशसके योग्य नशं हे;

भूमिका।

आनदिन बह करिसि दुर्दशाको प्रप्त हो जाती सो कहते नीं वनता नगङीलोगोके आक्रमण तथा दीष कालपर्यत संचित अमर्दारीके कारण रोमन ओर ग्रौकके गंय जैसे मघ्िमेर होगये# अथवा इतने दूर हम क्यो जेय यवनरोर्गोकी अमरूदारीमे हमारे सस्- तके यंथोकी नो दुदंशा हई,उसे जब हम विचरते है ओर साथही नव उन रसिक तथा उदारता ठोगोकि अनुकरणीय तथा मरसंसाहं कार्य्योको मनन करते एं किं, निन्होने माचीन वरियाकी जिज्ञाससि मरित दो सोत्कट उसे केवर सपादेतही नही किया, कितु उसकी रक्षा कर उसके सर्वव्यापी प्रचा- राथं शतशः प्रयल किये, तब हमारे मनमे सहसा उनके उपकारोकी परंपरा मरदुमूत हो, हम उन्हँ साधुवाद्‌ दे अवाति नही पर यह तो कुक वाती नही है उक्त महानुभावेन यादि इतनादी किया होता कि, हमारे भाचीन ज्ञानभंडारको समादत कर हमटोगोके नामकी संसारभरमें घोषणा की होती तौ वे हमारी इतनी कृतज्ञताके पा कदाचित्‌ हो सकते) पर एतदतिरिक्त उन रोगोने हमपर एक महान्‌ उपकार कियांहे निसके लिये हम उनके चिरकृतज घने रहेगे वह उपकार यह है कि, इन छेोगोने हमे हमारीही पुरानी वि- याकी यथार्थं परीक्षा ओर आछाचना करना सिखाया है अर्थात्‌ विद्या हमारीही है पर उसकी यथाथ योग्यता इन रोगोके सिवाय भटीभांतिं हमे ज्ञात हई होती इस कथनका यह अमिपाय कदापि नहीं है कि हमारे पुरन्‌ पडितगण विद्यं कुछ न्यून थे ओर पाश्चात्य पडितोका ज्ञान उनर्की अपेक्षा अधिक है बरन्‌ हमतो यह समक्चते हे, ओर मायः सभी

% परिया महा देशभ, अरब भफगान तया मुगलादिलोग जेते रिद्‌ तथा पारसीक लागोकं बाधक इए, उसी प्रकास्से युरोषभं गो, सेल्ट प्रमृति लोगेन चारोओर अपना विस्तार बरा योमकी बादृश्चारीका रिध्वक्षकर दिया इस अवचित्य आपात्तिचक्रमे प्राचान ग्रीक ओर रोमनरेोगे।के भेको मथ नष्ट हौ गये उनके यापर केवल दोही उदाहरण दयि जाते ६। अयेन्समे तीन महान सुिरूयात नाटककत्तौ ये, उनके दो तीन सो नाटकां मसे आजदिन केवल दृक्त वासि ही उपलन्ध हो सकते वैसेहौ सिसरोने जितने ग्रथ

किख उनका भजारिन केवल 2, बा माग क्ष रहगया सन १४५३ के सालमे तुकं केगोनि कस्तुन्रतुनिया राजधानीको जब अपने भधिकारमें कर शिया उस समय केवल वस नगरकेदी नदीं कितु समस्त देशके पडितलोग ग्रथोको पेटसते ल्गाजोमागे सो सब युगे- पभरमें कैलगये ओर जहा जिसके सीगसमाये वहो वष जा वसे | इस आप्ति परपराद्वारा युते.

षको जो लाभहभा से इतिदहासञ्जसे छिपा नदीं है, वह सोरहवी शातान्दौकी धम्भैकाति। है

भूमिका -

लोग रसा समक्षते रोगे कि, अंगरेनलोग तथा निके भभिमानी भलेदी बन, ओर इस अमिमानका अनुकरण करनेवारे हमं लेगेमिं जो बहतर बन पठे हे वे भटे व्यर्थकी वकवाद्‌ किया कर, पर वे रोग इमोरे भूतपूव विद्ानोकी अणुमानभी समता कर सुकेन कहांतो गुरुके आश्रमपर रह शाखध्ययनमे युगके युग व्यतीत करनेवारोकी कथा ओर कहां अव उधरके तीन चार वर्मे रुपावरीसि रे 2ेढ वेदांतशाखपरस्य- वाष्पीययानके वेगढरारा विद्याका मागक्रमण करनेवाले हमरे नव युवक आंग्टविव्याविशारदोकी बात! कहनेका अनिमाय यह है कि, आधृनि- कंरोग भूतपुैटोगोकी विद्मि स्वमावस्थामेभी समानता कर सके प्र उनमे एक महान्‌ मरदंसनीय गुण यह पाया नाता रहै कि, वे रोग अत्त अनुसंधानमिय होते है यहांपर इसवातको स्वीकृत करते हम तनिकभी नरी दिचकते कि हमारे पुराने पंडितो अनुसधानसीरुताका पृणरूपसे अभावी था यह्‌ बात अवदय सत्य है कि, जिस प्रकार हम अपने पूवे पुरषोपानित अरंकारोको अपने रारीरपर धारणकर उनकी रक्षा करतेथे उसी मकार हम अपनी पराचीन विद्याका अध्ययनकर उन की रक्षा किया करते भे, पर हमारी अवस्था ठीक वीथी जो कि प्रायः रल- नटित आमूषण धारण करनेवाटेकी रहा करती है अर्थात्‌ सब रतननणिति अरूकार धारणकरनेवाे नेसे उनकी परीक्षा नदी नानतेवेसदी हममो अपनी विद्याकी पर्क्षा नह जानते थे इस बातका हम अभिमान भरेही कर कि हेमने जपने पूर्वेपुरूषोपार्जित धनकी रक्षा की हे, पर यह बात हमे मुक्तकंट से स्वीकृत करनी पड़गी किं उस हमारे चिरर क्षित धनकी उपयोगिताका परिचय सव साधारणको इन्दी विदेशीरगेदाय पाप्त इआ है ! इसके उदाहरण स्वरूपम व्तेमान विषयको ही विचारस्य हमारे भाचीन कवि गणोने अपने कान्यामे शद्धाथेचमत्कृति तथा रसके मानो बड भडार भर रक्खे थे पर उनका आस्वादन हमारे अवौचीन पंडितगण किस भकारे क्षिया करते थे इक्तका यदि परिचय्ेना हो तो वह पद पदपर पराप्त हो सकता है अथात्‌ उनकी टीका उनके मिय ओय, ओर अप्र साधनो दारा उसका ज्ञान हो सकता दे 1 मदधिनाथकेसेनि सेस्डृतके महान्‌ का््योकी पेडितननमान्य टीकां छ्खिीं दै, प्र उनमे केव

१० भूमिंकःाः।

शद्धा ओर व्याकरणकी नटिकताके सिवाय आधिक कृच नहीं ' पाया नाता ! हां करी कुछ अधिक पाया हौ नाता है तौ इतना रिस इभा ओर पराया नाता है कि अमुक स्थानपर अमुक > अकार्‌ बांधा गया है। इन तीन चार निशित बातोके अतिस््तं उनमे ओर अधिक नही पाया नाता प्र अंगरेन टीकाकारकी टीकाओोको देसिये वे लोग मूल कन्यके रसविश्षात्मक स्थल, तथा वर्णनचातुप्यौ- जिस उत्तमताके साथ र्खे है, वह उत्तमता हमारे उक्त ग्रथोरमे कही नही पायी जाती ) हमारे टीक.कारोके मतानु- सार सव धान बाइस पसेरी ही के समन्य नातेहैः अर्थात्‌ सब कृवि एकसे है, उन सवके काव्य भी वैस ही. उक्कषट, सब प्रय रोचकतापरेत) हां तहां ` एसेही उद्टेख पराये नाते है वही बात उक्तं पंडितोके मिय यंथोके विषयमे भी दृष्टिगतं हाती हे इन ग्रंथोदारा भी # इम समति कि इमारे केवल ददी तथा संस्कृत जाननेवाने पाठकोको निम्न लिखित दृत्तातसे अगेरज लोगोकी ग्रथरीक्षा ततथा मार्भिक्ताका विक्षष परिचय प्राप हो सकेगा | हमारे प्रात स्मरणीय श्रीयुत गोस्वामी तुरसीदाक्षजी लिखित अद्वितीय महाकान्यरत्न रामायणकी दौक। अनेक पडिताने प्रचंड परिश्रम उगकर ल्खिी है, पर प्राप सब छोगोने सपना पांडस्य शब्दां चमत्कृत प्रत करनेमे दी केष करदियदि इन टोकाकारोमिंसे किसीनि कीं वह बात नशी लिखी कि भिससे सवैसाधारणको बोध होता कि दमारे गोसाई एके स्वतध ग्रथकार भे उण्टे किष्ठी किञ्चीने ओर यह छिख दिया है कि गार्चाइनी- ने अध्यात्म वा बाह्मोकियरामायणका अनुवाद किया है अव देखिये अगज पप्रौ रेपे एद्धिनथीव्‌स सादिने विधर्म होनेपरमी हमारे माषकि कविरिरो्मणि गोता्नीकी धार्मिक काषिताकी प्रशसा तथा उनके स्वतश्च प्रथकार होनेकी वातको किस माभिकंतेकि साथ लिखा हैः- ८५न्‌ केवल परदसियोमे पर कभी? रिदअतिभी यह वात समक्षी जाती है कि यदह रामच- स्ति मानस वाल्मीकिककत रामायणका उल्था रै, पर यद षात ठक नही हे। दोनेमिं ते। सात खात काड दै, ओर दों एकहौ कथा है जो वाल्मिकिको तुलरसीरासकी बना है पर वहत दिनोसे प्रचलित है प्र इस कथाके। केकर तुलसद्सन अनीहो रीतिप्र इसका वर्णन किया है भौर वइ रोति निस्सदेह अवा हं तुरसीद।सके अगणित अनुक'्रौ हृष है पर चह किसीके अनुचर नह 1 उनको उल्था करनेवाला, न॒ अनुगामी, पर्‌ पकृ सिक्त समक्ष लीजिये 2 नागरेप्रचारिणीपत्िका ततिरा भाग ष्ठ ६६.

भूमिका - ९९

उक्त घात भरीभांति पमाणित हो सकतीहै इन रोगोके मिय यथ राकुतला रघुवशादि नरी दै, कै जा एतहदीय तथा पाश्रात्य रसिकरोगों दवार प्रमोक्ृष्ट निश्चित कयि गये है, कितु महाकाव्योमे नैषधः ओर छोटे काव्येमि 'भारतचप्‌) "लध्मीसहख' आदि यही इन छोगोके परम पिय ग्रथ इस्‌ कथनका यह आमिपाय नही है कि यह खोग “वुवश' तथा "किरातार्जुनीय ' मभूति कान्य पदते पटा नरी, पर हां बहुधा उक्त कैसे मरभकोदी पठते पदात हँ इन छोगोकी मडरीमे नब कभी उक्त गोमके एक आधे शछोककी चचा छिड जाती है ओर एक एक शछोकके पांच पाच सात सात दस दस श्रुष नब निके जाते रँ तब शास्रीरोगेके मंडरीके आनदकी सीमा नरी रहती वह दृश्य भी एक प्रेक्षणीय वस्तु रै ज्यो ज्यो छौकी सख्या बटती नाती है त्यो त्यो मडरीसे यरी ध्वनि सुनाई देती दै बिहारी दै इस कविक)' “धन्य है इसकी कविताका इस प्रकारकी उक्तियोके मारे रसन मडटी तट्धीन होनाती रै कहना नही हागा, किं इन रोगेकिं मुखारविदसे उस समय जो वचनमकरंद्‌ अडता वह भी उसी प्रकारका रहता है अथीत्‌ एसे समयपर यह रोग परायः वही प्य कछेडत रै निसमे कोई आश्रयेप्पादक वकाक्ति वा कोई व्यवहारिक बीति गभत रहती दै जिनमे वणेनादि उत्तम रहते हे, उनकी चच इन छोगेकि मुहसे कथ) श्रवणगत नही होती निदान युरोपके संस्कृतज्न पंडितेनि इस अतिम उपकारद्धारया हमे तथा हमारे भाचीन यंथपरणेतृगणाको पत्यत अनुगृहीत किया है इन सब वार्तोका स्मरण कर उनके दोष तथा निंदाप्री आह्टाचनाओपर विेष तीरताके साथ दृष्टिपात करना हम उचित नरी समन्ते

निदान वत्तंमान ' यथकी भूमिकामे निन विचारोका पा्ट्कां पर प्रका- शित करना आवश्यक था वे मदृ्ित कर दिये गये यहां पर इस घातका पुनरपि उद्धे करनेकी कोई आवहयकता नही बोध होती कि अगला निरूपण उपारितन कथित नृतन प्रथाके अनुसार किया जायगा 1

उसकी व्यवस्थाका- बोध निम्नेद्धिखित विषयकमद्वारा भरी.-आति हो सकता है आगामिरेखेकिं सपादनमे यह्‌ कम ५,

१२ भूमिका 1

जायगा कि पथम्‌ भर्येकं कविके जीवनकार्का निय किया जायगा, अनंतर उसके ग्रथोका ष्टे ओर उनके गुणदोर्ोकी विवेचना, ओर अंतमे उनके उत्तमोत्तम स्थानेकि संग्रह उद्धृत क्रि नोयगे भरोसा तो है कि उक्त व्यवस्थाके योगसे हिंदी बा संस्कृते सहदय पाठको तथा विद्यर्थियोको नो अपेक्षित है सो सब भाप हो सकेगा

अस्तु; अव पथम कविविषयक ङेखका मारेभ किया नाता यह्‌ कवि कोन उस विषयमे स्यात्‌ किसीको भी सदेह होगा काठ तथा योमग्यतानुसार जिसका सवके मथम नामेदटेख किया नाता है वह कवि एकह है नयदेव स्वामी छ्खिते है.-

यस्याच्योरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरो मधुरो

भासो हासः कविकुलगुरुः काशिदासो विलासः रपौ हो खदयवसतिः पचवाणस्तु वाणः

केषां नैषा कथय कविताकामिनी कोौतकाय्‌

जिस कविताबधृका चोर चिकुरनिकर ( केशकटाप ) दै, मयुर कणपृर ( कणभृषण ) रै, भास हास ( हास्य ) है, कषिकुरुके गुरं अर्थात्‌ कविश्ेष्ठ कािदास निसका विद्ास दै, हप ट्ष ( चित्तका आनंद ) हे, ओर बाण नेसके हदय मंदिरे संचार करने वाहा स्वय पेचवाण ( मदन ) है, वह संसारम रेसा कोन है निके मनको कौतुक- म्र नही कर सकती ! #

` सारांश उक्त उद्टेखानुसार कविं कुट गुरसे ही विषयविवेचनका भारभ किया नाता है इति

# चोर कवि व्चौरप्वाशिकाःनामका ग्रथ लिखा है उस मयका ृर्तात बडा रहुम्याव- गुद्धितदहे मयुरन भ्सुस्यशतक, पणीत किय है इस ‹शतक"की दंतकथाभी बडी विलक्षण दै 1 मास धावकके नामसेभी प्रसिद्ध इसके ग्रथ विभोष विख्यःत नौ } काठवासके विषयमे यहा विश्रेषोद्धेख अना वङ्यक्र है हषो श्रीदे नामसे सन रसरफृतङ्ग जानतेश् दे (रत्नावली ओर मुप्रसिद्ध (षष काव्येके रर्चायता यही कहु जातिहे यूरोपीय विद्वानोकी नमात है कि ^राजनरभिणी "में हर्षरेव नामक्र। कषिमरिका जो राजा वणित सो यही है) बाण कावि काद्बरीके कत्त इनके विषयमे आगे एक स्वतत्र लेखही

खिला गया हे।

श्रीः संस्करतक विषश्चैक `

कालिदास

निगेतासु वा कस्य काष्दिसस्य सृपतिषु प्रीतिम्पैधुरसाष्रोसु पञ्रीष्विवनायते स्वील

काटिदासके विषयमे यरी कहा नाता रै कि पायः होमरकी नाई उसके विषयमे अभीरो निश्वयरूपसे कोऽ वृत्तान्त उपरुढ्ध नही हुभा है 1 उक्तकी असामान्य कीरिं आन उतुपान्‌ हुनपएर ेट्‌ हना वसे अद्धितीयताके कारण उसके स्वदेशमे अमेटरूपंसे फटी हुई है, भोर उसका नाम आबा- रवृद्धके जिहग्रपर पाया नाता है, पर वह कोन था, कहां था, क्व था आके विषयमे किसको कुछभी जात नक्ष है उक्त तीनो वातोका अनुसन्धान कसे स्यि अंगरेन ओर भारतवर्धीय विदान छोगोने बहुत उद्योग करिया है; पर अद्यावधि किसीके उयोगको सफ़रुता माप नदीं हुई है उसकी जाति, स्थ, ओर जीधनकाङ आदि भीरो निश्चित कोई कहते वह सारस्वत व्राह्मण था के कहते हं वह कादमीरका रहुनेवाला था, कोई कहते है, नही वह उजैनमे रहता था, वैसेदी भौर रोग कहते हँ वह धारानगरीका निवासी था, एेसीही मत- मित्रता उसके नीवनकाख्के पिषयमेभी पायी नाती है किसीका मत कि वह्‌ ईंसवी सनके पूवं पदिटी शताब्दमे जन्मा था, कोई कहते है उसके अनन्तर छट शताब्दीमें वह हुआ है इस परकारसे काटि- दास्के विषयमे निश्वयरूपसे किसी वातका पता नही ठ्गता करई रोगोकी सम्मति है कि काछ्दास दो हर कई छेरगोका अनुमान \ हेता नौ मधुर एव रस वुदवुदातीं दुं दृतन मज्जरीफो देखकर होता रै

संस्कतकवि्पैचक

कि जिस रससिद्धं महाकविने श।कुन्तसादि मन्थ छिपिवद्ध्‌ कयि है वहं उजेनका निवासी था, ओर नछोद्यादि' सामान्य एवै जिष्ट कान्योका रचयिता, भोनरानाका आधित कोई दूसरा कािदास हुजा दै तात्य गरसदेरके भादि कविकी नाई हमरे महाकविके विषयमे अवो एकषी सीचासीव चरी नाती है पर उससे मथितां भभीरो ककम समपपारित नही हुमा दयामूर्ति परमेश्वरसे हमारी सानुरोध यही प्राथैना है कि उक्त सीचातानीका परिणाम नेसे होमरका अनुसन्धान करते करते भन्तमे यह निश्चित होगयान कि उस नामका कोर मनुष्यही नही था, वही भक्षे विचारे हमारे कषिके अस्तित्व पर भाने पावे

कार्दिासके विषयमे हमें कुकी वृत्तान्त उपर्ग्ध होनेका बडाभारी कारण तो यह है फि उसने निजके विषयमे आत्मरचित म्रन्थोमेँ कुक नहीं छिखा।मवमूतिःवाणमभति कवियेनि जिस मकारसे अपने कश्चकाव्णन अपने यन्थोके आदिमे किया है, ओर मायः सब कवियोकी अपने पटक तथा भावी लोगेोकि आत्मपरिचय देनेकी नो भ्रथापायी नाती है) उसकी कालिदासने नितान्त उपेक्षा की है अपने यन्थोपर उस- ने अपना नामरो ते लिखा नही तो फिर अपर परस्वियकी वात तो बहुत द्रकी है उसकी कीरिं परिरेसेही रिगन्तरव्यापिनी होकर,उसंके गन्थ समस्त छोगोको प्रम्‌ भिय एवं मान्य यदि हेनोत, गोर यदि वह नाटक भणीत करता, तौ आन दिनि उसके नामका ठुप् होनाना कोई असंभव वात थी उक्त दोनो कारणोके योगसे उसको सक्षातो हई है, पर तिसपर भी उसके मौनभावने एक बडीभारी आपत्ति उन्न करही वह यह्‌ है कि बहतसे सामान्य ओर कई अभयोजनीय अन्थ भी उसके नामसे आलो मरसिद्ध होते चरे अगि

रः जभेनीमे उर्फ नामका को पष्डित था ¡ उसने यह सम्मति मकट की हैक, रमर नामका के मनुष्यही नहै था "इलियडः जर ओंडिसी' काव्यको अनेक कवियों मिलकर लिखा ₹, ओर वे ठक्त नामद्वे जाजल्ो चंकेमाते हे यही समङ्खना चाप्यं पए अव इधर ठक्त मतक प्रवता हीन होगयी

कालिदास

है, ओर भूतपू््य पण्डित छोगेमे अतुसंधानृशीरताक्‌ पुणेरूपसे अभाव होनेके कारण वे सव उसके बडे नामपर भसिष्दिः रोते चशे आये ¡ अमुक कान्य य॒न्थपर कारलिद्‌] सका नाम भवेद्य पाया नाता है, पर उसमें उसका कमित्व गुण करहांरो दष्टिगत होताहै, इस बातका विचार करना तक पुराकारमे फिसीक्रे मनमे नही आता था भतः कारिद्‌सके नामे आनटो मसिद्ध होते अये हए मरन्थोमेसे वत्तेमान पण्डितोने कई मन्थोको प्रथक्‌ कर उन्हे ञुठ ठहराया है इसके उदाहरण स्वरूपम 'मारविकाभिमितर नाटक भौर नरोदय' कान्यका नामेष्टेख फिया नाता है उक्त नायक काशिदासकृत नही है, वा निदान सचे का- खिदासका नही हे, यह्‌ सम्मति विुसन्‌ साहमने एक स्थानपर प्रकाशिते की है, तबसे उसके विषयमे सबके मनम सन्देहे उपपन्न होगया है ओर यह बात प्रतीत भी होती है, स्योकि उक्त नाटकको पतीवार रसन्ञ- ननोको इस वातका तनिक भी बोध नदी होने पाता कि हम शाकुतला, ओर 'विकरमेर्व्षी रचयिता कविकी कविता पड़ रहे है नखोदय' का- व्यक्री बात उक्त कथन से निरारी है निसमे अणुमात्र भी रसिकता हेगा, ओर निंसे काछिदासके कवित्वगुणकी यत्किचित्‌ भी परिचान

7 विना नाम अन्थके प्रकटित होनेसे दो प्रकारके अनर्थं हेति हे एक तो निश्रभेणीके म्रन्थोको परसिद्ध मन्थकततभाके नामि प्रसिद्ध करनेका अवसर लोगेकेष्टाय छग जाता, तृसरे गार लोगोके भी मसिद्ध गरन्थोके साथ अपना नाम चपका देनेका अवश्र मिलनाता हं 1 इस दूसरे अनस अप॑नी कषिताकी रक्षाकरनेके हेतु पण्डितरान जगन्नायने जपने "भामिनीविलास" कै अन्तम निम्रछिखित शलोक छख दिया है

इचा जारजल्मानो हरिष्यतीति क्ंकया मदीग्रपयरत्ाना मजपपा मया करता

(ट्ट एव जारजात लोग मेरे पद्यरनोको भपहूत करलेगे इस रोकके कारण यह भजप| भने प्रस्तुत कौ रै।पण्डित राजक समस्तरट्न एक्‌ स॒त्रमे गफित हेनेके कारण उक्त मयकी विप सभावना थी

£ विरस स्ाहवने उक्त प्रतिकूल सम्मति अपने पटिनदू यिएटरः सज्ञक यन्थमे मकाक्षित की ईं इस मन्यमे सर्कृत परमोक्कृष्ट नारकोँका अद्धरेजनामें पूरा उस्था जीर दोषका षोही भाडा बहुत स्वरूप कथन करिया गय

संस्छतकविपंचके

होगी, उसे उक्त किषृष्ट काव्यकी कर्तैताके विषयमे विर्कुर रद्ध होगी कहां तो संस्छृत कवियोके कुटगुरुकी परसत्रता ओर सरसतासंपत्र वाणी भर कहां नारिफेपाक तुस्य उक्त हठ कवित्व ! .आनपर्यत सम- स्त धरतीपर नो भसिद्ध कावि हुए हैँ उरनम॑से उक्त कैसे इन्द्रनारको मरित कसनेमे अपनेको किंसीने भी धन्य नहीं माना, बरन उसके वि- षयमें समने तिरस्कार प्रद्त किया है बडे कष्टसे शब्द चमत्करतिका साधन कर अरसिक रोगोसे भरो भाप कणेका उत्साह केवर निप्न म्रणीके कवियोमें दष्टिमोचर होता है यह बात अगि अप्र कवियोके बणनमें मदर्ित की नायगी काडिदासादिकोके श्रोतृचित्तरंनन कसनेके साधन कु निरषही रहते है गोवर्धनाचार््यने कहा है

साकूतमधुग्केमट्विखसिनीकण्टक्नितप्राये।

शिक्षास्षमयेऽपि शुर रत्टख कारिदाशोक्तिः ८“शिक्षाके समथमें भी अनन्ददेनेवाछे केवछ दोही विषय हे, एफ सीसमागम, भौर दसरा काठिशसकी कथिता पहिछा कामिनियेकि मधुर, कोम, ओर भावयुक्त मंद आपो परिपू है, ओर दूसरी कविता उक्त मुग्ध भाषर्णोकी नाई मनोहर रै # सारांश अनलो काष्दासके नामस भासदं रोते चे जयेहृए गन्थेमिसे कर यन्थोकिं विषयमे संशयात्मकता पायी नाती है, इसका का- रण उपर कही चुके है अव ने। न्थ यथार्थे उसके ओर अन्तरङग स्वना तथा ननमसिद्धि्ासं उसीके निशित होते है उनके विषयं नीचे यथाकमं विवेचना की जाती

"+. __ ___ ____----------------------- केवल अन्दर चमत्कृतिसम्पत्न काव्यद्वारा यथथे रस्िककी- मनस्तु बिलकुल नदीं हती यदं अभिमाय 'मार्यीसतदतीमे' कहे सरसं एव माभिक दषटातद्रारा व्यक्त, किय। गया हं] रतरीतिवीतवसना भियेव डुद्धाऽपि वा्मुदे सरा अटसाघण्टकृतिरपि रचिते श्रालमनीब मैसेरी; अध्वनि पदग्रहपरं मदयति हृदयं वा वा श्रवणम्‌ 1

कृाव्यमाभिज्ञसमायां मजीरं केलिविलायाम्र्‌

` कालिदास 1

फाटिदासका प्रथम ग्रन्थ ऋतुसंहार है।% इसर्मे षडकतुका वर्णन किया गया है भिन्न तुमे भकृति देवी जिन जिन रू्पोको धारण करती है उनका इसमे सस्छृतकविकुर पथानुसार कने वर्णन किया है इस काष्यका विष गुण मधुर एवं कोमल पदरचना ओर कविनन संमदाया- नुसार सरस अथैका निबन्धनमातर है ! इस गन्धको देख यही वात विचार मे आती है कि हमारे कविने भषति देवीका अनुधावनकर इक्त सरख्से विषयको परहिेसे हाथमे छिया होगा, ओर निक्त वाग्देवीके स्वस्व एवं पूरणं कृपाका जगे वह पात्र बना, उसे उक्त छोट काव्यद्ारा उसने प्रथम नमन क्या होगा अवं इधर अगरनी कविताके पठनपाठनद्ारा [नन खेोगोको भकृतिवर्णनके नूतन भकारोका परिचय हुआ होगा उन्हे उक्त भथका वर्णन बहुत पसंद नही होगा क्योकि वेखोग कहत कि उक्त मन्थ विचित्रताविशेष ओर सिके पूणं एवे सुक्ष्म अवटो- कनके अभावे दूषित है ओर सच पृथि तो उक्त दोषको द्र कसे- के स्थि कोई उपाय भी नही है वत्तैमान कान्यके पक्षमे इतना अवद्य कहा नाकता है किं उक्त दोष केवट उक्त कान्यतें ही नदी घटित होता किन्तु सस्छृत कवितार्मे सशिविणंनमरणाटी सामान्यतः चारो ओर उसी मकार- की पायी नाती है इसी कविके "रघुवशम' "वसन्त, ओर गरीष्मतुका , वणेन है, “कुमारसम्भवमे' पुनः केवर ॒ष्वसन्तका वर्णेन है, ओर वैसे मृच्छकटिक नाटकम्‌ पावसका कादम्बरी वसन्त ओर वषौका, किराता- जनीय्मे' शरदतका ओर “भृगारदातक र्मे) पांचो ऋका वणेन दै सारांश उक्त भिन्न >, स्थरोमे सस्त कवियोके ऋतुबणन पाये जातत पर एक शोरसे रगा दूसरे छोरतक एकदी भकार दृषिगत होता है।वसन्तके वर्ण- नमे कोयरका कटर, ओर अवोका वैरना, गरीष्मके वर्णनमे च॑दिका ओर रीतलताक्रा उपचार) प।वसके वणेन मे मोर चातकका आनन्दपरदरन शरदरणनमे हंस ओर स्वच्छ चन्दिका का वणेन ओर हेमंत रिरिसे

यद वात तो स्पषटटो है कि ककिर के भ्ोकी सालिका कालक्रमानु्पर वन सकेगी एतावता व॒तरेमान्‌ लेखमं वह्‌ क्रम म्रथाक उक्करृषतापर निर करिया गया

संस्कतकदि पच ¦

शीतवायुक द्कारयोको वर्णन) इत्यादि परसिद्ध ॒भरसिद्ध वातो अतिरिक्त कही कुड अधिक वर्णन नही पाया नाता) अंगरेभी कवितामे निसं भकार गगनभेदी पर्वेतोके ओर उनके तुङ्ग शिखरि दृटिगत होनेवाछे भव्य एवं रमणीक दप्येकिं, ओर्‌ तूफानसे उमड़ हए समुद्र दिके वर्णन पाये नाति वैसे सस्छृतमे परायः नही दीख पडते ओर तो कया पर समुद्र पर मेपकेटिये संस्कृतमे कोई शब्द्‌ टे बा नही इसकी दौकाही वनी रहती रै। वात्या" "वात्या चक' परभृति शद्‌ हँ पर वे धरती परफ मेहोकेदी वाचक है। जगरेजी ओर सेस्छेत कविताकी यदि तुना की नाय, ता दोनोमें रेस विदोप भेद्‌ वहुत प्रयि नर्येगे, प्र उन॒सवमे यहभधान होनेके कारण भाषाबाखविरार्दोदाय विचाराहं टे सिके चमत्कारओंर्‌ रमणीक ददयो- को देख एक सामान्य विचारी सनुप्यका मनभी तीन ही आश्चयं चकित तो जात्ताहे, तो रिर भेषारोके भवति सुखिनोप्यन्यथावृत्तिचेतः" रेषा जिन्हे अनुभव दोदका उन कविश्रष्ठोक मन उन्दे देख कैसे तद्धन होने चाहिये पर बह वात उनके व्णनोमें विेपरूपमसे दृष्टिपधगाभिनी नही होपी अव इसमे अणुमात्रभी सदेह नहा दै कि सूक्ष्मविचार करनेपर इनके कारण अनेवः जातत हेगे, पर सप्रति यहां उन्दीमधान २कारणोका रदटेख किया नाता है नो स्वसाधारणको सहसा विदित दोसकते काटिदास, वाणमरमति कवियेनिं रानधानीमे होनेवाट महोत्सवोका आर्‌ रानागणोके अन्तःपरादिका ना स्थान स्थानपरवणनक्रिया उपस यह वात स्पणटरपसे प्रतीत होती ङिवे दोग रानात्रित थ। राना रत हनिके कारण वनश्रीकी असामान्यनेभकर निरीक्षणाय यधच् भ्रमणकरनकी आधीनता उन्द्‌ अपाप्थो अरण्यनराष्क चमत ठेसनेफा अवसर उनके हाय तभी ख्गता जव कभी सानाटाग मृगा चलनको जनि ओर उन्दे अपन साथटे नति; एं पर्तयकरा षन उनकी कवितामां अनेक स्यटापर्‌ उपटन्ध देता ऋतुमहागाद्‌ काव्योमे ने वर्णन पानात ₹वरएसंटजानगसकं नगर गा उपुत्रनम

कालिदास

होतेह उसकी देह कोधाभनिसे सतप होगयी, शिवक। अगापि महिमा तुद्य केसे नराधमको वर्योकर ज्ञात रोसकती है, इत्यादि कह प्वेतीने

' उसकी निभेस॑ना की; फिर वह वही बात पुनः बोरनेदीको या कि उसे वहांसे निकार्देनेके स्थि पावने अपनी सखीको आान्ञा दी भौर स्वयं उसने वहसि चरूदिया इतनेभ उक्त मुनिने अपना सचा शिवरूप प्रग- यितकर पर्षतीके संदेदका निवारण किया, गीर आनसेभ तेय दास हा एेसा कह उन्हे उनके तपकी सफरुता ज्ञात कयी चेमे रिवके स्मरण करतदी सर्वि मगट हुए जोर रशिवकी आज्ञानुक्तार उन छोगेनिं दिमास्यके निकट जा पवेतीके पिवाहके विषयमे बातचीतकर विवाह निदिवत फिया घेतिम अर्थाव्‌ सातवे सगमे उमा मंहेद्वरके विवाहका भनेदोतसव वणित है काल्िदासके नाम तथा उसके बहुतर मरथोको देख जाना नाता है कि शिव पावती उसके उपास्य देव थे तीनो नाट- कोकी नादीमे सिवनमस्कृति ही पायी नाती है, "रवुवंश' के आरि ओर कही वीचमे भी रिवस्तुतिके इछोक पाये जाति दहै; पर यह्‌ धात भिवदृतरमे' वहत अधिकताके साभपायी नाती रै। 'कुमारसभव' मे शिव- पार्वंतीके उद्वाहपर्म्यतकी समस्त वार्तोका वणेन है; भौर "कुमारसंभवः अर्थात्‌ कार्तिकेयका जन्म, इसनामसे इसकाव्यका अवसान यहीं अनु- मित होता पर अव इधर आगेके ओर भी दक्ष सर्गोका पता र्गा ३, प्रवे कालिदास्के ही र्वि हए वाकिसी अन्यके इस विषयमे एक नया विवाद उतपन्न होगया बहतर छोगोकी सम्मति एेसी कुछ नान पड़ती है उन्दँ काडदासकृत नदी मानना चाहिये क्योकि यदि कािदासही इनकी रचना करता तो वह इस कान्यका (तारकव- धम' वा एेसादी कोई दुसरा नाम रखता, (@ुमारसभव' रखता अतिरिक्त कारुदासके सुमसिद्ध काकार मदिनाथकी धकाभी सरगोप््य॑तदी उपरब्ध रोती रै, आगिफी विकर नदीं मिती;

यदी दौसपडता कि यह सगे उसके समयमे परसिद्ध नये, वा

& संस्कृतकविप॑चक्‌

विभवद्रनकी एेसी उत्कट इच्छा ओर उत्साह था कि उसका परा जन्म पहाड़ी देश, नदी मेदानादि प्र परमण करनेमें वीता अस्पु, इन सष बातोमेसे हमारे कवियोको करीं कुछ्भी अनुकर था, अतः यह उनता उनके काव्योमें दख पडती है एसा कहना युक्तिसंगत भरतीत होता ३ै।

"कुमारसम्भव, महाकाव्यको नान पडता काशिदास्ने मध्यम अव- स्थामं छ्खा होगा एसको कथा शेवपराणसे टीगयी है आदिमे पवतीके पितः दहिमायका व्णेनकर, परििसर्मभे उनका जन्म ओर उसकी मुग्धावस्था वित की है दूसरेमे तिजगसीडक तारकासुरत्र- षित इन्द्रादि सुर अरह्माको शरणागत हुए हँ; ओर ब्रह्मनि मदनकेो बश्च करनेकी युति इन्द्रको बतरई तीसरेमे मदनने इन्दकी सूचनातु- सार रिवमेरणाका काम अङ्गीकृत कर अपन सहायक वसन्तको भगदटेत हेनेकी अन्ना दी है ! अनन्तर पविती शिवदरीना्य आयी हँ ओर का- मने. तदथे शिक्के हदयमे क्षणभर कामबुद्धि उसन्न की दे, पर शीधदी शिवे उसका दमनकर चे ओर कोषधायिकी दृष्टि फेछायी उक्तके मदनपर प्डतेही वह भस्म होगया चौथेमे मदनमिया रतिके पतिवि- योगनन्य शोकका वणेन शोकरसतप्न हो उस्ने वर्धतसे विता पस्तुत करनेको म्राथना की, पर इतनेमें आकाशवाणी दासय उति पुनः पतिप।पिका आदवासन मिख्नेके कारण वह्‌ निर्चय उसने छोड दिया प्रचरवमें 'पा्वैतीफा तप वर्णित है शिवके {सहसा अन्तर्हितं हननि- पर पार्वतीका जो अपमान हज उसे नितांत दुखी हो पवैतीने दिमा- छयपर उय तम ॒करनेका निङ्चय क्रिया फिर बहुत काठ बीतनेष्र एक मुनि उसफे आश्रमपर अये उनका उसने स्वागत किया तदन- न्तर मुनिने उनके घोर तपक। कारण पृछा सखीदारा उक्त मुनिके सब वृत्तान्त सुनाया, निसे सुन मुनिन अत्यन्त विस्मिते हो अमगटसूप शिवपर इस प्रकार भासक्त होना बहुत अयोग्य है कफर शिवफी निदा करना मरभम किया दिवर्निद्‌ पतिसाणा पर्वतके करणकुहरमे भवि

कालिदास १९

पडता हे “पवुवशमे' सूर््वसी रानाथोका वर्णन दिरीप रु, अन, द्रारथ, राम,कुश भौर आतिथिके दिग्िनयादि मतापो ओर उनके सांसा- रिक सुखदुःखनन्य अनुभवका वणन पिरे सतरह सर्गमि किया गया रै 1 अटासेमें अतिथि रनक वैशनेका समासवणैन है, ओर आतिम अर्थाव्‌ उन्नीसषे स्मे रघुवंशे अतिम राना अयिवणेके भ्रेगार अर अंतकां वणेन “ुवंश' काञिदासके समस्त काव्येमे भ्रष्ठ है। मोह ओर मधुर वणै- रचना, वर्णनकी देरी, मिन्न रपोका आविभौव आदि उसके गुणोका उक्त काश्ये पूरणैरूपसे परिचय भिरता निस वशके गुणकथन कर- नेकेखियि वामीकादि कविश्रर््की वाणी पगु होगयी, ओर उस्तके योगसे जिस वशकी कीर्तिको अमरता पराप हई, उरसीप्र अष्टि कर मेंणेटे सहु वडा कौर छे रहारं इस टिगईके सिये बहुत संकुचित हो यह कविकर गुरू र्खे हैः-

४4 ९0 [3

मंदःकवियरःप्ा्थ। ममिष्यूष्युपहास्यताम्‌ पाश्रभ्ये एके मोरादुद्राहुरिववामनः॥

(जसे किसी वृक्ष्के फर केदछ उवे भनुप्यक प्राप्य ह, ओर कोई नाया मनुप्य छोभके कारण उसकी मा्रिकेध्यि योदी ऊपरको हाथ उटवि, ठीक वसेह मन्दमति भे कवियङ्की माफ निमित्त व्यर्थं इच्छा करता ह, एतदथ विक्ञछोग मेरा उपहास करेगे" उक्त कथनसे यह वात निश्चय रूपसे रक्षित होती है कि काट्दासने हाथमे च्यि हुए कामको असामा- न्य समञ्ञ उसके पुणे रूपसे संपादनारथं कोई वात उठा नदी क्ख ओर वास्तवमे यह वात ेसीदी दष्टिगत होती है नेसे किसी विशार नीका भवाह नहां > देखा जाय वहां रमणीक ही भासित हेता है तदव इस कान्यका मत्येक सगेही नही बरन उसका मत्येकं शोक कविके अपू

पूणेरूपसे पारेचय देता हे तथापि रसाटभवमे जहां अन्तःकरण

' होनाता है एेसे नो अ्युक्कृष्ट स्थर इस काव्यम हँ वे अगे उद्धि-

` नर्येगि।सिह ओर दिर।१,६द ओर रघुःमियवद ओर भन आदिका

१० संस्कुतशविपंचक

मसिद्धभी दो तो यह काल्दासकृत माने नहीं जति ये परत अपर ठोगोका यहा मत दै कि यह सर्ग स्वयंकार्दासके द्खि हुए नही है, , स्यात उसके किसी शिष्यके च्लि हए हेगि अर्थात्‌ निस मकासस क(द्नरीभ्रथका उत्तरभाग बाणभङ् कविके पुतन प्रणीत कियाहै उसी भकारसे स्यात किषी शिष्यने इन्दे रिसा हो इस दूसरी कल्पनकि सम्थनमे यह कहा ना सकता है कि अंतिम सर्गी पर्वके सगि अत्येत विभिन्नता नही बो होती बहुतरं शब्द, रा्दसमूह ओर छेखपणारी दोनोमे एकी देखपडती हँ पर प्रौढता ओर अ्थचमल्छृति प्रभति गुण पहिले सात सर्गाकी नाई अओंतके सगेमिं सथ सके नहीं देखपडते यद्यपि इस ग्रेथके विषयमे पडतेकि उक्त प्रकारके भित्र २, मत पये नादे है तथापि उक्त सरामनारुका जवो निरसन सचे निश्वयसूपसे कोड बात उपर्व्ध नही होती तवं उत्तर सर्गोकी कन्तको वाद्ग्रसित समक्ष हम समति किसी पक्षका अनुधावन नही कसते इस काव्यम स्थर स्थरपर सुद्र वणन हँ, ओर श्रुगार एवै शोक- रसकी ओर विक्षेष ध्यान दिया गया है।यहां यह बात टिखनेकी कोई दद्रयकता नही है फि इस येथके उत्तम शोक ओर सवाद यदि उद्धुत; यि नोय तो बहुत विस्तार हो जायगा अतः यपर इतनाही कहदेना अरम्‌ होगा आदिका हिमालयवर्णन, गोर पांचवे सर्गेके कपयवेष- धृक्‌ मुनि ओर पार्वेतीका सवाद्‌ अत्यंत उत्कृष्ट हं परवैतके उप्रफे अनेक सृष्टि चमत्का्ोके वर्णन परम चमत्कारनन्‌क एवं आनंदोतादक हँ ैसेही पांचवें सर्गे पार्वतीके मेमकी परीक्षालेनेके सिये कपटसमुनिने जो भाषण किया सो जीर परर्तीनेउपकानो तिरस्कार किया है सो सव भरसगपरम सरस ओर हदयगरादी है

का्दासके परमोत्तम यथ "खुर्र" भेषदूत (शकुंतटा' नाशक ओर (विकमोर्षशी) नाटक रै इन्द उप्ते भढ भवस्थामें छिखा होगासता नान-

काटिद्टास १९१

पडता हे रुवं सूर्यवेशी रानाथोका वर्णन दिरीप, रघु, अन, द्रारथ, राम.कुश ओर आतिथिके दिग्विनयादि मतापो ओर उनके सांसा- रिक सुखद्ःखनन्य अतुभवका वर्णन पिरे सतरह सगमि किया गयाहै अराखमें अतिथि नके वेशनेका समासवभेन है, ओर जतिम अथात्‌ उन्नीसवे समे रधुवर्के अतिम राजा अग्रिवणेके भरेगार अ।र अंतकां वणेन 1 “रघुवंश काथिदासके समस्त काव्येमि भ्रष्ठ है। मनोदु ओंर मधुर व्भ- रचना, वर्णनकी शी, भिन्न > रसोंका आविर्भाव आदि उस्षके गुणोका उक्त काव्यम पुणणरूपमे परिचय मिता निक्त वह्के गुणकथन कर- नेकेखियि वारमीकादि कषिश्र्टीक। वाणी पगु होगयी, ओर उसके योगसे जिस वराकी कीर्तिको अमरता माप्त हुई, उसीपर अक्षिपं करमें छो मर्ह वडा कौर छे रहाहं इस टिटारईके लि बहुत संकुचित हो यह्‌ कविकुर गुरु र्खे हैः-

मदःकवियशप्राथी ममिष्यग्युपहास्यताप्‌ प्रडरुभ्ये फरे मोरादुद्राहुरिववामनः

(नेते किसी वृक्षके फर केदर उचे मनुष्यको माप्य ह, भीर कोई नाटा मतुष्य रोभके कारण उसकी भाप्तिकेश्ये योही उपरको हाथ उखवि, ठीक वेसेही मन्दमाति कवियराकी भा्रिके निमित्त व्यर्थं इच्छा करता ह, एतदथं वित्ञरोग मेरा उपहास करेगे" उक्त कथनसे यह बात निश्चय रूपसे रक्षित होती है कि कार्दिसने हाथमे चयि हए कामको असामा- न्य सम्म उरक पूणं रूपसे संपादनं कोई बात उटा नही क्खी ओर वास्तवमे यह्‌ वात देसीरी दष्टिगत हेती है नेसे किसी विशार नदीका भवाह नहा >, देखा जाय वहां > रमणीक दी भासित हता है तदव इस कान्यका भत्येक सही नही बरन उसका मत्येक शछवोक भी कविके अपू गुणका पृणेरूपसे परिचय देता तथापि रसारमवमे नहां अन्तःकरण तदधीन होनाता है एेसे नो अल्यु्कृष्ट स्थर इस काव्यम हैँ वे आगे उदि. सितक्यि जारयगे।पिह जीर दिर1प,ईद ओर रघुःियेवद बौर अन आदिका

१२ संस्कुतकविपंचक

भङ्ग इन्दमतीक्रा स्वयंवर अथवा छटा स्)विदभदेशापिपतिकी रान- धानीर्म अन रानपृत्रकं वरभवेश्च ओर विवाह, अपर राना्ेत्ि हए युद्धांका वर्णन, ओर तदनन्तर भयभीत हुई इन्दुमतीके साय बीररस- मरमुख साभिमानं संभाषण, प!रिनातकी माछाका वृत्तान्त, ओर इंदटुमतीके अर्थं अजका श्लोक, वसंतोत्सव ओर दहरथकी मृगयाका वणेन; राम जओौर भार्गवक्षा मसङ्ख पष्पक विमानपर आरूढ होकर रामने सीताके अभिक्ञानाभे समद्र ओर पूर््ववृत्तस्मारक अनेक स्थर्छोका जो वर्णन करिया, सीताका वनविसर्जन, भौर मुनिवर बात्मीकिदासा उसकी सांत्वना खीरूपते आयी हृईं अयोध्या ओर कुदाका वात्त॑रप; ग्रीष्म ओर नङ- विहारका वर्णेन; ओर अंतिम सर्गके अग्निवणैका श्रङ्गार वणेन; इन- मेषे किसी एकका रसास्वादनं करते सहृदय पाटठकोको काछिदासके कविताकी मनोहरता ततक्षण विदित हो नायी; ओर तदथ उन्द जनि- वायं अभिहाबि उत्पन्न होगी इसमे अणुमात्र भी सन्देह नहीं है

भेषदूत' को बहुतेरे छोगेने देखा भेदी नहा परर ॒ईसका नाम अव्यो सुना होगा ओौर बहुतर कान्यरसिक ठोग इसके काव्यरसा- मत को पानभी कर्के गि यह बहुत शेय होनेके कारण संस्कृतमे इसे 'लण्डकाग्य, कहते है पर कवितके छोकोतर अनन्द्‌ देनेवछे ` अपू गुणोके कारण यह इतना रमणीक बन गया है कि ईसक। समानतामे महाकान्यभी फीके नानपडते है इमे तिरमाजभी सेदेह तरीं है कि काण्दासके समस्त यथ टप होकर यदि यदी एक रभ्यमान रहता ती इसके कारण वह कविवदमेअयगण्य माना जाता। काल्ये वर्णनीय विषय भायः जगत्की नाना भातिकी घटनाएं ओर सामान्यतः द्िपथमे अनिवले सिवमत्कारादिदी हम करते है; ओर इनका यथाथ वर्णन करना यद्यापि सामान्य कविताशक्तिका काम नहीं है, ती भी रेसे कवियोकी ऊनता नदीं पायी नाती, स्योकषि अलुभूत वार्तोका वर्णन करना ताद्दा कठिन नदीं '६। प्र नहा केवर मनकीरी गति

कालिदास ९३

होती उस इद्वियातीत अद्धत का्पनिक सृष्टम यथेच्छ विहार करने का अधिकार # "मिट्‌समर नाइटसदीम' ्याराडेनरूष्ट' भेषदूत' आके स्वयिता भगवती सरस्वतीके रारोकोदी मप्र है ! वह॒ विषय अपरछेगेकेथ्यि अगम्य है कािदासके जीवित्व ओर कवित्वका संद्ेतभाव कैसा पूर्णं॑था सो उक्त काव्यद्ारा स्पष्ट नाना नाता हैः वोकि कयासूत्रकी सामग्री कुक हनेपरभी कल्पनाशक्तिके उदात्त एवं समुज्ज्वर विरासोसे यह काव्य पररिपूणं है इस कान्यकी कथा नितांत सररु एवै चम्करतिननक उसके मेरुकी कथाका अकेठे संस्कृतहीमे नही किंतु संसारक अपरभाषाजमि भी पाया नाना भायः कठिनही बोध होता है प्राचीन आर्य्य छोगोकि समयसे आनल नो "गिरिरन' के नामसे भसिद्ध ६--नीर वत्तमान अनुसंधानानुसार निसका उक्त नाम केव भारतकेदी नदी किन्तु सपण पृथ्वीके सेधसि यथां हुमा है-ओौर जिक्तके हिमवेधित गगनभेदी उत्तुगाशिखर गगा यमुनादि पावन महान।दैयोके उत्त्तिस्थान रहँ एतावता निस, ग्रीसके आपस परव॑तकी नाई यके छोग ॒देवोका वसतिसथान मानते हँ, उस हिमारय रिखरस्थ अल्कापुरीके एक यक्षको कृवेस्का शाप हो उसे भियाविरहनन्य परम दुःख भोगना पडा कहां हिमालय ओर कहां रामगिरि ! प्र॒ निरपाय होने कारण वहाभी उस्ने वियोगनन्य असह्य दुःखके कई महीने कटे अगे शीघ्री पावत ' के मेषोकी गजना होने छमी तब उसने भीर चितामे मर्हो यह मसूबा बाधा किं मेरे दीं विष्दसे जो परिछेदी कृश होगयी होगी ओर अव पावके मेहोको देख मेय वियोग निस वंहुतदी गढाता होगा, उसे वियोगे मुक्त करनेके देत्‌ निनके करर संबादद्धारा सांत्वना देनेवारा से एक सर्व्वमरसिद्धं नाटक है 1 इसका विषय प्मेघदृत) की नाई केवल कर्पनामय

पः नायक में जेसी मूत चेष्टा वैसीही इस पिदाच लीला मरो "इई 1 (प्यारादै- खाण्ड भिर्टन मसिद्ध मदाकान्य का नाम दै

१९ संस्छतक्पवेपन्यक्त 1

कोई दूत उसके निकट भेनना चादि पर एेसा दूत उसे वहं कौन मिला कोई मनुष्य वा अपर सजीव प्राणी नही मिद्ध, तो ससारका संतापहरणकर उप जो समृद्धे मदन करता दै ओर निनके मनोहर नीलवर्णाय नो सरके, विङेषतः उत्कथितोके ह्दयको आनदधद होता हे, उस मेषकोदी उसने दूत मानकर उषसे बना प्रारंभ करिया यह्‌ मेव अचेतन है, मेरा काय्यं कयोकर करसंफेगा, इस वातकी त्क॑ना तक उसके मनमे नही आयी, इसका कारण यहीहै कि वह पिये म्ेमातिशयके कारण विरुकुर पाग होगया था उसके अनंतर वहां से अरात्‌ रामगिरिसे ठे ठेठ अर्कापुरी परयत मार्गमे अआनेवारे प~ न्वत ओर नदी आदिका वर्णन उसने मेषको सुनाया यहांछो इस कान्यका पहला भाग शेष हुआ, यह पव्व॑मेवः कं नामस प्रचित है उत्तर मेष” मे अकाका वर्णेनकर रिरि यक्षने अपने मीद्र तथा सख्रीका वर्णन किया है, ओर अतम उसे सदेश कहा है

घस इस कान्यकी कथां केवट इतनीही है पर परमोत्कृषट कपिको अपनी असामान्य कविताशक्ति मगट॒करनेकेख्यि, इसकी अनुकूरुता किस प्रकार अच्यन्त आवदयक है सो सष्दय पाटकोको सटनही मेँ छ- सित होसकता है निप भरकारसे खगरान गरुड उच्तर वृक्ष ओर पव॑ तको तिरस्छृतकर अपने विस्तीणे अतः बवान पंखोे बपर जआका- शमे अधिकाधिक ऊचा चटृते चछा नाता है, वैसे भिस उदम एषं उदात्त मरतिभाकी (कुमारसंभव ओर रघुवंशादि अन्थोमे विषयानुये- धके कारण वीच बीचरभे करी ्ञरुक माहूम देती है, उसीका पूणेरूपसे विकास होनेके हेतु तदनुरूप इख छोधेसी कथाका कविने मयोग किया ता जान पड़ता मेवमण्डरुसे मकृतिदेवीके जो चमत्कार दृष्टिपथे अंति है, ओर पुराण तथा रोगोमिं जो अचर ओर नदी तथा अप्र स्थान भसिद्धं है उनका वणेन इसमे नितांत सरस किया गया है वैसेदी भीराम सीता, अर्जुन, बरराम आदिकेकि पुनीत चभ्तिसि नो नो स्थान हयात

कालिदास १५

हुए है उन सबके यथावत्‌ वर्णन ओर उज्जेन तथा हिमाख्य पर रिषसे" वाथ अथच अन्यान्य प्रसंगोपर्‌ कामरूप मेघको जो नाना भांतिके सूप ग्रहण करनेका निदेश वर्णित किथा है उन सबके योगसे इस काव्यकी शोभा बहुतरी वद गथी है ।“उत्तरमेवमे' भी अरुकापुसैका वणेन बहुतही मनोहर किया गयाहे, यक्षके खीकी विरहावस्था तथा अंतिम सदेशका वणन अत्येत करणरसभरित वर्तोकी योननाभी बडे वहारकी हैः उसे योगते उक्त काव्यको जीर भी शोभा माप्त इई वृत्तोको माना अर्थ मोरक्के कारण जो मेदगति पराप हूर वैसेदी पदलाहित्य, सूप- विशदत्वादि अपर गुणोदाया सहृदय पाटकोको कविकी तायिकाका साक्षाव्‌ परिचय होनेमे कोई कषर नदी जान पडती, साथी कत्पनाकी आनंदमय सृष्टिमि मन नितांत रीन दो कछ कारूकेस्यि उनकी इस ससारकी चष बुध सय नाती रहपी है

9 नो,

काछिदास कवियेकी मािकामं नसं अगण्य माना जाता वैसेदी वृह नाटकं टेखकेोकी ब्रेणीमे मथम माना नाकर समाहत किया जाता; अधवा उसकी वर्तमान विशेष स्यातिका कारण उक्त दूसरा गुणही मानना न्वाहिये उक्षके मल्विकापिमितच्र नाटके विषयमे प॑डितोकी भित सम्मतिक। परे उद्धे होदी चुका रै, अव शेषदा नारकश्कुतरा' भौर 'विक्रमेषेशी" के विषयमे आरोचन की जाती है उक्त दोनों नारको उनमतत भी परिरे की ईस देश पूर्वहीसे नेसी कुछ पतिष्ठा मानी- नती है उसे विषयमे भान कोई नर वात कने को नदी पवये कान्यमिय पंडितके निहाप्रपर उसके पद्य ओर कव्येषुनाटकं रम्यं तत्र रम्यं शकुंतला ततापिच चतुर्थाऽकस्तनश्चोकचतुएयम्‌ ॥) यह इछोक पायी नाता है यदं पर छिखनेके योग्य विशेष बात यशी किं हमारे कविकी नो अनणमर कत्तं मथम देशांदरव्यापिनी हो अनन्तर समस्त भूमण्डरु पर विस्तृत इई उसका कारण यही शङुन्तखा' नाटक हे। वेह इस मकारे कि अनुमान सौ सवास वके पूर्वं॑वद्गा हतिमें सुर विष्ठियम्‌ नोन्ध नामके एक प्रम विद्धान्‌ साहब न्यायापिपति ये

१६ संस्कुतकाविषचक

उर्द्‌ एकवार एकं पंडित दारा ज्ञात हअ करि सस्छृत भाषामें नाय्क ग्रन्थ

पाय जाते हँ यह वात उन ज्ञात होतेह उनने बड़े परिप्रमसे संस्कृत भाषाको अपीते किया ओर “शकुन्तछा' नाटकको अङ्गरेनी भतुबा- दितकर उसे य॒रोपमें मरकाश्ित किया उसे देख युरोपफं बहुतेरे पण्डि- तेका मनं उसपर इतना मोहित होगया # उन रोगन काठिदापरमे। तरक्षण महाकवियोमे परिणत करिया न्नी देरके कवि चरडामणि गेरी सिद्ध तत्त्ववेत्ता एवं प्रवासी हबोच्ड ओर पण्डित श्रे दृठेनेछ आदि हमार कविकी अनुपम कविताका केवर अनुवाद रूपसे, रसपानकर आन- न्दातिशयमें मन्न हो िरःप्रकंप करिया है सद्दयंताका पूरणं रुपसे पारेषय दे उक्तं रसिकश्षिरोमणि विदानेने शकन्तखाक नो समाछोचना कीरं उन्हे हम सबको भौर विशेषकर हिन्द्‌ कोगोको उपमित कि अपने दय. पटपर अंकित करे वह यहां भी उद्धृत कर दी नाती पर वैसा करना

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योग्य नह जानपडता क्योकि वह सरयेमसिद्ध होनेके कारण उनका उद्धेख यहां केव पुनरुक्तिही होगा ‰% + „.

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तौमौ यह हमारे समस्त पाठकोके स्यान विरत नं होगी भत.नीये उद्धृत की नाती दैः-

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कालिदासं १७

शाकषुन्तर' नाटक महाभारतातर्भत आदिपर्वकी एक कथक आधारे रचा गया वहांकी मूरकी कथा यो है कर नव दुष्यत राना आखेट सेस्नेको गया था तव परिश्रान्त हकर वह्‌ कण्व ऋषिके भाश्रमपर गया। वहां कण्व छषिकी फन्या शकुन्तरके अतिरिक्त ओर कोई था! उस्ने राजाकरी स्वागत पुर अतिथिसत्कारदाया उसे सत्कृतं सिया रना उसके मनोहर रूपको देख विवश हौ गया, रानाके भररनकरन पर शकुन्त- टन अपना जीवनवृत्तान्त उसे निवेदन किया सो सन उसे क्ष्रीकी कन्या जान दुष्यत रानाने गधवै विवाहकी विधिसे उसका पाणिग्रहण किया भनतर दुष्यत जपने नगरकफो ऊट आया, पर मुनिश्च'पके भयके कारण उसने गगुतछाको विद्‌। कररुनिके स्यि भिसीके। नहीं मेना इधर कण्व ऋषिने कन्याकी कृतिपर कुपित हौ उट्ट उसके योग्य वरके साथ प्रिणीत होजाने पर अपना आनद्‌ भकाक्षित किया, ओर अपने शि््पो- को साय दे उसे दुष्यत रानाके नगरफो पहुंचा दिया शकुतलापर राजाका मरम यक्किचिद भी षदा था पर तोभी ननाप्वाङके करण वइ उसे अंगीकृत करनेमे हिचकता था एतावता तू कौन { यह्‌ छुड्कां किसका है ? जादि मिथ्या कारण उपस्थित कर राना उसका अपमान्‌ कथने र्गा गाकुन्तखाने भी पित हो रान को बहुत उत्तर दिये ओर उसको- पविशमे वह वहासि निक ननिको ही थी कि, इतने मे यह आकारावाणो हुई क, राना दुष्यत, यह्‌ तेशदी खी है उक्त आकाशवाणीको सत्यमान राजनि उसे अपनी पटरानी बनाया ओर उसके पुत्र भरतो कुछ कारके अनतर युवरानपदामिषिक्त किया

उक्त फथाफो पद्‌ वृहुतेरे अनभिज्ञ पाटक स्यात यश॒विचां कि; उत्कृष्ट नाटफ रचनाको सामग्री इसमे क्या {पर वस्तवे कारिशस- 10916 [पाष 11९1, 1118 6116888 शणव्यश्मः 0 118 71087 7€06त ५त्‌ {थातज्‌ ला00ला)§, 115 श्रिपावभ्फि

` एतना #्€ फपत्रणछुड धाति ८०पता फएणपादु5 0 1४8 (छा ठत्रणद

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१८ संरकुतकषतविपभचकः

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मे सकठ बुद्धिगु्ोका एकतर विङ्ञास हेनिके स्यि इसे अधिकतर भु- कूर विषयका हस्तगत होना दुस्साध्य है महाभारतरूप अगाध बाक- रसे हमारे चतुर शिखीने इस रत्रको निकार अपनी जनोखी का्यैकुर- लता ओर कार्यसंपादनपटुतादारा उपे एेसे दिव्य कदनमे खचित किया है कि, उपरते देष सव न्यौावर करडले नार्य अत्र यह वात कहां >, ओर किस पकारमे सेपादित की गयी है सो सविस्तर जगे ङ्ख जाती मूढकी कथामें यह वात पायी नाती रै कि, राना- को शकता आश्रमम अकी मिली ओर उसीनि अपना नन्मवृत्तान्तं राजाको कह सुनाया जर दोर्नोका गध्वविवाह पव्यक्षही हुभा ये दोन बातें काव्यम एेसी कु भिन्न भीर व्रिरग नहीं नान पडर्षी; पर नहां मनके नैसमिक व्यापार विकशेषरूपसे मदरित करना होते है उस नाटके अत्यंत अयोग्य एवं अनुचित बोध होती है; तिसपरभी नायि- काके कुरुकानिका इसके समान भचंड विरोधी ओर कुछ नरीं है इस दोषको द्र करनेके अभिपायसते काट्िदासने शकन्तछाकी दो ससी कसित की, बीर उनमेसे एककेदारा बह वृत्तान्त कथित कराया ओर अगि गान्ध विवाहुकी बात भीं वैसीटी उनके ढारा षटनानुरोधसे सषसित कराई हे उसी भकारसे आदिमे शरकुतला ओर रानाकी भेट वक्षवर्नमे कर,वनवासी कुमारिकजनोचित एवे कविजननमिय वृक्षसचनादि कास्योमिं लगी हुई उसेपदशित करिया है। दुष्यत राना कपय्दोषसे दूषित होने पवि इस अभिभायसे दुर्वासा ऋषिका शाप, ओर शकुतछको दी हुई अंगृूटीका शक्रवीर्थमें पतित होनाये दो बाति कल्पित की हँ पांचवें अंकके अंतरमही उक्तं कथा हेष हो गयी है।पर रानाके शकुतदाको परिचान- ने ओर उसके दुःखीहो निकर ननि पर उसकी मा मेनकाका उसे सहसा उठा छे जाना नूतन जोड़कर नाटकके अंतिम दो अंकोकी कवने षिल्कुर नई रचना फी है शठे अक्के आदिमे एक मच्ुवाके पास वह अगृूटी पायी गयी ओर राजक उसके विषयमे शापहतस्मृति पुनः हौ आयी जीर भेनकाकी ससी साठुमती अप्सरा जव गुप्भावसे उसकं निकट खटी तवं राना शकुन्तटाफे मूत वृत्ता तक़ा स्मरण कर उसके विरह इससे

कालिदास १९

कातर हो उसकी पुमः परा्िकी निराशषाके कारण पागरसा हौ गया हे अगि इन्दका सारथी माति वं जआया है ओर दैत्यवधा्थं उसे स्वशको छे गया है। सार्वे जंकमे मातलि दुष्य॑तको भ्रेरोक्को रोय रखारदा था तव रानाकेो इच्छा हुई कि, हेमकूटपर जा कर मौरीचके दर्शन करना चाहिये, अतः उसने रथ व्ही उतार, वहां उसे शकता ओर पुत्र भरत कौ अचित्य भेटका छाम हज, ओर अंतमे मारीच अथच अदितिका साक्षात्कारकर उनसे आशीर्वाद पराप्त कर द्यत राना वहासि अपने नगरको टोट आया है मारीच जर आदिति नाटकके अंतमे क्यों रयि गये रै इसका कारण स्पष्ठही है संस्कृतनाटकप्रणयनपथानुसार नायक दुष्येत ओर नायिका शक्ुतखा पिचर्छे सव सकटको भोगकर रुन्धमनोरथ हए इसी भकार सदा सुखसे रहे एेसा आरीवांद उनसे दिखाया है; भए अव तुम्हे किस वरकी इच्छा है एसा उनके पृछनेपर राना द्ष्यैतने चर्चरीफे (भरतवाक्यके ) रूपतस समस्त भ्रात्रगणकेख्यि ज।शीवंचन किया है; ओर वह काविके इष्टदेव शिवकी प्राथनास्वरूपमे है

हमारे कविकुरुकमरुदिवाकरने मानो यह परिटेसेदी जानकर कि, मेरी यह रचना अगे चिरकारलों रसिकननपरम्पराद्धारा समारत होगी ओर अन्य सव काव्योकी। अपेक्षा इसीदारा मेया कवित्वयञ्च दिशाओंमें केठेगा, इस नाटकमें अपने बुद्धिविभवकी पराकाष्ठा परद्रित की है नाटके जिस अंगपर दृष्टिपात कीनियेगा उसे स्वयं सर्वङ्गपू्ण पाइयेगा, ओर इसके सिवाय उसके रेष अंगो उसका परमोल्टृष्ट मेरु मिरूते चरा नाता है पथम कथासू्रकोरी देखिये वह्‌ इतनी चतु- रासे सचागया है कि, उसम किचित्‌ उनता वा अधिकता कही नदी दीखपडती मृरुकी कथामें कैसर हेरफेर भिये दे सो पीठे उदटिखत होटी चुका है, पर उनकी अपेक्षा ओर भी कईं विशेष वति कविने रस- विशेषके परिपुष्ट करनेके देतु मरयुक्त कौ हँ उनका उ्टेख संक्षेपमे यहां किया नाता है म्रथम कमे ्मरका कमरुकी भ्रातिसे शकुतरके मुखपर आना, चौथेमं मृगश्षावकका उसके पभकिं आाडभाना, पांचये

२० संस्कृत कावेपचकः

के आदिमे रानाको उत्कं3ित फरनेवारी अन्येोक्तिगरमिंत मैौतमाशिका छठमं शकुतछाकी म्रतिकृतिको देख क्षणभर उक्षके साक्षात्कारका छाम ओर र्मीपापत्र धनमित्रके मत्य समाचारो सन उसके संतानदहीन हानेकं कारण खिन्न हों रानाके भूष्छित हौना,उक्त घटनाओमसे भव्येक दारा समस्त आस्यायिऽा किस उत्तमताके साथ शरुलछाबद्ध होती गयी है ओर नहां तहांका रष कितना उक्ृष्ट सधा है, उसका विशेष वर्णन करकी कोर आवश्यकता नही है वैसेही कविने सगर्मोका भी वहत उत्तम मयोग किया हे पुराकारमें छोगोका उनपर॒विद्वास होनेके कारण कवियोको आर विशेषतः न।टकमणेतृगणोको आख्यायिका के नोड्नेमें वे परम उपयोगी इए रै यह दो भकारसे उपयोगी होते है एक तो दशक वा श्रोता्ओको अगिकी कथाकी पाहिछे सूचना देनेमे, जसे वत्तेमान नाटकमें मथम जौर अन्तिम अक्के आदिमे रानके बाहुस्फु रणदारा सूरत किया गया है ओर दूरे किस भूत वा भविष्यत्‌ भयो त्ादक घटनाकी सुचनाद्वासय मनक दुःखी कणेमे यह दुसरी बात इस नाटकके चौथे अंकमे पायी जाती है शकुंतला दुध्यंतके नगरे स्यि नव प्रस्थित इई, मागमे उसने एक चक्रवाकीको देखा, उक्षका पति निकटस्थ कमछरपत्रकी ओटहीमे था प्र उसे वह दूर जान अकश करर्तीथी यह घटना है तो एक क्षुद पर उसके योगसे शकुंतरा ओर उसकी सखी मनम भयभीत इई, ओर वही अवस्था भरे्षक तथा पाट- कोकी भी होती है। इसके नोडनेकी ररी अन्तिम तीन अंकोमे तो बहुतही चमल्काततिननक `हे; किथित्‌ ध्यानपूवयैक नाटक पटृनेसे वह छक्षित हो सकती है वणेनोका भरसंग नाटकं प्रायः अपक नहा रहा करता है, पर वमान नाकम जहां कदी वहं आही गया वहां हमरे कविनें उसे सर््वाग पर्णकरनेमे कोई बात उठा नदी रक्खछा ६। यह बात कहते हम तानिक भी नदीं हिवकते कि, पथम अंकमे गसा वणन मगगण ओर रथवेगका हमरे कविकुरगुरने किया है वैसा संसारभरके कवियेकि बरथोमे स्यातही पाया नाय पकी बारुढीदाकनो देख पिताक

कालिदास २१

ददथमे कैसी आनद वृत्तियां समुन्न होती रँ सो सातवे अंकके निस दूरोकमे वर्णित की उन्दं पठते दी शेक्षी नामक पेच पंडित आनं- दातिदायमे महो विदेह होगया था सो वात स्वेमसिद्धरी हे वैसेरी छ्टे अकम क्षकरुतखाकी अधी प्रतिकृातिको किस प्रकारसे पूणे करना चाहिये ओर उसके आसपासका ्ट्द्य क्सि भरकारका होना चाहिये एतद्विषयक नो इरोक दँ उनका वर्णन एसा चिन्तको मुग्धकरनेवाला कि, उससे ओर कछ नही तो यह बात मानलेनेमे तो कोई आपत्तिी नहीं हे कि, हमारे कविचदामांणि चित्रकटाके अच्छे ज्ञाता थे स्तु; इस नायकी टेखम्रणाङको हमारे कविने यथासेभव परमोत्कृष्ट करनेमे कोई वात शेष नरी सक्खी हसो स्पष्टही है पयकी तो बाती क्या हे, प्र गदयकाभी मत्येक शब्दं नितना कणंमधुर ओर उपयुक्त पपत रौ सका है, यथा स्थानपर प्रयुक्त किया गया है ।यो तो यह वात सर्वभसिद्धही रे कि, काठिदासकी कविता भसाद्गुणसेपन्न है, प्र उसकी बहार इस थमे साविरेषसी रक्षित होती है। साराशम्साक्‌तमधुर कोमर्विरासिनेकंटकूनितमाया' यह जे गोवद्धनाचा््यैने काषिदासकी उक्तिकों विरोषण दिया है उसका पूरणं भत्यय इस नाटक्मे मरुता इसमे रसोका निर्वाह निस उत्तमताके थं किया गया है उसका विस्तृत वर्णेन करनेकी स्वय कविनेही कोई आवदयफता नरी क्खी है 1 जिर अणुमात्रभी सट्दयता समाप्त हे उन्हे वे साक्षाद्‌ अनुभूत हो वह वह घटना मानो भत्यक्ष उनके समीप उपस्थित हो नती है ओर चित्तवृत्ति मानो म॑त्रसे अभिमन्नित हो इतनी तहीन होनाती है कि, बाह्यमणिका ज्ञान विस्मृत हो नाटकके पाचविरेषसे पाटक वा परेक्षककेा तदात्मता भप्त रोजाती `हे इसके उदाहरण स्वरूपम यह कहा जासकता है कि, रेसा कोन होगा फि, जिसने यह्‌ नाटक पदृतीवार चये कके पृष्ठोपर टिप्पणी की होगी ? तापय, इस नाटकका कोई भी अक छे रीनिये जहां नहां देलियेगा वहां इस कविवरकी पराकाष्ठाही दृष्िगित होगी जैसे 'मृच्छक धिकमे' दरिद्र चारुद्त्तका मिन विदूषक वसतसर्ाकी स्वेराका चीक देख

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२२ संस्तक विर्षचक्‌

चकित ओर विस्मित होगया, ओरनो नो नई वस्तु उसे वहां दीख पडती वृह्‌ उसे अत्यंत मनोहर नान पडती टक वैसीदही अवस्था यहां सहृदय पाठ- केकी होनाती है निसर्जकके पृष्ठ रोयदये नई नई बहार दिपिथमें आती है, ओर म्येककी भिन्न > रचना अधिक उत्तम कहनी चाहिये वा वा सवके मेलकं परमोक्कृष्ट कहना चाहिये इसका निश्य सहसा नदीं हो सकता !

“क्किमोर्वशी नाटक "शकुतला' नाटककी भपेक्षा योग्यतामें किचित्‌ ऊनं माना जाता है। इसे भी अगेरेनीमे अनुवादितकर विरुसतन साह- वने मकारित किया है। यह साहब कटकन्तेमं कद वषै सस्त साषाके भधान जध्यापक थे, सस्छृतकी आपको वहत॒ अभिरवि भी अतः अ{पने उसकी बहुत कुछ उन्नति की इस नाटककीं भूमिकामें उक्त साहवने शिखा है कि, इसकी कथा अग्निपुराणसे री गयी है ओर वह सव अन्योक्तिपूरेत है इस नाटक्के नायक ओर नायिका यथाक्रम सूर्य जोर उषा अर्थात्‌ प्रभातके मतिनिधि है सूर्यं ओर उषा आदिमे एकनित होनेके पश्चात्‌ शीघरही वियुक्त होते हं, विषदी सू्यके दिनभर उत्तुंग पव॑त ओर विरार नदि्योपर भ्रमण करनेके अनंतर पुनः उनकी भेर होती है यह घटना नाय्कमें केस भरकारसे छायी गयी रै सो समञ्चनेके अथं उसकी आख्यायिका ज्ञात होनी चाहिये, अतः वह्‌ नीचे छिखी नाती है।

इस नाटकका नायक राना पुरूरवा ओर नायिका अष्टरा उर्वशी हँ उर्वशी जब धनपति कुवेरके मंदिरसे लौटकर भा रदी थी तब केरी नामके दैत्यने उसे अपहत करिया तथ उसकी सहेश्यां बड नोरमे विलाप करने लभं उनके आकरोञ्चको सुन पुरूरवा रथारूढ हौ उनकी बतायी इई दिशाको लपका, ओर, राक्षपोको जीतकर उर्वशी भौर उसुकरी सखी चित्रटेखाको छेकर रोट आया अनेतर उन देनैक वह दूसरी अप्सराओके आधीन कर रहा था क, उतनेमें वहां चित्ररथ गधर्वने आकर रानासे कहा फि, आपके परक्रमपर अमरनाथ इन्द्रे

कालिदास ९३

सुतोष॒ भकाशित कर उर्वशीको साथ ठे आपके बोडायाहै संमति कोर आद्धयक काम उपस्थित है एेसा कहकर राना वहां नही गया; अन- न्तर उर््षो अर अपर अप्सरा भी वहसि निकर गयी अगि राना मदनविह्वल हो विद्षकके साथ उप्वनभे वेढे यह्‌ चिता कर रहा था कि,उन्वरी स्ने किस भकास्मे माप होगी कि,उतनेमे वह अपनी सखी चिजरेखकि साथ गप्तमाक्से वहां आयी 1 उसने एक भूनेपत्र प्र मद्न- ङेख छ्खि रानाकी ओर फेक भकाडरूपसे वह्‌ रानाका जयनयकार्‌ कतीह थो कि, उतनेमे देवदूतने आकर कहा ““चिररेखा, उन्वैशीको रेफ़र शीघ्र चरु, इन्दकी समाम नाटक खैरना है " उक्त वाणीको सन अत्यतं खिन्न हो उन्पवी वहसि निकर गथ } इतनेमे वहं भोनप्र वायुसे उडकर रानीके हाथ ठ्गा,राना उसे खो गया समह बड़ चितकके साथ दू रहा था कि, रानीने वह खाकर उसको दिया रानीसे उसे षा राना वहत रुन्नित हा ओर रम सकोप वहसे ची गथ अगिं रानीको्ी तदयं अनुताप हे उसने चंदसाक्षिक प्रियमसादन तरत किया, ओर विनीतभावपूरव्वैक रानासे निवेदन किया कि, जव पुन. मञ्षसे एेसा उपरोध होगा पर इतनेपर भी रानाको उवेशीके समागमका सुख चिरका छो भाप् नही इभा एक वार उब्धैरी गंधमादन वनसे योही ना री भा कि, मूरुकर खमारबनमें जा निकरी, ओर वहां पुंचतेदी ष्र्‌ रुतः हे¡ गयी # तवकी रानाकी अवस्थाका क्या पूना हे 1 वहं पिरक पाग रोगया ओर मामे उसे नो मरुता उसीसे अपनी भियाकी वाती पूता इस मकारे ्रिप्ते किस्त वह्‌ उक्त रुतकि निकट ना प्हचा ओर उसे रपर्तेही वह पुनः उनन्वशीकी उन्व॑शी होगयी।उस भटका छाम उसे सेगमनीय माणिक भाप्तिका कारण हु इस मणिको रानाने बड़ यत्र से ख्खा था, प्र एक दिन एकं गीध उसे मांस जान उटा ठे गया।

नि इस वनक्रो कुमारका ( कारतिकेयका ) श्राप था कि मेरे तपकः भ्रष्टकरनेके देतु ज। ह,

दलो यहा मवी वह लधारूम हो जायगी नागे उच्छप्के योगसे उर्वकीके उस्रक ववर्म आप्त इभ्य |

२४ संद्धतकविधचैः

उसके पीछे राजा भी दौड़ा परर मणिं उसके हाथ ठ्गा अनेतर्‌ वहं वाणसे छिन्नभिन्नहो सहसा धरती पर भिरपड़ा; वह वाण किंमका हागा ट्सका अनुसंधान करने पर ज्ञात हभा फि, वह रानाकरे पू दीर्वायुका था इस भ्रकारसे रानाकी अपन पत्रमे भट अंतमे नारद्ने आक- रानाको सूचित किया कि, उन्कशीका श्राप यथपि अवशेष होगया तथापि वह भागे तुम्हरे ही पास रहे एेसा इम्ने ठम्दं वर दिया ३ै। इस भ्रकारसे राजाके समस्त मनोरथ परिपूर्णं इए

अव यद्‌ वात सच हे कि, इस नाटकके समस्त गुणोकी आलोचना करनेसे यह नाटक उत्तम भ्रथोमें परिणत करने योग्य पाया नाता ₹ै, पर्‌ तौ भी हम सम्षते हं कि, यदि शकुंतला के साथ इसकी तुख्ना की नाय तो यह फीका जान पड़ेगा आसख्यापिकाचातु्यादि पि करै भिन अनेक गुणोके कारण दसरा यंय अद्वितीय मानाजाता दे, वे सव गुण पदिरेमे पूणेरूपसे दृग्गोचर नरी हेते, हां कदी कदी उनकी छलक अवदय दख पडती है इसके सिवाय कारिदास जैसे विशार- बुद्धिस्पचकविकी कुशाय्बुष्धिके अनुसार इन उभय नाटकोमे नो भिन्नता हानी चाहिय थी, ओर मत्येकमे मनोरंजन करनेवाटे चमत्छृतिजनक जो भित्र स्थल हने चाहिये थे, वह वत्तेमान नारकमं बहधा नहिं पये जाते आदिमे रथारूढ रानाका भवे, ओर अंतमे रानाकी जर उस्र पृत्रकी भेट मभ्रति ' शर्कतला मे छिखी हई बाते पुनः इस नाटकरमे टिसी ननि, ओर मेघदूतः रघुेश्च ' आदिमे अनेक बार उ्खित हो भि नकी नूतन सोभा कभीकीं नष्टहो गयी है देसे कई विवार इस नाक पुनः उष्टिखित हैनके कारण इस नाधककी वहत कुछ रसहानि हर; ओर यके कारण है कि, पाठकोका चित्त नेसा चाहिये वेसा इससे नदी भ- र्ता पंच अंकोमे मयम ओर चहुं ये दहि उकृषट है चोथेमे समिम के कारण पाग हर रानाका पदु पक्षी अदिकोसे बात चीत करन। ओर दसस भी जयिक माङृत भाषके कर्णमधुर गोत, नितान्त मनेहर है पर महसेकी ठय इसमें भी अनृ है। हमारे किक मन नगाधिप दिमारयक

कालिदास २५

भव्य एव रमरभीकः शिखरोका निर्भर मेमपूर्वैक केसा रोभी बना रदा करताथासो इससे सपष्ट॒रुक्षित होता है शकुंतला" के अंतिम भंकमे जिप्त हेमकटके शिखरपर दीष विरहके अनेतर दुष्यन्त ओर शकृतंछाकी भट कराकर नाटकका उपसेहार किया गयाहै उसीपिर इस 'विकमेोषैडी" नाटकके भथम स्थरकी कल्पना कर, भयमृच्छित उर्वशी को रानाने उसकी सहेख्योंके ाधीन क्या है ओर दोनोकी चार अखि हों वे परस्परफे भेमासक्त हए हँ कविनें इस प्रथम गर्भाककी करपना बहुत चतुराईसे कर उसकी रचनाभी वैसेही परमोल्छृष्ट की इसका रस उदात्तमिभितभरेगार उर्वश्ीकी मूर्च्छीके धीरे धरि टूटने ओर उसके नेत्र खोरनेपर राजाको जो आनंदं ओर विस्मय हआ है तदादिवा्तौका वणेन इसर्मे इतना यथार्थं है कि वे षटनाएे पाट- केकि चित्तपर खचितसी हौ अगे कभी मियने नही पातीं] पाले अंकको पट्‌ पाठकोका उत्साह बटता है कि भागेभी यह मेय सब एेसा ही होगा, पर उक्त आश्ञा सर्वथा व्यथं एवै विफरु हती हे; क्योकि जो वाते सामान्य नाटकेर्मिभी पायी जाती है ओर जिनवार्तीका पाठकोके मनमे यरी विभाव होता है, वेदी जगे मिरुती

यहांणं कालिदासके वडे बडे भर्थोका वणन हा प्र॒ इनकी पेक्षा श्रुतो) श्भुगारतिककः भौर "भशरंगाररसाष्टक ' आदि रटे गेय ओरभी यह भेथभी उक्त यथोकेसेदी भसिद्ध है अतः यहां उनकी उपेक्षा करना न्यायसंगत नदी ' धुतबोध "में निस वृत्तका रक्षण उसी वृत्तम कहा गया है, ओर इसका भमिमाय भृथके नामदाराही सूचित कियागया है कि उसकी सदायतासे वृत्त विरेषका लक्षण केवर श्रवण करतेही ज्ञात हो नाय पूर्ववोष्िसित महानयर्थोदारा निसने पदिरेदी अखंड कीरिं बटोर री) वा उसका संपादित करना कोई दुःसाध्य काय्यं नहीहैेसा जिसे सुदद्‌ विश्वास था, उसीने विद्याथियोको छदौका बोध करादेनेके अभिमायसे इस छोटे से कास्यैको अंगीकृत किया होगा इसविषयमे सामान्यदुद्धिके मन्‌-

२६ संस्कृतकविप॑चक

प्य।को बड़ी विलक्षणता नान पड़ती होगी परंतु बड़ेके चरित्र भौर उनकी महिमाका अत्पदुद्धिके रोगोको थाह मिरुना केवरु दुःसाध्य ही नहीं हे, किन्तु कईं वार देसाभी देखा गया है कि, सत्वे वदप्पनका छोगोको यथातथ्य बोध होनेके कारण उनके परम इटाध्यका््योको भी छोग अन्यथाही समक्चेखेते हँ इस बातका बदविया उदाहरण काशदासकी उक्त कृतिरी है इस उद्टेखके साथ ओर एक रेसेही दूसरी वातका उद्टेख यहांपर कयि विना आगेको टेखनी नहीं चरती बह किसी एेसे वैसे सामान्य व्यक्तिका नहीं है तों हमारे कविकीनाई निसकी समुञ्ज्वर्‌ कीर्तिं स्वदेश्षको अछ्कृत कर सव॒ जगम फेरी है उस भुवनविख्यात मिल्टन कविके विषयमे है इनने अपने कविकी नाइ भगवती सरस्वतीभदत्त माथेपरके मुकुटको क्षणभरकेख्यि उतार स्वभाषाके एक व्याकरणग्रन्थको ङ्ख सवैसाधारणके हितका परमोदार प्स्विय दिया है ये दोनों उदाहरण इस बातको रपष्टरूपसे भमाणित करते है कि अहंपनका अभाव सच्चे बडप्पनका एक प्रधान चिह्र है जस्तु; इस गन्थकोभी हमारे कविने ऋतुसंहार्की। नाई अपनी भियाको सबोधन देकर छिखा है इसमें सिवाय मधुरता ओर छारित्यादिके कि जो केवट पद्रचनाकेही गुण कहे नाते हँ कान्यके अपरगृर्णोका समा- विष्ट करना असंभवदी है। अतः इसग्रथमें सदाकी नाई वही पपूणे रूपसे पयि नति है '्रंगारतिरुक' ओर शगाररसाष्टक मे शगार भधान स्फुट शोक हैँ यह सव काषटदासकृत होगेसे नदी नान पड़ते कयोकि बहतेरे शोक तो रेषही है कि ननम सिवाय पूहद्पन जीर रेपटताके अपर कोईभी गुण नही पाया नाता ईस कथनका यह अभि- भराय नहीं है कि उक्त य्न्थमे काट्दासकी रचना बिकुल नदी दै हा» इतना अखूवत्त है कि रेसे ररोक बहुत कम हैँ क्रि निनसे काल्दिसकी कविताका रस टपकता है इसके सिवाय दुसरा कारण यहभी कहा ना सकता निस काठरूप विस्ताणं समुद्रपर वंडे वड़े संपूण काव्या का भी निर्वाह यदि हृआदी तो अत्यन्त कषिनिताति हौ पाता हैः उसका

कालिदौस २७

उद्टोवित कर यह'तिरक' विना क्षिपकसंपन्र हए, वा यह “अष्टक भविक- छरूपसे पूरा इस तीर प््य॑न्त सुखपृल्वंक पहुंचा होगा, यह भी ष- डी सावधानीपूर्वक कहना चाहिये श्ससे तो यदी निद्धीरित होता है कि भगाररसके जो सेकडों इछोक पण्डितेकि हसे सुने नाते दँ उन्मेस बहुत कुछ इनमें सन्निविष्ट कर दियेसे नान पडते

स्वेखाधारणमें यह च्चीभी श्रवणगत होती है कि दक्षिणी छोगोरके यह विवाहके समय नौ मेगराष्टक पटे नति है वेभी काटिदासकृत है. इसमे तनिकभी संदेह नरीं है कि इस क्षुदबातका यापर उच्चि्ित होना हमारे बहुतेरे पाछकेको स्यात हंसीफा कारण नान पडेगा; भीर उनरोगोका एेसा समञ्चनाभी कोई आश्चस्यैकी बात नही है, क्योकि आन कर हममे गुणकी चाह ओर उसका सन्मान करनेकी मनो- कामना काणं पाई जाती रै सो विज्ञ एवं विवेकी पाठकोपर विदित ही है ससारमें बहुधा यहभी देखा नाता कि कभी कभी वास्त॒विरे- विख्यात मनुष्यके सबन्धके योगसे महृत््वको पराप्त होजाती है; ओरं इस घातका टकम विचार नरीं किया नाता कि वह॒ वस्तुविश्ष उस विख्यात पुरुषकी कीर्सिका भधारस्तेभ है वा नरी, ओर्‌ करां, कभी फभी तो एेसे पुरुष ओर वस्तु विरेषका सेबन्धरी संदिग्ध पाया जाता है! सटाटफमे रक्खी इई शेक्सपियरकी कुरषीको देखनेकेश्यि चारो ओरसे राखो रोग क्यो नाया कसते है! कया वह विधिनिम्भित है! सुना जाता है कि उस कविकुरुदीपने एक वृक्ष अपने हाथसे रुगाया था जिसे एक मनुष्यके तोड़ डार्नेपर उस गावके सबरोगोने उसपर आक्रमण कर उसे दंडित किया था किये इसका कारण क्या कहा ना सकता ! उसने उस गांवके रो्गोका ठेसा कौनसा प्रचण्ड अपराध किया धा! इसके उत्तरमें यही कहा जासकता शेक्सपियरका पत्यक्ष स्मारक हनेके कारण निसे मानों पवित्रता ्ाप्र होगई थी; ओर जो उनके आनन्द्‌

२८ संस्क्रतकविंपचकः

तथा अभिमानका आधार स्वरूप होगया था, उस वृक्षक नष्टकर्‌ उसने उनरेर्गेकी एेसी हानि की कि, जिसका पुनः प्रप्र होना असभष था उक्त दोनों घटनाएं इस बातको स्पषटरूपसे ममाणित करती हँ कि महान्‌ महान्‌ पृरुषोके सेबन्धकी षुदबातोंको समाहत करना नीचता वा मूसंता- का परद्हौक नही हो सकता किन्तु विवारांरा करनेपर यही निद्धरित होग। कि उक्तं सन्मानकी स्थित्िके समान राष्ट्रका उत्कपैमव्तेक अप्र कोई नहीं हे देसी अवस्थामें, ससारमें अत्यन्त दथ एवै अभीष्ट जो समागम सो तुम्हँ निरन्तर सुखावह हो एषा हमरेगेको निसने आश्षीवद दिया वा आगे देगा, वह गणमात्रा जोड़ेनेवाछा कोई सामान्य व्यक्ति था, तौ रधुवेशके गत गा उसकी कीर्तिफो जिसने नई अमरता भदान की, जिसकी विशा कठपनाशक्तिने मेषारूढ्‌ हो संपूर्णं भारतमे रमण किया) ओर तदन्तर्मत, पर्वत, भेदी भदिके दद्य, जो सामान्य मनुप्योके हष्िपथमे नक्ष अति, केढा दिये, ओर हनारों व्षके पूर्वको माचीन ननस्थिति की, कि जो केवर कविकटपनाकोदी गम्य है, निसने अपने बुद्धिके मात्रिक साम प्यते एेसी परमोन्टृष्ट मतिक्राति बना दी कि मिसका रग अनन्तक धातनेपरभी किंचिदून होगा-उसी देशमूषण कवीन्द्र एवं शरंगारदी- ्षगुूका वह अनूढा वाण्विकास कया यह बात कोर भतप स्वल्प जीर ध्यानम रखने योग्य है ! यहां काछदासके छे बडे सव अरन्थोका वणेन हो चका ।.* अब भगे इस वातकी रोचना की नाती कि कालिदास कौन > गुणोके * उर्‌ जितने अन्थौका उद्ठेख करिया गया है उतने सव कालिदासक्ृत मनि जति [ पर इनके सिवाय ओर मी पेते वहत ग्रन्थ है नो कलिदासके नामपर प्रतिष्ठा पति मराठीके पकाविचरिम नामक अन्ये छिखा है कि (दनीत्तरमाला' प्मसचनलनवणंनः “घटक दरकाव्य, श्ास्वर्णव नाटक" भकरषरमंजरी श्यामलादडक' प्मोजमनन्ध' ध्मोजचंप्‌” भौर (रामायणश्चप्‌, ये सन कालिरास्ृत हं इनके भतिरिकत कि कहि यह मी पावा जः

कालिदास २९

फारण चायो ओर इस भकार समाहत कि नाते हँ पायः देखा जाता ₹ै कि भत्येकजातिमे उसका प्रियतर एकं कवि रहतादही है भाचीन श्रीक रेको अपने विख्यात कवि होमरका इतना अभिमान था करि उसे हमारा हमारा कह सात नगरके रोग आपसे कडकरते ये; भोर उनरेर्गेमिं परस्परम संतत रुडाई चीरी नाती थी कि शघचुभेनि जा संपुणे देको पदद्‌- ङिति करिया, उसक्षमय उनके देशाभिमानको जागृत कर एफतके साथ देशसे शपुभेकि हटनेमे उसर्क। षीर्योत्साहभेरफ फविताही उपयोगी हुई, भीर आगे वियाकटदिकेकी जो अनूढी उन्नति हई कि भिसके सामने वरत्त॑मानकी उत्ति करीं कुछ नरौ है, उसका कारणमी बहुधा उसकी कविताही कदी नाती यह सव घात इतिहासप्रियरोगोँपर विदितदी यह घटना इस बातको निश्वयरूपते ममाणित करती हे महा- कवि देदविभवके आधारस्तंभ हेते ईह; जो ज्ञानदुबरुोग निन- की अरसिकताके कारण कविता केवर कल्पनामय तथा सत्यतारहि

मान उसे वकृत करते हँ, उन्हं उसके यथार्थरूपका तिकभरभी ज्ञान नही हुभा कहना चाहिये शक्सपियरकाषको अंगरेनरोगभी किंस कार मानते है सो अभी पीछे उद्धिखित होरी चुका है हमारे देश्ये

हे कि 'महपम्ा्टक' "गगाष्टक' राक्षप्त कान्य गौर पुष्पवाणविलासः भी कालिदास छि- खित बाण कविके "दपं चरित मे" कालिदासकृत पएक 'सेतुकाव्यः नामक भन्थका ठद्वेख पाया जाता दे, ओर यह भी कहा जाता है किं सर्वं भरसिद्ध ज्योतिष मथ प्योति- विदारणः मी कालिदापदी का रचा इञा है भस्तु, तो इतने ओर मन्थ कालिष्क्तके मामं मसिद्ध॒होनेके कारण व्तंमान लेखमें मन्थ पूणताके देतु उनके सम्बन्धसे कुछ पोमी उद्धिखित होना समुचित जान पडता है उक्त भ्रन्धोमें से “सेतुकान्य' की कलत ताके अतिरिक्त अन्यकेलिये विवास पात्र परमाण नक्ष मिलता भौर "मोनप्रवन्ध" ओौर पथटकपेर' तो दुरदीसे पुकारकर कहते दै कि दम काठिद्षकृत नर इसके सिवाय म्रन्थतो प्राटी नरीह मरी कारण हे कि उनके षिषयमें | भया भोर वह्‌ विषय नतन होनेके कारण इसका अधिक-षि कोभीभमीष्टम हुभा हेता

३० संस्कृतकबिपंचक्‌

वैसे ननपूनादं कविकुङगुर काल्दासही है; उनके सिवाय दूसरा ओर नहीं है निन्द सस्कृतकी हवातक नहीं छमी है, ओर जिन्हेनि उनका एक दृरोक तक कभी नरी सुनावे छोगभी उनके विषयफी च्च बडे मेमेसे सुनते जर करते हं।इस मद्मरकी कथाएं कैसी जमयोनक होती हैमादिके विषयमे भी यदि विचारकरिया नायतो तत्क्षण ज्ञातहो नायगा करि केवट काशि दासक नामसेदी हमरोगोका कैषा मेम होगया है ओर सर्वसाधारण तद्य आपनेको किंसमरफारसे धन्य मानते है पंडितलोगेमिं उनकी जैसी कख प्रतिष्ठा है सो सव विज्ञछछोगोपर विदितही है किसी कविने कहा है,

पुराकवी्नांगणनाप्रसंगेकनिषिकाऽधिष्ठितकाडिदाप्षा अद्यापितत्तुल्यकेवेरभावादनामिका साथेवतीबभूव ॥१॥

““प्राचीनकालमें एकवार एक पंडित कविर्योकी गणना कणे रगा, तर प्रथम उस्ने कालिदासके नासे छिगुरी उठाई, ओर आगे विचार करनेटगा ते दूसरी अंगी उठनेकेथ्यि उसे वैसा दुसश फवि उपरब्ध नही हज तव उस अगुरीका नाम जो अनामिका # सो यथायं हभा '"। इस दके काटिदासकी अदितीयता केसी चतुरे वर्णित की है! दूसरी अंगुीको अनामिका, कहते हँ इसछोधेसी वातपर इस संदर पमे कैसे गम्भीर अर्थकी स्वना कीहै ! कारिदिसके गुणका चाहे उतना वर्णन किया नाय, तौभी उक्त पद्यांतर्ग॑त मार्मिक भर्थके योगसे मनकी जो चमल्कृति भासित होती है सो भपरवर्णनसे स्याव्ही हो अव यह

सस्छृतम दायको पाच भगुलियोकि नाम प्रये जति दै धगुष्ठ ( भंगूया )8 तर्जनी ( मयपदृ्षेक अरुटी )\ मध्यमा ( चीचकी भगुली ) कनिष्ठिका सवते छोट गुटी मर्भौत्‌ ( छिगुनिया ), ओर नामिका ( बिना नामकी भगुटी ) इष अतिम भगुटीको दसा नमि दिये जनिका कारण स्पष्टटीरे किस्यान षा भपर कारणक दाप टस्का सोभ फरनि पोग्य दृषरो ङ्गा ठे दीदी नही ना कती

कालिदास ३१

बात सच है कि उक्त दरोकमे अंदातः अच्युते पायी नाती है, पर साथ- ही उसप्ष यह बात स्पष्टरूपसे दृष्टिगत होती है कि इसदेशके गरेका तावीन होनेकी अकेरे कवि कालदि।सहीकी योग्यता है इससे यद भभि- भराय नही है कि अपर कविगण माना नरी है, पर देशभियताके दिसावसे हमर, शेक्सपियर आदिकी माछिकामे गुंफित करनेकी योग्यता केव काङिदासहीकौ है कवि अपने देश तथा कारके भतिविवस्वसूप हुभा करते ईै-अथीव्‌ तत्तत्‌ देश ओर काकी भवस्था उनके कान्यमें परतिनिवित इई दाख पडती है 1 इप्त अवस्थाका वार वार हेरफेर होते रहता है, अतः तत्तत्काीन कविगणमी ननमान्यतासे बहिष्कृत होते जाति है; पर यह बात केवर सामान्य कवियोके विषयमेही चरितार्थ होती दै; कालिदास नसो पर उसका अमर नदी पडंचता इसका कारण स्पष्टरी दै कि उनके विदारु मनदार किसीएकं व्यक्ति वा राष्टरूकारी नरी किन्तु समस्त मानवनातिके स्वभावका आकर्न हो उनके द्रृदयोद्रार भव्येक व्यक्तिके हदयको इवितकर तदधीन करडारुते है; यही कारण है कि उन- का अमेट देशकारादिदारा परिच्छिन्न हो भगवान्‌ सू्यदेवके तेन- की नाई निव्यतापू्व्वैक उनप्र बना रहता !

भूतपृव्वै पडितगणोके मतानुसार कालिदासके कवित्वगुणोमे उपमाचा- त॒स्यै अत्यन्त समुल्ज्वर माना नाता है

उपमा कारिदास्षस्य भारवेरथगोरवम्‌

द्ण्डिनःपदरङित्यं मावेसन्तिजियोशणाः

““उपमाकी हथोटी केवर कार्दा्षको, अथगौरवक्षी भाग्वीको पद्‌- ाकित्य अथोव्‌ शर्दकी मनोहर रचनाकी देडीको ही सीह थी ,पर माघकविको उक्त तीनो गुण माप्त थे" उपमान भौर उपमेयकी पूणं सट- शाता चतुराईके साथ परदशिंत करनेकी कालिदासकी शेी अपर कवियेमिं वहुधा रक्षित नदी होती; पर इसकी अपेक्षा उसके काव्यमे एक विशार गुण ओरभी पायानाता है नो अपर कवियोके काव्यमे भायः नरं शख पडता 1 इसका उदेव आगे चरके किया नायगा संमति उक्त उपमा- अकिं कु उदाहण नीचे उद्धत किये नति ईै-

` ३२ संस्ङतकाविर्थचक्‌

समृतिभित्मोदतमसेो दिष्टयामखेस्थितातिमेससि। उपरागाते शशिनः समुपगता रोदिणीयोगम्‌ * शर्कुतला ७। किमित्यपास्याभरणानि ययने धृत॑वयावाद्ेकशोभि वल्कलम्‌॥ बदपरदोषे स्फुटचंतारका विभावरीय्रुणाय कल्पते 5 कुमारसंभव ५। इष्टापिसाह्रीषिजितानसाक्षाः दामभिः सखीनां प्रियमभ्यनंदत्‌॥ स्थटीनवभिःपृपताभिवृष्ठा मयूरकेकाभासान्रबृन्द्म्‌ रधुवंश सचारिणीदीपशिखेवराजयंयव्यतीयायूपतिवरासा नरेदमागोट्र इवप्रपेद्‌ विवणेभावंससभूमिपारः र्वेश ६।

पीछे नहा नदा केखंके मवाहसे श्लोक अति गये ह, उनके नीचे उनके अनुवाद मी रिख दिवि गये है पर वह वात यहापर नक की जा सकती क्योकि प्रथम तो विस्ता- रका भय है) गौर दूसरे केवल भाषा जाननेवार्लोको उक्त पर्योका रस भतुवाद्दवारा प्रात होना कठिन तो क्या बरन असंमवही यतः जिन भरन्थोके अनुवाद भाषामे व्चि- मान £, उन्हे पाठक देखलेवें इसके सिवाय ओर ठपाय नरी हे

§ इस प्यके सारको पंडितं महाबीर प्रसादनी दवेरीने अपने कुमारसमव ससे दइसपरकारसे छिखा हैः-मल्कल सदा बुदापे हीरे श्नोभाको पनेवाहा) आमूषण तज नूतन वयम क्यो तूने तनपर डाला ? श्न ओर तारोषे श्रोमित सायंकाल निक्ञा-नारी) रवि- सारथी पसनानेकी करती हे क्या तैष्यारी? द्विवेदीजीका उक्त मथ नागरीमचरिणी सरमा काश्गीसे प्रात होसकता दं।

कालिदास ,. ३३

&स अंतिमपथकी उपमा कैसी साधी ओर समपंक है हमारे कवि- की वर्णनमणारी अपने ठेगकी अनूटीरी है सो षे अनेकवार उ्ि- सित होदीचुका है उसका पावय निभ्निखित इरोकसे माए होसकता है

गरीवभंगाभिरामं खहरवुपतति स्यंदने दत्तिः

पादन विष्टः शरपतनभ -द्भूसा पूर्वकायम्‌

द्भरद्दोवरीदेः श्रमविषृतुखघाशेभिःकीणेतमा

प्रयोद्ग्र्ुतत्वाद्वियतिबहतरंस्तोकशुव्यीप्रयाति

हाक तरा ९।

यह नो जनश्रुति कर्णगत हुजकरती है कि, नानाभांतिके चित्रषि- चित्र रंगोदारा सीचे हए चित्रको भी कभी कभी कविषब्द्‌ निम्मित वित्र रन्मित करते हैँ उसका उक्त पद्य परमोत्तम उदाहरण उक्त जर वक्ष्यमाण इरोकद्ारा हमारे सदय पाठकोको विद्वासं दोजायग कि, भरकरृति देवीके परम कृतूहरोत्पादक दवर्योको मामिक दृष्टस देख- नेकी काल्दासकी नैसर्िक जिन्ञासा अत्यंत मखर थी अस्तु; अगिः-

यदाङोके सुक््मं अनति सरसा तद्विएरुतां

यदद विच्छिन्न भवात कृतसंषानामेव तत्‌

कृत्या यद्वकरतदापि सम्रेखं नयनयो-

ने मे दूरे किचित्‌ किमपि पाशवं रथनवात्‌

शक्रुतला ९।

इसे पठ्‌ यह किसे भासित होगा कि, समातकी नार उस समयभी जभ्निरथ थे स्यात्‌ उनकी चण्ड गतिका अनुभय छेकरही कषिने यह्‌ वात लिखीहो !

तत्माथितं जवनवाभिगतेन राज्ञा

तूणीयुखोद्धतश्रेण विरीणैष्॑ति

२४ संस्क्रतकातपचक

र्यामीचकार वनमाङ्करुदष्टिपात- वतिरितोत्परूदरुप्रफरेरिवैः रधुवश

यहिं मणतिके वणेनका जदह अर्थात्‌ नमूना हुभा, अव ठोकिक भसंगके वणेन॒को देखिये ताछान्यारानपरपराएप्रभाविञषोद्यदरनिरीशष्यः! सदस्रधत्माव्यरुचद्विभक्तःपयोयुचापिक्तिघुविदयुतेव॥ रघुवंश ईदीवररयामतनुमेपोपोत्वरोचनागेो रररयृषः। अन्यन्यञ्चमि(परिवृद्धयेवायोगस्तडित्तोयदयोरेास्त्‌॥ रघुवश तीसरा प्रकार शरगारका इसके विषयमे तो कुछ कहनाही चादि- ये नानपडताहै कि, कामदेवने भणयिननोके अत्यंत गूढ़ हद्रतकविको दिला मनो अत्मरहस्यका उसे उपेदेशदी कर या ह~ यतायत.षटचरणाभिवृत्ेतेततस्ततःभ्ररितखलोचना) मिवपितक्रियम्रिकषतेभयाद्कामापिदिदष्टििभिमम दाकुतखा १। रिरीपपुष्पाधिकृसोकमारयोबाहूतदीयावितिमेषितकेः परानितेनापिकृतोदरस्ययोकंडपाशोमकरष्वनेन कुमारसभव विबरृण्वतीरेख्सुतापिभावृमगेःस्फुरदरालकृद्म्बकस्पेः! साचीकृताचारूपरेणतस्थोयुखेनपय्येस्तविरोचनेन कुमारसंभव ततःसुनेदावचनावसानेटर्नातचरङृत्यनरेदकन्या

द्टयापसादामरुयाङमारमत्यमहीतंवरणततनपे | ( रघुवश्च

कालिदास ३५

यह्‌ सववर्णेनके चुटकुटे पर कही यह वणन इतना परि- पर्णं रहता है कि, वर्णित विषय मानो मव्यक्ष॒ सामने भाखडे दोनाति ओर उनके मानसिक भर्वोकी ओर पाठकोकी चित्तवृत्ति वात्‌ बाङ््ट हो तन्मय होजाती है ततःप्रियोपात्तरसेऽधयेष्ेनिषायदभ्पोजटनंडुपारः तेतस्वहस्ताजितमेकवीरःपिवन्यशोमत्तेमिवावभासे रघुवर ४७ सचापको टीनिदितेकबाह्ःरिरस्निष्कपेणभित्रमोलिः ठखटबद्धश्रमवारिषिदुभीतिंपियामेत्यवचोबभषि रघुवंश त्वापारूढ पवनपद्वाभुहूगरहाताटकातिाः प्रेक्षिष्यते पथिकवनिताःप्रत्ययादाश्वसन्त्यः। कःसुघ्रद्ध विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां नस्यादन्योप्यहमिव जने यःपराधीनृत्तिः पूव्वैमेषः तस्म्रच्छेरनुकनखलट शेरराजावतीणी नहोःकन्यां सगरतनयस्वगेसोपानप॑क्तिम्‌ मोरीवक्रधरुकुटिर्चिनां या विहस्येषफेनेः रोभोकेशचयहणमकरोदिन्दुरुनोर्मिदस्ता पव्वेमेवः हित्वा तस्मिन्‌ थुनगवख्यं शभुम दत्तहस्ता कडा यदिच विचरेत्पादचारेण गोरी

३६ संस्क्रतकःविषचक

भ्गीभक्या विरचितवपुःस्तंभितान्तनेलोषः सोपानत्वं करुमणितरारोहणाथाभयायी ुव्वैमेषः। नूनं तस्याःप्रवर्दितोच्छननेप्रियाया निहवासानमशिरिरतया भित्रवर्णाधरोठम्‌ यस्तन्युस्तं सुखमपकरव्यक्ति छम्बाखकता- हदुदोदेभ्यं त्वदनुारणष्किष्ठ कति विभि ं॥ उन्तरमधः अतिम दरोकमें यक्षते अपनी विरह शोकास॑सखीके मुखका व्ण कैसा हक्यमेदक फिया है सायही निक्त मेषको उसने अपना मि माना उसका संबन्ध भी कैसी उत्तमतासे निवाहा हे ! देखिये निम्नस्य पयोमिं कामिननोकी मनशचेष्य कैसी मनोहर सीति वर्णित की गयी है !- अव॒यास्यन्पुनितनयांसदसाविनयेनवारितप्रसरः | स्थानादनुचछ्प्रपिगत्वेवपुनःप्रतिनिवृत्तः शाकतला १। यदिदैरथतेक्षाभदिगनीङ्गनिपीडितम्‌ एकंकृतिशररेऽस्मिन्‌ शेषम भुवोभरः विकमोरवशी २। अभियुखेमयिसंहतमीक्षणंदस्ितमन्यनिमिततकृ तोदयम्‌ विनयवारितग्र्िरतस्तया विवृतोमदनीनयसवरृतः क्षकुतखा पाचनमि्चय॒तिययपिमेवचोभिः कर्णददास्यभिशुखंमयिभाषमाणे

कालिदास ३७

कृपिनतिष्ठतिमदाननसंसुखीपा भूयिष्टमन्यविषयानतुदृष्टिरस्याः राकुतछा १। जनुभवन्रवदोटमतूत्सवं पटुरपिपियकंठनिषृक्षया अनयदास्नरन्चपरिमदेधुनर्तानर ( )तामृबाजनः रघुरवेश॒ भित्वा सयःकिसख्यपुटान्‌ देवदरदुभाणां ये ततक्षीरसुतिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः आङिग्यंते गुणवति मया ते तुषाराद्धिवाता स्पुषरं यंदि किर भेदेगमेभिस्तवेति

उत्तरमेघः द्ष्यंतकों क्ापाहत होनेका पुनः स्मरण होती शकुंतखको नो

उसने अपकृत किया था, तदथै उसे नितांत गतुताप इना; अब उसके दहन दुरेम्‌ ठेसा समञ्च उसे अत्यंत विरहदःख हुभा उस समय वह कहता ह;- स्वप्रोतुमायानम तिश्रमोनुङ्धि्ठनुतावत्फरमेवपुण्यम्‌ असृ्निवत््येतदतीतमेव मनोरथानामतटग्रपाताः

रकता इसी प्रकारका अन रानाका शोक

धृतिरस्तमितारतिरृच्युताविरतंगेयमृतुनरुत्सवः गतमाभरणप्रयोजनंपरिदून्यशयनीयमयमे

रघुवश ८॥ इसी भकारसे जन्य घटना संबेधीय हृदयस्थ विचार रेसे कुतूहरोत्पा-

दक श्चष्दकरपिद्धारा वर्णित किये गये हँ कि, उनसे वह रस मानों स- काहि पदता हैः-

३८ संस्क्रतकविप॑चक

यास्यत्ययशङकतटेतिटदयससपषधु्कंठया -कटःस्तम्भतवष्पवृत्तिकटुषरिवन्तानडंदरोनम्‌ पडन्यममतवदीदशमिदस्नदाद्ण्योकुषः पीडयन्तेगरहिणःकथंनतनयाविरटेषदुःसेनेषैः॥ दकुतला ४। यह्‌ मौर टिप्पणीस्थ तीन शोक इतने करुणारसगर्भितदँ कि, पंडित छेर्गोकौ निर्तात मिय हो छक चतुष्टय! के नामसे मसिद् है। इतःपत्यदेशात्स्वननमनुगंतुव्यवसिता सुस्तिष्टतयुजेवेदतिगुरुरिष्येरुपमे पुनद बाष्पप्रकेरकटुषामुपितती मयिक्रयत्तत्सविषमिवशल्थेदहतिमाम्‌ रकुतला १। # वेतीनो शरीक यह है। दुश्रूषस्वगुरून्‌ कुरु म्रेयसखीवृत्तिं सपत्नीजने भचर्विमकृतापिरोषणतयामास्ममतीपंगमः भूयिष्ठमवद्क्षिणापरिननेभाग्येष्वनुत्तेकिनी यान्त्येवंगृहिणीपदंयुवतयोवामाःकुरुस्याधयः भमिननवतोभरःदखाष्योध्थितागहि्णीपदे विभवगुरुभिःकृत्यैस्तस्यपरतिक्षणमाकुडा तनयमचिरव्भाचीवार्कमसूयचपावनं ममविरहर्नानत्वंवत्सेशंचंगणयिष्यपि भूत्वाषिरायचतुरंतमरहीसपती दौप्यन्तिममातिरथतनयवेदय भरौ तदर्पितवुदटम्बभरेणसार््

शान्तकरिष्यसिपद्पुनराश्रमेऽसिमिन्‌ शकुंतला

कालिदास ३९,

नय दुष्य॑तने भी स्वीकार नरी किया, ओर मुनि शिष्य शाङ्गरव भी नितांत क्रुद्ध तब बापुरी रकतरकौ रेसी अचित्थ अवस्था हुईं कि, यदि उस समय धरती फट नात्ती तो बह उसमे सभानाती, पर उतने प्रभी उसने अखि उबडवाकर दीनतापृष्यैक पुनः रानाकी ओर ताको तैभी उसे दयान आयी 1 भागे यह बात राजाक चित्तमे खटकती रही अर उसने बिदृषकसे उसका परछताव किया इस सकरुण घटनको फषिने चतुराईसे कसिपितकर इछेकमें भी उस रसको पूणरूपसे उतार दिया है।

वरी बात अगे दखोकमे भीः- पुरनिषादापिपतेरिदंतद्ययस्मिन्पयापोर्िमिणिविक्य नटासुबद्धास्वरदस्सुम्ःकेकेयिकामाःफरितास्तवेति॥ रघुवे्च ९३

राना मनोमन सखेद बिचार कररहाथा किं, रकुता का विनाकारण परित्याग कर मेँ अभागेने अपने हाथो अपना घात करखिया कि, इतनेमें उसे धनवृद्ध साहूकारके समाचार मिरे उस संवादके मिरुतेदी उसका चित्त नितांत खिन्न हो, पुनः वह गह्री चितामे मग्र हो बिचार करनेरगा कि, संतति विच्छेदके कारण मेरे पितरोको अयागति प्रप्र होगी 1 उस | उसकी शोकोक्तिको पट एेसा कौन है किं, निसकी छती भर अवि !

अस्मात्परवतयथाश्ुतिसंभृतानि कोनःकुरेनिवपनानिनियच्छतीति चूनंप्रमूतिविकटेनमयापरसिक्तं धोताश्ुशेषणुदकंपितरःपिवन्ति

शकुंतङा ६।

४० संस्कतकवषिपंचक्‌ वैसेदी त्वरक्षप्ठाभीस्यतोऽपनीता तंमागेमेताःकृपयार्तामे अदशयनवक्तुमराक्लवन्त्यः राखाभिरवानेतपटवाभिः मृग्यरचदभाकुर निन्येपेक्षाः तवागतिज्ञंसमबोधयम्पाप्‌ व्यापारयन्त्यादिशिदक्षिणस्या मुत्पक्ष्मरजीनिविरोचनानि अतानुमोदंमृगयानिवृत्तः रंगवातेनविनीतखेद्‌ः रहस्तदत्संगनिशण्णमृद्धौ | रघुवर ३।

काछिदासकी कवितामे अद्टीठता अर्थाव्‌ यामीणता कहीं तनिकमी नहीं पायी नाती उसकी भनूटी उक्ति युद एव मार्मिकतागर्भित रहती हैँ पथ्वीके समस्त विषयोको प्रामीणनन सदा कुत्सित मानाकरते है; उनं लोगोकी अमशस्त बुद्धिमें यदी बात स्माथ रहती है कि,क्वियां केव उपभो- गवस्तु है ओर उनके बिचारकलापभी तद्नुसारही रहते परन्तु यह अनुचित समज् काछिदासके काव्यमें कहीं कुछ दृ्टिगत नहीं होती, निनके विषयमे विधिका विधान पूरणेतया र्िपिथमें आता है, जिनकी अपेक्षा धरतीपर अधिकतर रमणीक जर कुछ नदीं है, भिन्द समसमान भमाणसे विधिने बुद्धि मदान की है, ओर निनका हृदय विङवनिमीताने इस अभि- मायते विष कोमल बनाया है कि, वे अपने कर्चैव्यको भरीभांति समन्न

कालिदास ४१

पञ्चकर भपने सहचरो को विशेषरूपे सुखद हो -उन्दीं सि्थाकी मोर कारि- दास लैसे महाकविके मनका वाह्‌ विपरीत कैसे बहसकता रै ! वई वैस फदापि वाहित होगा उसकी कवितामें स्रीजन विषयक समादर ओर गौरव पद्पदप्र दग्गोचर होता है मस्वापनाखद्याय मपने उगर्णेके जीत गन राना नव इदु मत्तीके निकट जाया, तव सचापकोाटीनिहितिकवाहुः भिर खनिष्कषेणमिन्नमोरेः ठरटवद्धशमवािविदु्मतापियामेत्यवचो वभाषे “इतःपरानभेकरा्यंशान्‌ वेदूभिपरयालमतामयासि एवविधेनाहवचेषटितेन स्वं प्राथ्येते स्तगतापमेभिः”॥ . रघुवंश यह वीररसपूरित उक्ते उस समयपर कैसी समयोदित बोध होती रै ! हमारे निन ग्र॑थावरोकनभिय पाठकेनि अंगरेनीके उपन्यास पटे होगे उन्दं सर वार्टर स्कार अनुपम ंथोकी विरमृति कदापि होगी जपने कविका खीनन विषयक पक्षपात एेसा दृद्‌ पाया नाता रै कि,

वेसा कुछ विशेष मंग होनेपर भी वह षीचवीचमे स्षस्कता ¦ स्वयवरको जाती बार अन राना नर्मदातीरपर डरा उष पड्था कि, सदसा उस नदीर्भेसे एक मचड हाथी निकडा ओर उसने सब सैन्य तिथर विथर कर दी उस घटनाके वर्भनमें हमारे कविराट्‌ कहते हैः-

सछिन्वधुद्तयुग्मशुन्यं

भग्नाक्षपयेस्तरथंक्षणन

रामापरित्राणविहस्तयोधं

पेनानिषेरी त॒सटेचकार

रघुवंश

र्‌ सस्छृतकविपचक

इन्दुमतीके सहसा काटकवदित होजानेपर अन राना शोककात्र हो उसके गुणोका स्मरण करता हैः~

गरहिणीसचिवःसखीमिथःप्रियरिष्याठस्तिकलिषो। करुणाविभुसेनमृत्युनाहर्ता्वावद्‌कित्मेडतम्‌ रुषेश भब इधर आनकर हमरोगोके जौ बिचार पराये जाते है कि, खीगण संबभकारसे निच तथा नीच टदल्के येग्यदी है सो इसमें ओर उक्त दृरोकरे प्वार्धमे कितना अंतर रक्षित होता है) यहां पर यह वाति विशेषरूपसे विचारक्ेजमें छेने योग्य है किं, कविका उक्त पक्षपात केव राजस्ियोके विषयरमेही था बर्न खीमात्रके चयि था त्वथ्यायत्तकृषिफरमितिभ्रविकारानभि्ञ = श्रीतिस्निग्धेनेनपदवधूठोचनेःपीयमानः। . सयःसीोत्कषणसुरभिक्षिवमारुद्यमालं किचित्पस्चादघ्ननरघुगतिःकिचिदवोत्तरेण एूवेमषः। उक्त प्के मथमाधमे किसानोकी खियोके विषयी सखमविक्ति कैसी 'हृदयगराहक हं : अब भवचनपटटुताके कतिषय उकछरष्ट उदाहरण नीचे भदित फरते अतोयमरवःकपिखनुसारिणा पितुस्त्वदीयस्यमयापहारितः। अटप्रयत्ेनतवाजमानिधाः पदंपदव्यांसगरस्यसंततेः | प्थुवश ३)

कालिदास शद

थोडसेही

उक्त शेके इन्द्रने थोडेसेही, पर साथरी सूवीदार श्दोदारा रघुको भपना कैसा आतंक दिखाया है पर वह पराक्रमीरानपुत्र एसे जतं- फको समङ्ञताही क्या था, उसने तत्क्षण उत्तर दिया कः- ततःप्रदस्यापभयःपुरद्रं पुनवेभषेतुरगस्यरक्षिता गृहाणरायदिसगेएषते नसल्वनि्भित्यरधुकतीभवान्‌ रघुवंश

उक्त उत्तर राजपुत्रका कुरीनता, बीरता तथा उस समयको जेसा कुछ उचित है, सो सहृदय पाठक स्वयं नानसक्ते हैं

उपर वीर रसका नमूना हभा, अव तद्विरोषी करुणरसकी भी वहार देखियेः- नानेविसृषटं प्रणिधानतस्त्वां मिथ्यापवाद्‌ क्षुभितेन भवर तन्माव्यथिष्ठा विषयान्तरस्थं पराप्तासिवेदेहि पितरमिकेतम्‌ रधुवेश ९४ व्याधाने करोचका वध किया यह देखत भिसके महसे छन्दोमयी वाणी विनिसृत हई उस आद्य कविकी दया्दता ओर वाणीकी भोदता उक्त दछोकमे कैसी उत्तमतया स्लखुक रही है ! यारों उद्टिखित हए समस्त समुज्ज्वरु गुणोकोभी टु करनेवाे भोर अपर कवियोको अगम्य होनेके कारण केवर कारिदासके आभ-

४४ संस्कतकविप॑चकः

नवती “उदात्तरस' वा कल्पना विशारदा काकभभी वणेन होन शेषी हे भाज प्य॑त सवेदेरोमिं.जो जो कवि श्रेष्ठ होगये उन सर्वम उत्तम गुण विद्यमान था, थंगेरेनी काविताके वर्भनमें एक स्थानपर द्ेड कविका एक सर्ममसिद्ध बुरका शिखा था, उसका हमरे पठन- भिय प्क स्मरण बनादी होगा उसमे इस गुणके सष हमर कविको अगरगण्यता दे मिल्टनकोभी उसीके साथ बेगरा है डैडन एक शतान्दीफे पूर्वं जन्म गरहणकर अपने कविके कान्यका रसामृत यदि पान करता तो गेधेकी नाईही तद्टीन हो वह उसे उक्त फषिमाहिकामे परिणत करता; क्योकि षह समीचीन समारोचक था, जीर उसे मनक समावस्था अयत्‌ वृथादभ, मत्सरभादि विकाररोसि मुक्तता अनुदर था; यंह परमोत्तम गुण कािदाप्की कवितमं नहं तहां उप- रग्ध होता ।- पव्योयमंसाितिरम्बहारः कृटपताङ्करागोहरिचन्दनेन आभातिबाखातपरक्तसालः सनिक्षरोद्रार इवाद्रिराजः रघुर्वश इस रसका भोधक न्द्‌ सस्छृत सादित्यमे नश है) भतः वह यप्र नूतन छिखा गम। ह। इस रसके भंगेन (1116 शप01177€) कहते

उक्त चुटकुत यद है. गण {0918 77 = 1766 0181901 २९ एणा, ०९०९ ` [फ़ ण्त्‌ प्रहत कात्‌ धता; ¶्‌‰© 78 711 र्षि०७७8 चप इध 00886. 6 इच्०्छणत्‌ 10 पपशुच्छि 79 00 106 1886 गृषू€ गि.८€ कधप्ा€ व्यात्‌ 710 शिष्टः &० ; गु0 10६6 9 प्रात्‌ 806 ]नंपलव्‌ चल ०क्रला 0.

~ डढनने उक्त सुंदर सुभाषित एक तसवीरके नीचे लिख रसमा था यह उक्त कवि का आुकवितर भोर उसकी गुणमादकताक स्ष् रूसंसे प्रदृित करता है

कालिदास] ७९

परित्समुदरान्सरसीश्चगत्वा रक्षःकषीन्दरुपपादितानि तस्थापतन्मूर्दिनिखानिनिष्णो- ्विष्यस्यमेवप्रभवाइवापः रघुवंश ९४ 1 अस्त्युत्तरस्यांदिशिदेवतत्मा दिमाख्योनामनगाधिरानः पवोपरोतोयनिधीवगाद्य स्थितःपृथिव्याइवमानदण्डः कूमारसंभव्‌ ९। प्रनानामेवभूत्यथे सताभ्योबख्मियदीत्‌ सदस्रयणसुत्सष्टुपादत्तेदिरसंरविः रघवर १९। जमोध रोग परायः समक्षा करते दँ कि, रानाका कर छना केव प्रनाका धनहरण करनादी है इस निभूर श्रमका निवारण, ओर भना हितैषिता जो करका यथाथ रूप है आदिका वणन उक्त द्टंतद्यार जसां उल्छृष्ट रक्षित दोता ३, वेसा जपर उदाहरणदारा स्यातदी हो !

अन रानयुत्रको विवाहके वख देने अनंतर अन्तःपुरके रक्षक जब उसे श्न्दुमतीके निकट विषाहाथं छे गये तवका वर्णन इमारे कवि छिखते है

दकूखवासाःसवधूसमीषं निन्येविनीतेरवरोधरकषः वेखासकाशस्फुटफेनराभिनेवेरदन्वानिषचन्द्रपादः

रुवेडा

४६ संस्छृतकविपंचक

उक्तं अनूढे दृषटातोको बिचार काछ्दासके सृष्ट्ाने विषयमे आ. रोचना करनेका भार हम अपने सहृदय पराठकोपरही अर्पित करते है वधूवर विवाहागनिकी प्रदक्षिणा करने रगे, उससमयका वर्णन रखा हैः- प्रदाक्षिणप्रकमणात्छृशानो रद्चिषस्तन्मिधुनंचकाश मेरोरुपान्तेणिववत्तेमान मन्योन्यसंसक्तमदच्ियामम्‌ रधुवंश ७। धन्य है ! उक्त फत्पनाकी विदारुताको ? क्या यह वात सामान्य कविके चित्तम कदापि भानेवारी है कि) दिवस राधिका नोडा मेरुके आस पास निरंतर फिरा करता हे | तिततश्िखकीपरथितेनसादमनेनमार्भवसती रुषिता तस्पादपावतैतष्ंडिनेराःपवौत्थयेसोमडवोष्णररमेः रघुवंश चन्द्र स्वयं भकादामान नही है, ओर अमावस्याके दिनि वह पर्वतकी गुहामे # छिप नहीं रहता किन्तु आकाद्चमेही सूर्यके नितांत निकट रहता

# यह्‌ फठपना यहुदीटोमोकी थी निरटनने समसन एगोनिस्टस्‌ नामक नाट कके आदिमे निजके विषयमे जो करणोक्ती परगट की दै उसमे कडा है।

{176 शा ६0 16 18 वकार ^114 1 98 1210011, 76 5116 त९ल४इ प्रा 00४, प्रत्‌ 17 [€ ९26४ लापा ९५१९.

इमलोगोमे रसौ मरामीण कल्पना कदापि नकं पायी जाती | यहं * अभावस्य साषरहना )' सयैनुसंगमः ! भारि शब्शदाराही प्रमाणित हेता

कालिदास ४७

ओर कराहीन होनाता है, इत्यादि ज्योतिषके रहस्य काशिदासका भटीर्भाति विदित थे, एेसा उसके गथसि स्पष्ट बोध होता है उक्त दृरोकमे चन्द्के दृष्टंतको छे वह तीनराति वय चतुर्दशी, अमावास्या ओर मतिपदा ) सु्थके निकट रहता है ओर दितीयाको उसके पाससे निकङ जाता ह, सो स्पष्टी है

सपतपिदस्तावचितावेषाण्यधोविवस्वानूपरिवतेमानः पद्यानियस्यायक्षयेसहाणि प्रबोपयत्युष्केयुखेमंयूसेः

कुमारसंभव ९।

उक्त पको पद्‌ हिमाटयकी गगनभेक्े उचा किसके मनपर परति- विंबित होगी ! कविका आभिपाय यह्‌ रै कि, सूये क्षितिनके नीचे रहने पर भी उसके किरणनार हिमार्य शिखरस्य सरोवरांवगंत कमलोको पिकासित करते है कमरुका विरेषण सपरषि, ओर किरणोका विशेषण (उध्वमुखैः" ये उक्त अथेको यथाक्रम पोषकता तथा विशदता परदानक- रते है, अतः उनकी योजना अत्य॑त समपक है 1 #

मेषो दिमाख्य पय्यैन्त माग कथितकर यक्ष उसे अगि कैरासः जनेफा माग कथन करता

प्ख्यदवेरपतटमतिक्रम्यतास्तान्‌विेषान्‌ दंसद्रारभगपतियरोवमेयत्कोचरधम्‌

उक्त प्रयकी महिनाथने जो काची है उप्ते बोधहता रै कि, कालिदाक्षे ' दिमालयरकी उन्नतताके विषयमे जो नितेति सरस एव॒ उदात्तरसका निधन विया दः षह उनकी समक्षम विलकुलनरी माया ' उष्वेमुखमयुखे" ! इसकी व्याख्या कर्ती- मार ह्‌ लिखते है कि ' अतिमारैण्डमण्डरत्वाद्रमूमेराषिमाद्‌ः) अर्थात्‌ शकाकारक भ्िप्राय यह्‌ दकि) दिमानयक्रे मग्रमागस्य सरोषरोके कंमलोंको सुर्के करानेकर उ्वमुख दारा क्यो सपक्षं करते है ? इसका कारण यदह है कि) हिमारयके प्रदेश सूरव्यमड लकी भपेक्षा अधिक ऊंचे जिस हमारे चतुर कथिको ज्योतिषादि सब ज्ञाखोका भकीभाति ` श्न होगा सीं जानपहत। दै उसका हिमालयके क्षिखतैको सवसे उचा मानलेना बड वि्छक्षण बोध पहता है!

४८ संस्छतकषिप॑चक

0 ~ ^ गनादाचादिरमवृरितियगायामरोभी र्यामःपादोबहिनियमनाभ्युयतस्येवषिष्णोः॥ न्येमेषः यक्ष कहता हे (भागगेवरामने कैच पव्वैतमे नो विवर किया, उष ननिके हेतुं त्‌ मथम संकुचित होकर ंवायमान हौ रेषा कपे यामन अवतारे नब भगवान्‌ विष्णुने विराट्प पारण क्षिया थ) उष समय संपूरणं स्वभको व्याप्तकरेवाहा उनका श्यामवर्णं पांव नेमा प्रचंड दिखा था वेसादी तूभी सपद्मा यह उक्ति मनफो कैसा चमकत कर आहू्य॑चकित करती है ! उपर्सहारमें यहं निवेदन है कि, लिदासके काव्यम जो शण भधानं प्रधान नान पड़ते है उनका व्णनकर, उन उन स्थ विरेरषोका भी वर्णन कर दिया गयि कि, नहां एठकेका मन विशेष रूपसे रममाण हेता है उक्त ठेखमें स्यात यह हभा हो कि; बहतेरे पाठकोके भिय एवे र्किके इछोक उसमें अये हय प्र एतदथ हमारे विक्ञपठकेकि हमे दोष देना चाहिये; क्योकि वद दोष सर्वथा कविकाही रै ! कैसा ह्‌ सत्र परीक्षापटु मलुष्य कर्यो हो नौर वह कैसेही विश सत्भः डासमे क्यो छह दिया नाय) प्र यदि उते थोडेसेही रतरोका चुनाव करनेकी अज्ञा दी जाय तो वह विचारा क्या केरे एक गु नितने रत्र सके उततेष्ै वह वहसि निकारेगा हमर कके गुण अपार ओर वित्तको रममाण करनेषषि स्यभी बहत तौ रेसी स्थमिं निधिम चुनाव करना केव अक्तमेव बति तथापि कारिः कान्यो्ी मशंसापूरित ज. समारोचनाद पठे च्छि गयी उनका पाठकोको पण पि्विय मि इस मभिपायते उक्त सरह उर पयि गे है हमे भरो तो रि, उक्त सग्रह कालिदासके सर प्य प्रायः दने प्रयि रहेगि सर्त काविर्योकी मादिकमे प्रथम जो कङिदास उसका यर्दा संपि वणेन का गाध दास योग्यताका कवि ओर्‌ नाकमणता ना मः र। भनुवाद्‌ भप सहृदय पाठकोको भेँट करनेका उथोग किया

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भवभति

भवभूतेःसबधादभूषरभूरेवभारतीभाति ७, कि क, एतत्कृतकारुण्येकिमन्यथारोदितिग्रावा ॥\ * सप्रञ्चती } पीछे काध्दिसके विषयमे हिखितीव।र यह कहा था कि, उसके विषयमे विश्वासपा पार्वय अणुमात्र भी नहीं मिलता ! भौर तो कया प्र उसकी असामान्य कौतिकोयुदी यदि उसके नीवितकार- मेही भकारित होती, ओर बह नाटफोको च्खिता, तो केवट उसके कारव्येदासय आन दिन उप्तफे नामका भी पतान टगता ) जआनं-

क,

द्का विषयेहै फि, भवन्रूतिके विषयमे यह वात सवेथा चारताथं नही होती उसके जीवनकारु तथा वसतिस्थानादिका यद्यपि काटिदेसकीं नाइ कीं कुछ पता नशे छगता, तथापि निनके कुखवृत्तातका भावी लोरगोको पारेवय मिख्नैकी तनबीज उसने कररख्ली है उसके तीर्न नाटकोफे जदि जगे छिखा हुभा वृत्तात पाया जाता है दक्षिण देशांतर्गत पदयुर नामक नगरमे डवरनामके तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहा करते थे उनके कुरे गोपारभद्ने जन्म ग्रहण किया था उसका पुत्र नरकण्ठ भवभूतिका पिता था भवमूतिकौ माका नाम था, नातु- कर्णी जगे भपने कविको भट शीकण्ठनाम्‌ मी प्राप्त इजा था भवभ्‌- तिके विषयमे स्वा वृत्ता इसमे अधिक ओर नही पायानातार्योतो लोमेमिं कई पभरकारकी चचरी होती रहती हँ पर वे सवे केवर कस्पना- मात्र रै

# सवभूतिके सबधसे विचार कियाजाय ते। सरस्वती पषैतकी कन्या प्रिती होगीसरी मानप्दती दहे क्योकि यष रेस होता तो उसके करुणरसद्धारा पाषाण क्यो कर सेमे

गता 2

५० संस्कतकःवि्पचकः

हमार यहां भाचीन सेस्छृत कवि्ोके विषयमे अनेक ईतकथा पायी जाती हँ उनरमे भवभूततिके विषयमे यह सुना नाता है कि, भोन राना जआश्रत जो अनेक पंडितगणयथे उनमे वहभी था भौर कवि- ताके विषयमे उसे कारदिसकी बड़ी सद्धं थी यह तो केव सामान्य वात ह, पर विेषरूपसे यहभी सुना नाता है कि)भवभूतिके 'उत्तरराम- च।रेत' नाटकको पट्‌ काषिदास बत्यंत विस्मित इभा ओर अनेदमग्र

हो उसे माथेपर रख धन्य धन्य कह वह नाचने छगा (कठ ® $ # $ 6 किमपिकिमपिमंदंमेदपासत्तियोगा- द्षिरङितकपोटंनल्पतोरक्रमेण [९ # भः तिकेकदोष्णो अशिथिरपरिरभव्यापरतेकैकदोष्णो- [कत ६. [१ रविदितगतयामाराभिरेषैव्यरसीत्‌ भवभूतिके उक्त एोकको पट कालिदासे ऽस सूचित क्या कि) अंतिम चरणके एवं पद्के स्थाने एव ' पद्‌ प्रयुक्त किया जाय तो अथ॑ विशेषरोभापद्‌ होगा # सुना नाताहै फि, काट्िदि।सकी उक्त सुचनाका भवमूतिने स्वीकार किया, ओर आरन उक्त इोकरमे वही पाठ षाया नाता है उक्त मनोरंनक कथामें काइ बात असंभव- सी नहीं नान पडती; क्योकि उस नाटककी योग्यता एेसीही है कि रङ- तछा ' नाटक छिखनेवाछा भी उक्षे अपने सीसपर धारण करे, साथरी यहभी छक्षित होता हे कि, काछिदास नैसाही विशारुबुद्धिसम्पत्त था वैसाही वह अत्यन्त निरभिमानी भी था परन्तु ससेदं छिखना पडता कि, भवमूततिके नारक कवीदवर्रोको अस्प परिभ्रम जौर असप अवका- शमे मान्य नहीं हर,

‰# बह रेते कि) पृन्धोक्त प्रकारसे बोलते (रा्रिमाश्र पेष हो गयी, पर कानी इष नक्ष हृ ओर पूनयैपाठका अर्थे इतनारी होता था कि, इस प्रकारे नोलते रे रभि हेष होगयी, इसकी भपेक्षा उक्त अर्थं मयिकतर सरस है सो भर्थमर्मह़ पाठक सहन जान सक्ते हे

भवति ९१

नैसरगिकीसुरभिणःकुसुमस्यसिद्ा मूष्िस्थितिनेचरणेरवताडनानि

-(सुगन्धयुक्त पष्योकी मछृतिसुखम यरी योग्यता है कि, सब रोगं उन्हँ मस्तकपर धारण करं कि, उन्दं पददछित्‌ करे "' यह्‌ सब हे सचा, प्र जगमे इसके विपरीत अनुभव प्राप होते इसी देशम नरी, किंतु अनेकं देशेमिं देसी कई घटना दष्टिगत इई हैँ कि, यथारथपरीक्षक एवं रसिकके अभावके कारण बहतेरोके नैसर्गिक बुद्धिगुण उत्कषको माप्त हो वसेह असिद्ध बने रहे; ओर बहुतेयोको तो मूखं एवं अरामिक ठेगेमिं सुद्‌ :सह दुःखपुैक अपने दिन केने पड़ भवभूतिके नाटकेोसे स्पष्ट बोध होता कि, उसकीभी रेसीही ददशा इई होगी 1

उत्तरणमर्चरित ' के पारम्भमें सूत्रधार कहता है, सव्वैथाग्यवहत्ेव्ये ऊुतोद्यवचनीयता यथास्रीणांतथावाचां साधुत्वेदुजेनोजनः

^ छोगोमे नामधराई हए विना रहना बडा कठिन है, तिसर्मे भी िर्योका पातित्रत्य ओर वाणीकैी निर्दोषता ते ठेर्गोको नितान्त दुःसह बोध होती है उसमें कुछ कुर दोष निकारनेको वे अपना परम कर्तव्य मानते " वेसेही' महावीरचरित ' के अंततकी चचरी, ( भरतवाक्य )

रोकेनित्यपरमोदंविद्धतुकवयःर्टोकमप्तपरसादं - संस्यावंतोऽपिभूत्नापरफृतिषुसुदंसंप्रधाय्येप्रयांतु

““ भ्रसादगुणयुक्त अथोत्‌ अत्यन्त सरर एव सुबोध कान्य कविगण मणीत करे; ओर बुद्धिमान्‌ पण्डितगण उन्हे सादर पट्‌ उनका गुण जङ्की- कृत्‌ क्रे !

भवभूति अपन समकारीनरोगों दारा यदि समाहत किया गया होता गोर्‌ सष छोगोका वह प्रीतिपात्र हीता तो यह कव्‌ सम्भव था कि, एेसी कृते्तापूरित उक्ति उसके मुखस विनिःसृत होती !

५२ संस्कृतकविप॑चक यह तो दुख भी नहीं ह, इसकी अपेक्षा नितान्त गंभीर एवं ममैसपक्‌

उक्ति माहतीमाधव ' नाटक्के आदिमं पायी नाती; वह्‌ पाठकेके हद" यपरभी वैसीदही गहरी चोट करती हैः-

[क्ष्‌ [4 येनामकेचिदिहनःपथयन्त्यषक्ञा ४७ रः तिनैष

जानन्तुतेफिमपितान्प्रतिनेषयतः।

कि. (९ उत्पत्स्यतेऽस्तिममकोऽपिसमानधरम्मा

& (1 धां [+

कारष्ययंनिरवपिर्विएुख प्रथ्वी

नो छोग हमारी हंसी कर उसे छोरगोमं केलाते है उन्दँ यह समस्च- लेना चाहिये कि, हमने यह परिश्रम उनके स्यि कदापि नहीं किया है; हमारे कैसे मनोधरमका कोई कोई अगे पीठे कभी अवदयही उतपन्न होगा, क्योकि कारु अनन्त है ओर वसुन्धराभी वेसीही विस्तीर्णं है )'

अरसिकटोगको यथां येोग्यत्ताकी परख होनेके कार्ण जिसे उन र्गेनि कषुद्रवत्‌ माना उस कविमणिकी भवि्ष्यूप यथ।थे उक्ति उक्त जेसी उदार एवं सकरुण क्या कहीं भी टष्टिपथमे मास्कती है ? कलप- नामय सकरुण घटनारओंका वणेन कर भवभूति अपने पाठकोको अनेक स्यानपर द्रवितत करता है, परन्तु उक्त रोके उक्की निनकी सच्ची अ- वस्थाको पद्‌ हृदय नेसा करूणाप्रावित होता है वैसा अपर घटनाके व-

णनसे स्यातही हता हो

उक्त पर्योको पट्‌ काडिदास्‌ ओर भवभूतिकी समकाटीनताके विष- यमे हमारे पाटकेको किचित्‌ संदेह अव्दयदी उतपन्न होभा; क्योकि नि- सकी अद्वितीयताके कारण अनामिकाका नाम सार्थक हुभा; # वह करा जोर निसकी। सन्धैसाधारणमे कीर्ति होना तो दूर रहा, पर जिसे कवि- ताका रसन्ञतक मिरनेके कारण, काटकी अनंतता ओर भरतीकी विस्तीभेता पर अपनी आश्ाको स्थित करना पड़ा, वह वापा कवि कई

# देखो "कालिदास" एषठ ३० की टिप्पणी 1

भवभूति 1 ५३

इनके अतिरिक्त जीर भी देसी अनेक बति निनके बारा उक्त विवा- दका मायः निर्णेय हो जाता है यहापर उनका सविस्तर उष्टिखित होना आव्द्यक नान पडता हे 1

काछिदास ओर भवभूति समकारीन थे, यह माननेके स्मि परिखा बडाभारी भरमाण तो यह है कि, परिरेकी कीतिं पाचीन कारसेरी जआबा- छवृद्धोकों विदित है, पर दूसरेकी केवर पंडितरोगोकोर ज्ञात है। का- ङ्दिास अपने जीवितकारमेंही सर््वसाधारणका एेसा जनप्रिय होगया था कि, उसकी वस्तुकी चर्चा होतेदी सब रोग उसे समाहत करते थे किक्रमेेश्षी ना्कके आदिमे सूत्रधार सब रोगेोसे इतनीरी भराथेना करता है कि-

प्रणयिषुदाक्िण्यवश्चादथवासद्रस्तवहुमानात्‌

गृणुतजनाभवधानाच्कियामिमांकालिदासस्य

“'दुक्चकगण ! इस नाटकमे जो नायक ओर नायिका हैँ उनके विषयमें समादरपूल्व॑क वा यह सुभणित का्िदासकी है यह जानकर हमारे ज- मिनयकी ओर दत्तचित्त हूनिये ?

उक्त सूत्रधारोक्तिद्वारा उक्त दोनो कवियोका महद॑तर सहनदमें रक्षित होता है ! जब काछिदास तत्काङीन रोगोको इतना वन्य था तव निस कविकी कतिको वह स्वयं समाहत करता था वह कविोगोको किस मकार बहमान्य होना चादिये धा पर यह्‌ ननप्रियताका सुख विचारे भवभूतिके नसीवमे बदाथा। यह बात उसके नारटर्कोदाय स्पष्टरूपसे दृष्टिगत होती है

भवमृत्िको रानाश्रय माप्त था यह कहना युक्तिसंगत बोध नरी होता, क्योकि यदि वैसा होता तो उसके तीनो नाटकोका भयोग कारुभियनाथकी यात्राके मरसंगपरही क्यो किया नाता? कारिदासके किसी नारकके ज-

# उक्त स्थरुका उद्ेख दस्‌ कविरके तीनो नारको के आदिमे पाया जता है।

५४ संस्कतकवि पंचक

दिम रगभू्भैके स्थरुका उद्धेख नही पाया नाता, श्ससे यही अनुमित होता है कि, उनका अभिनय रानमौिराम ही होता होगा प्र वह सौभाग्य भवभूतिको कमीभी परापरहेनिके कारण नान पड़ता है उक्षे जपने नाटक यात्नादि जननसमार्नोके म्रसंगपरही अभिनीत करयेर्हो, ओर इसकी अपेक्षा अधिक विदृवासपान्न रमाण स्वयं उसके नाटके ही पाया नाता दै काछिद्‌ासके समस्त यथोम संस्कृतभाषाका युद्धस्वरूप दृष्टिगत होता है वाक््योकी रचना सर, उनर्मे कृतरिमता ठेरमा- तरको नदीं पायी जाती; वैसेदी शन्दनालभी सुबोध ओर समास थोडे डे शब्दोकेदी पये नति हँ कालिदासेके सत गरथेमिं खोज करनेसे चार पचसे अधिक पदोके समास बहुत थोडे मिरग इसके उदाहरणस्वरूपमे भेषदुतका' नामेद्धेख किया जा सकता है वह पुरा यथ मेदक्रांता कैसे दीर्घवृत्तमे पणीत कियाननिप्रभी उसमे समास मायः रटे छेरेरी हँ पर भाषाकी यह भणाटी भवभूतिके नारको नहीं वौखषडती घाण, श्रीर्षादि तदनैतरके कवि्येनि र्वे छ्ेवे समासोकीनो कृत्रिम रचन धरे धीर मचत की, वही उनमें नहां तहां दीख पडती है उसी भकारसे "मालतीमाधव, नाटकमे बीद्धमत्की। खियोको मधानपात्र बना, कापालादि घोर पथानुयायी रोगोका भी संबंध छाया गया है पर परसो कैसा स्षेध काछिदासके नाटकर्मे यत्कििव्‌ भी नहीं पाया नाता। मृच्छ काटिक' भ्रवोधचन्द्रदेय' नागानन्द, आदि नारको मोर दशचदुमारचरित' भभृति यथोम मात्र उस समयक छोगोकी दशका कुछ स्वरूप रक्षित होताहि। एताधता भवभूतिको काठिदासके समयका माननेकी अपेक्षा, उक्त गन्थ जेस समय हिखे गये उषी छागपर वह था.मानना अधिक सयुक्तिक नान पडता है इसके भतिरेक्त भवभूतिके नाटकोमें काटिदासके रथो अनुरुक्षितकर सिलखिहए जीर उन से शयेर कुछ शब्दभी पति नाते “मालतीमाधव! के दूसरे अंकर्मेः-

८कामंदकी जयि, सरे ! किमत्र भवत्यामया शक्यं फम्‌ ! भृमि मायः कुमारिकाणां ननयिता दैवं च। यच फिर कौशिकी राकन्तणा

भवभूति। ५९

दष्यन्तमप्सराः पुरूरषस चकमे इत्याख्यानविद आचक्षते, वासवदत्ता रात्ने सनयाय पिता प्रदत्तमात्मानमुदयनाय प्ायच्छदित्यादि तदपि साह सिक्यमित्यनुपदेष्टव्यकसपं सर्वथा 1" उक्त सेवादमं शशकुन्तरा! ओर `विकरमोवेडी) नारर्कोका तथा भेष- दूतादि' म्रभमसिद्ध वासवदत्ता ओर उदयन राजाका सेर्वेध छाया गया है सो स्पष्टटीहे। उक्त मथके नवम्‌ अंकमे माधव,मारतीके विरहसे कातर हभ प्रदात किया गया है इस अंकके विषयमे कई स्थार्नोपर एेसा भासित होता है कि, मार्नो फविने भेषदूत' गौर विक्रमोरवश्षी के चौथे अक्को अनु- कृतकर इसे रिखिा हो (महावीरचरित' के सातवे अकमेः- विभीषणः देव! क. [५ धुधोत पूरखं एतेतेसुरसिधुधोतहषदःकपरखंडोञ्ज्वराः गोरीग पादाजजैरभूजैवल्करभतो“गोरीगुरोःपावनाः'' * उसी अंके पुनः (सुग्रीवः # उः [+ नकैटको उत्खातश्चिभुबनकैरकोऽतिरप्य देडांचित 4 4 (~ दोदेडाचितमदिमाप्ययंनिक।रः

> न~ ~~

# काय्योसेकतलीनहंसमियुनासोतोवशमानिनी, पदास्ताममितोनिषण्णहरिणा ५गोरौगुरो.पावनाः

शकुंतला # उत्खातलोकच्रयकटकेऽपि संत्यप्रतिङ्गेऽप्यविकस्यनेऽपि त्वांपत्यकस्मतकटुपप्रदृ्तौ भ्स्त्येवमन्पुभरतामजेमे रपुरश्च १४।

५द्‌ सस्ङतकविपचक्

` देष्यार्चप्रतिश्चमितस्तथत्र्षपा निव्यूटाप्रशणविभीषणाभिषेकात्‌

मन॑नपृष्वेक यदि आरोचना कौ नाय तो हम समक्त हँ कि) उक्त केसी सदृशता ओर भी अन्यस्थलोपर उपरुन्धं होगी

उक्तं बिवाद्‌ हमारे पाठकोको बहधा अभीष्ट होगा, कितु पूर्वोचि- खित मनोहर आख्यायिकाके विरोधिभमार्णोको, नो उप्र मदर्शित कि गये ह, पट्‌ वे नितान्त हताश्च होनार्येगे क्या किया नाय इसकेखियि कोई उपाय नर है इस संसारमे सत्यता ओर मनेदश्ताकी एकच स्थितिका नित्य विधान नहीं पराया नाता; अतः जिषे केवर सत्यताकाही अनुधावन करना हो उसे अनेक प्रसंगो पर स।हसपवेक अपने परम भिय मत ओर नैसर्गिक वृत्तियोको भी पत्यभीत्यर्थं हटांनछि देनी पडती है अब कोर यह भश् करे कि, उक्त बात स्वी कैसी दिखनेपर भी उसे नई गदंत कैसे कह सकते हँ वा वह वेस ही मानलीनाय तो उसके र्चयिताक। क्या आमिपाय मानना च।हिये इसके उत्तरम हम इतना कहते हँ कि, यह बात केवर कारिदास ओर भवभूतिके विषयमेही, वा हमारे देशके विषय्मेही नही पायी जाती, किन्तु मनुष्यके मनकी स्वत् एेसीही परवृत्ति ईौख पडती फ, नहा कोई दो अतिविख्यात मनुष्य मैरे कि.किंसान किसी मकारे उनका मेर मिा दिया जाता है। दैवात्‌ यदि यह रोग बहुत पुराने रहै तो उनका गत्थमगुत्या कर्देनेवारोक। कल्प - नाशक्तिको बहुत कुछ अन्‌्ूहता माप्त हो नाती मनुष्यकी इस भरकर- तिसुलभ मनेवृत्तिका वर्णन सब देश्चोकी आययवि्याके कथासमृहो मे ( निन्द अंगरेनी मे 5५01०४7 कहते हँ ) बहुत उत्तम भकारका पाया जाता है बह इस प्रकार फि, जव मनुष्य अज्ञान अवस्थामें रहता है ओर कमः उसकी शदवरपदत्तबुद्धिकापु विकास हेन छगता ₹' चन्द सूर्यादि माकारोके ज्योतिर्मय पदाथ, वेसेही समुदः पवेत नर

` भवषभूते | ५७ `

नद) आदिकी ओर देखकर वह आश्च्थुचाकित होता दै, ओर उरुः चित्तम यह पूज्यभाव आविरभूत होता है कि, यह सव मेरो मोक्षा शष्ठ देवतागण हं। जनंतर षह अपने समस्त धर्म्म उनके विषयमे कल्पित कर उनके परस्पर सेध॒ नोडने खगता है इस प्रकारसे एकं बार आरंभ हो गया कि, पितृपुतरपसपरादारय उन्दी कथाओका विस्तार हो पूर्वोक्त कथासमूह बननाता हे दिद, यक ओर रोमनपभृति जातियोके प्राचीन कथासमूहोकि विषय प्रकृतिके भव्य एवे रमणीक पदार्थहौ पाये नति हः नौर उनकी परस्परकी तुना आधुनिक भाषाभिज्ञाकेख्यि बहा मभार एव रमणीकं विषय हजा है सारांश मनुष्ये यह मनोधमं निसगेदः वरिष्ठ रहता है ओर नामी ग्रामी छोगोके विषयमे सर्व॑साषारणमे निन बातोकी चचां हज करती हँ उनका भायः कारण यही कहा नाता है ' द्श- कुमारचरित संज्ञक यंथके कत्त दंडके कि, जिसका न।म पीडे एक दरोक मे आचुका है, ओर काष्िदि।सके विषयमे भी एक ठेसीरी बात कही भनी नाती है; प्रर वह भी पूर्वोक्त कारणोदारा केवर असंभवदी नहीं निदिचत होती किन्तु अम्रयोजनीय एवे ग्रामीण पमाणित होती है। # अम एक बात देशान्तरफी उदात करते भ्रीकरोगोके सुपसिद्ध तत्त्ववेत्ता सोन्‌ ओर भाचीन रिदिया देशके अमित धनसंपन्न एवं परम मभाव्शारी राना क्रीससके विषयमे इातिहासमे एकं अदधत बात मसिद्ध हे प्र आधुनिक इतिहासंरेखकगण यह कते है फि.शता्दीके हिसा- चरसे इस बातका मेरु ठीक > नही मिक्ता, इसी बातको मधानता दे उसके सन्बेमसिद्ध दोनिपर भी वे छोग उसे ममाणित नदी मानते इस मकारसे, इन सब ॒बातेकि विषयमे, यथावत्‌ मीमांसा करतीवार संस्छृत- भाषाके उभय कविनच्रूडामणिके विषयमे उनकी कटपनासषटिवतुरनातिमे उक्त चित्तवेधक आखूयाथेका परेपरासे चरी आयी तो इसमे आश्य दी क्या!

# दसय उषे आगे दटीके निर्वधमें किया

५८ संस्फतकविर्पचकं

जब व्येवणनानुरोधके कारण यहांपर्‌ एक परम महत्वकी बातक उद्टेख आव्रयक नानपडता वह यह कि, इस ॒पकारकी भास्या- यिका वास्तवे रहती तो असत्यही है पर असत्यतके .कारण वे त्याज्य नदीं हौसकतीं, वरन्‌ विद्वारनोको उचित है कि, वे भादरपृ्पैक उनका संग्रह करे कयाकि भरथम तो बे मनरेननकरनेवाी रहती रहै, ओर दुसरे उनके अयथा होनेपर भी उनमें यथाथताका बहुतांश वि - मान रहता है वह इस रूपसे कि, उनमें सम्ब॑साधारणका मत संक्षप रूपमे पाया जाता है उक्त भवभूतिषिषयक वात यदि सत्य होती तो मानदिन उसकी योग्यता इतनी बड़ी मानी नाती, पर बह निरो क्ट है इससे भागेके रोगोमिं उसकी कैसी चाह हई होगी, सो सहनहीमे अनु- मित हो सकता है यदि वह काङिदसके समयमं हा होता, तो निन रोगोने शकृतला' ओर ¶विक्रमेोषैशी' कौ प्रशा की, उन्दी छोगेने उत्तररामचरित' ओर 'मारतीमाधव' की भी प्रकंसा होती, इसमे कुछ विदेषता धी पर उप कविकेसरकि गजना रेष होजाने पर जब चारों ओर स्नाय छा गया, ओर छोगोको जान प्डने लगा कि; अब्‌ पुनः वैसी गनेनाका होना कान है, तव पहिले का स्मरण दिरने- वारे सुतरां उससे भी करी मचंड दृसरेकी गभीर गजना कणंकुहरमें पविष्ट होने डमी, यह बात वास्तवमें अधिक चमत्कारननक जान पड़ती है

कदाचित्‌ बहुतेर छोग यदह शंका उपस्थित करनेमें तनिक भी नं हिष्वकेगे कि,उपर कविने निनका नो परिचय दिया है ओर अपने सम- कारीनरोगोका अधिक्षप किया है वह्‌ उसे आत्मदाघाके दोषसे दूषित करता है प्र नेक विचारश्च कसनेपर तत्क्षण ज्ञात हो जायगा किःउक्त विचार सर्व्वथा यथार्थं नहीं है कवि आदिकोकी सुमसिद्धि भायः उनके परछोकयानी हेनेषर ही हथ करती है; कर्कि उनके जीवितकारमे उनक उत्कषक। देख नरनेवरे मत्सयंोग उनकी स्यातिके बाधक

"भवभूति" ५९

होनाते ह; सारज्ञ एवं निर्मरु बुद्धिवङि छोग बहुत थोडे रहनेके कारण वे ुर्णेका कुछ नरी करसक्ते रेस अवस्था उनका यथाय वृत्तात स्ख रखनेवारा उन्दँ कौन मिरसकता है ! यही नान चञ्चकर कई नामीरोमेनि आःमचरित स्वयं छिपिबद्ध कर रक्खे हे, उसी भरकारसे यदि ओर रोगभी कर रखते तो आन दिनि नगको कैसा अमूत्यरुमि प्राप् होता ! मानरो कि, संप्रति ईग्छेडदेशमे यदि किसीको शेक्सपियर कषिका स्वराचत सविस्तर चरित मिरुनाय तो उसे छेनेके शये सब देरेसि मांगकी कैसी धूम मचेगी ! तात्पये यह मचार यदि पूत्ैसे मच ज्तिहो नाता तो उस्केदार एकं ओरभी अनथ बहुत कु दूरहो जाता } वह्‌ यह्‌ कि, ग्रन्थोमें क्षेपक ओर अन्यङोगेकि विचार चोरी कर अपने कहनेको नेसा आन कुदरयथेरखकेको अवसर मिरुगया है वेसा उन्हें कदापि मिख्ने पाता इससे यही पतिपादित हभा दीखपडेगा कि, महान्‌ येथकररोके आत्मविषयक ठेख दूषणा नही किन्तुं वे परमेापयेशे हँ 1 अपर संस्कृतकं कवि ओर नाटक रेखकेकि नाम भायः उनके गरथोमि रिखिहुए पये जति हँ भुद्राक्षस' “मृच्छकटिक आदि नारकीं ओर कादंबरी प्रभृति कव्येके आदिमे उनके रचयेताभो का अत्मपरिचय बहुत वु पाया जाता है भतः एतद््थं भवभृतिको दूषित करना सवथा अयोग्य है ¡ # अब यह बात सच कि, काठि- द[सका नाम उसके नाटकोको छोड उसके अन्यग्रंथो्मेसे किसी ग्रथमें भी नहीं पाया जता ओर नाटकोरमेभी जो उसने पना नाम छ्खिा है सो केवर नाटकप्रणेतृगर्णोकी प्रथानुसारदी च्खिासा जान पडता है पर काटिदसकी तो बाती कुक निरारी थी उसके कार्व्येमि उसके निसगेनात जो गुण ज्ञरुकते रहँ उनम ॒शारीनता यथार्म

# इस विषयक अधिक विवेचना देखनी हो तो म॒न्क्षो नषल्किशोर शी) आई, रके मुद्रणाय रखनङ्से मदनुवारित "निषधमालाद्‌श्च' के मगाकर उसके “भमिमानः संत्ञकं छेखकफो पदियेगा |

६० सस्युतकविपचक

भरुख है; पर उसकी भणित प्रथमहसे सर्वमान्य होनानिके कारण शो- , भको माप्त होगयी यही कारण है कि, स्वयं स्वगुण वर्णनका अर्घ्य कमं उसे नहीं भोगना पड़ा भवभूतिकी अवस्था वैसी अनुकूरु होनेके कारण स्वयं निजकते गुण डिखनेके अतिरिक्त उसे उपा्यांतरदी था। वेसा यदि वहन करता ता उसका नाम टप हो उसके ग्रथ टुप्र होना- नेश भय था, इसी भयकं कारण कहौ समूचे दोक.कदी एक दो चरण ओर कीं केवट शब्दही उसने तीनो नाटकामें एकसे प्रयुक्त किये है, देषा अनुमान होता है सारांश इन दोनो कवि्ोकी तुरना करना ठीक होगा तोभी इसमे तनिकभी संदेह नहीं है क, ननमान्यताके संबंधसे गुणवान्‌ छोगोकी नो अत्यंत भिन्न दो अवस्था होती है उनके उक्त उभय कवि उक्कृष्ट उदाहरण है; ओौर दोनोभी विषेदातासंपन्न होनेके कारण चित्तम धारण करने योग्य हैँ अपनी सहन सखर्ओदारा वशच- हर युवा परूषोको देख संदर युवतियोका सज नीचे निहारना जेस चिन्तको मोहैत करता है, वैसेदी अभकोका आत्मविषयक अनादर देख उनकी भोरको तत्कृत तिरस्कारका कटाक्षपात कया मनोहर दोगा ! भवभूतिके नाम॑से केवर"मारुतीमाधव महावीरचरित' ओर उत्तरराम- चारेत' यही तीन नारक परसिद्ध है यही तीन उसने ट्स, वा जितने टिखे उनसे यही तीन अवशिष्ट रहे; इसका इतःपर निदरचय होना मायः असेभवही पर इसमे तो अणुमाजभी संदेह नही है कि, यह तीनों उसकी छिखि हए है कयोकिं थम तो उन सबमें उसका नाम पाया नाता है,जर दूसरे शे अभी फी चुके दँ कि) उन समे कुन कुछ दोकादि एकसे उपटन्ध होते है यहां पर यह बातभी सहनी उत्पत हो सकती हे कि, भवभूतिने काट्दासकी नाई कान्यभी छ्तिहेवा नही पर इसकाभी निर्णेय करना प्रायः उप्र कैसाही दुःसाध्य हे तोभी 'मारूतीमाधव' नाटकके भारभ सूत्रधारफे भाषणे भवभूति- नामा कर्वििसर्सोहदेन भरतेषु वर्तमानः) ( भवमूति नामका कवि नि- सका कि, हम नाटकटेखकोसि निसर्गनात सेह पाया जाता हे ) यहं

' भवभूति ( ` ६१

नो भयुक्त कियागया है सो इसका यदि कु विरेष अभिभाप हा तो हमारे कविकी नारको की ओर प्राकृतिक मवृत्ति थी एेसा मानानाकर उक्त वातका अंशतः निषयेरा ह्यो सकता है; वेसेदी पिठ ती उसक नाटकोकी सर्वथा अवन्ञाह। हरं पर आगे कुछ काठके अनंतर वही स~ वोपरि निदिवित कयि गये, इससेभी स्यात यह अनुमान हा सर्क्तार कि, भवभतिका चिन्त सवभावतः नाटकोकी ओरदी भकृष्ट थाञ।र उत्का समक्त वद्धि इसी ओर व्यय हरईसी दीखपडती 1 अस्तु, तो अतम यह घात सशयात्मकरी रहती

"'मारतामाधव " नाटकको अपर दोनो नारकोकी नाई पुराणांतगेत कथाका आधार नही है, उसकी आख्यायिका केवर केविकटपनाकी सृ है अगे उसका सारांश टछ्खिा नाता भूरिवसु आर रवसात नामके दो मित्रथे गुरुगृहपर जव वे विया पठते थे तव उनका यह्‌ पिचार हआ किं यदि अपनेको छडका छ्ड़की हई तो गपनङग उन १्‌- रस्परका विवाह करेगे आगे कुछ काठके अनंतर भूरिवसु पद्मावतके रानाका भधान मजी नियुक्त किया गया 1 ओर देवरात को भी विदभं देशके अधपिपतिने अपने मुख्य मंतरीका पद प्रदान किया देवात्‌ उनकी मनोकामनाभी पणे हुई, अथौव्‌ भूरिवसुके यहां मारुती नामकीं कन्याने नन्म ग्रहण किया ओर देवरातको माधवनामका परतर प्राप्न हभा यही दोनो वत्त॑मान नाटकके नायका अर नायक है दोनोके वयस्थ रेनिपर पूव्वसंकस्पानुसार उन दोनोका विवाह होनेवाखा थाः पर बीचहीमे एक ओव्ित्य आपत्ति आपडी वह्‌ यह्‌ थी करि. पृद्यावतीके राजाका नंदन नामका एक प्यारा नमंसचेव था उसने रानकेद्वारा मारतीकी सगाईकेखिये उसके वापसे बातचीत रगायी। इस वातचीतकी गंभीर चितके कारण भूरिवसु किकत्तेव्यं विमूढ हो गय। पर देसे संकटके समयपर उसकी पूर्वी गुरुवहिन कामेद्कीने, कि निसकं सामने वे दोनो अपने अपत्योदाहकेलिये वचनवद्ध इए थे, उनके

दर्‌ सस्कृतक्विर्पचक उक्त कास्यका भार अपने सिरपर छे, बडी चतुर।ईसे उसे संपादित क्रिया। उसने अपना अंग बचाकर अपनी दासीदारा मारुतीमाधवमें मेम अंकु- रेत करादिया फिर एक दिनि योह मारतीकी रफ ओखेसे जा बात- चीत करते करते वहां माधवकी चर्चा छेड़ भसंगवशात्‌ उसके गरणोंहा वणेन कर उसका कुखवृत्तांतभी उसे सूचित कर दिया उस वृत्तांतकों सुन, माधवकी कुरीनताके विषयमे माछतीको जो संदेह थासोदुर होगया, ओर तद्विषयक उसका पृव्वौनुराग सुषद हो गया ओर दुसरे वर नन्द्नेफे विषयमे द्वेष उत्पन्न हो उसे शका होगयी कि, मेरे पिताकी दृष्टि केवर निनके स्वार्थपरदी है अगे उसे एेसे कुछ ठेग॒दीखपडने लगे कि, नंदनके साथ उसका विवाह हो माधवका मेम उसे जन्मभर हद्यशल्य होगा माधवकोभी उक्त आार्भगके कारण सब नगत्‌ शून्या भासित होनेटगा इधर दोनों ओरसे विवाहकी सब तैयारी ६३; पर इतनेमे चा्डोप।सक कपारकुंडला, भपने गुरु अधोरषंटकी मंचक्ष- द्िकेशियि बरिमदानार्थं, मारुतीको भाकाशमागंसे उठा ठेगयी वह्‌ अपने महटमें जटारीपर सोयी थी, ओर अब जागृत होनेपर उसने अप- नेको बहिपरदाना्थं सिद्ध की इई पाया अपनी उक्त भवस्थाको सहसा देख वह बडे नोश्से चिह्वाकर रोनेरुगी माधवं निराश एवं उदासीन हो मरषयमे फिर रहा था सो उसका वह रोना उसने सुना।उस करुणोत्ा- दक सुद्नध्वनिको सुन माधव सीह चामुंडाके म॑दिरमे जा पचा, भर उसने अषोरवंटका वध कर माछृतीको प्राणदान दिया इतनेमें उसके गिनिके यहांभी उसके अदृष्ट होजनिकी बात विदित हो) रोग चार्यो भार उसे दूटनेकेष्यि दौड़ रहे उसके उक्त मदिरमें प्राप्न होनेपर फिर विवाहकी तैयारी होनेरुमी कामेदकीने माधव ओर उसके मित्र मकरंदको ग्रामदेवतके मंदिरमे चिपाकर उन्हं कह र्खाथा कि, देवीके द्वीनेकिरिये मारुतीको वहां छागी तदनुसार बडे समारोहके साथ मारती वहां खायी गयी मेदिसम ना माठती अपी प्रियसखी ठर्वगिकाके गङे छग माधवके गुण ओर उपकारका स्मरणकर रोने खनि

भवभूति धर

ओर भाणविसर्जनाभे अनुमोदन देनेकेलियि उसकी भर्थनाकर वह उसके पोर्ओपर गिरपडी 1 इतनेमे र्ेगिकके ईगित करनेपर माधव उसंक स्थानमें भा खडा हो गया माल्वीके ने सश्च हेनिके कारण उसे किसी प्रकारका संदेह नही इना अंतमे माधवको छवंगिकारी नान वहं उसके गे हिपट गथी, ओर उसने अपने मनकी सब बात उसे सुना दी, ओर माधवकी गुही इदं श्स वकुरुमाखके मारतीके जीवनक सहदार्म नान अपने हियेत्ते लगारखनेकी परर्थनाकर उसके गेम उसने वह्‌ मारा पिय दी पर उपर देखतेही माधवको पह्‌- चान, सभय रनित हो वह पीठे हटगथी 1 इतनेमे कामंदकी भीतर आयी ओर उसने उन दोनोको गुप्तमागंदवारा अपने मठपर ननेकी अनु- मति दी वहांपर उसने अषरोकिता नामकी अपनी चेरीद्वारा विवाहकीं सब सामग्री पूर्वहि सुसन्नित करा फलीधी। इधर मारुतीके सब कपडे गौर जकार मकरंदको परिरा कामेदकी उसे भूरिवमूके यहा छे गयी, ओर किसी को तनिकभी संदेह होने देते उसने उसका नेदनके साथ विवाह करा दिया।मद्यन्तिका नामक नेदनकी एक बहिन थी,वह्‌ प्रथमरीसे मकरन्दपर आसक्त हो गयी थी, ओर नवस उसन उसे व्याघ्रके आकमणस बचाया था तवसे तो वह्‌ उसके भेमकी भिखारिन बन गयी थी 1 उसकी ओर मकरन्दफी भटभी इसी भसंगपर उसने बड़ी दक्षतसि करा दी अनेतर पवेसंफेतातुसार वे दोनों भीर ख्वंगिका तथा कामेदकीकी दृसरी चेरी बुद्धिरक्षितारेसे यह चारों नन, जआधीरातकों जब वहां चारो भरे सन्ताय छा गयागुष्भावसे मठकौ ओर चरे गये पर मागेमे नगररक्ष- कनि उनके नानेमे बाधा उपस्थित की, तव मकरन्दने उन तीनों लियोको, माधवके विकर करुहंसके साथ माधवके निकट भेन दिया ओर आप अकेखा उनसे रुडता रहा आमे माधवने नब वह समाचार सुना तत्क्षण वह मी अपन मित्रकी सहायताके लिये मया उन दोनोने नगररक्षक अधिक होनेपरभी उन पराजित कया उनके उस परकमके। देख रानाने उन्दे बहुमानपूवैक बोराया, भीर उनका सबं

६४ संस्कृतकावेपचक्‌

£२,।.तं सुन, उमकी इच्छाटुस.र सव कायं करना स्वीकृत किया इस भक्ते रानसत्कार माप्तकर वे दोनों भित्र कामन्दकीके मप्र गये-पर वहांजा उन रोगेनि माटतीको पाया क्योकि, ठ्गिकादि उसफी सखियोको उससे किचिद्‌ दूर देख कखकुण्डटा उत्ते अचान- फं उटा छे गयी थी; जोर माधवसे बदरारेनेफे अभिमायसे बह उसका करनेकोही थी कै,उतनेम कामन्दकीकी एक पुरानी वेी सौदामिनीने, कि; जौ उस श्रीपवतपर तप कर रही थी, उसके मराणोकी रक्षाकी। इधर माधव उसके विरहदुःखसे कातर हो अपने भितच्रको साथ छे उसके शोधाथं वनोवन भ्रमण करनेरुगा किस्ते फिप्ते विरहव्याकुर हो वह्‌ सू(च्छत हो गया, मिघकी उक्त दुःखदं अवध्थाको देख एक पर्वतकी ्ोधेपरसे कूदकर भाणविसनेन करनेके लिय मकरंद प्रस्तुत हृदी धा फ, उतने सौदामिनी वहां योगवछुद।रा मादुभूत हई ओर मारतीके जीवित रहनेकी पहिचान जो बकुरपुष्पमाला थी उसे दिखाकर उसने उ्तकौ सत्वनां कौ; इतने अवसरमे शीतर वायुके स्पदोसे माधवकी मूच्छोभी टट गयी, मृच्छ।के टटतेही उन्माद्‌ अवस्थाके कारण कृतानि ठो बह वायुकी पार्थना कसनेटगा सौदामिनीने यह अवसर उचितनान वह यकुरपुष्पमारा उसकी अनकीमे छोड़ दौ माधवने उसे तुरतदी पहिचान छिया ओर तद्वारा उसेधै्यं भप्त हभा। आगे सैदामिनैने मरगृढ होकर उन दोनोको माछतीके समाचार सुनाये अंतमे काम- दक, भुरिसु ओर ख्वंगिकादि मारतीकी सख्यां; मारतीकी कहीं येह टगनेके कारण नितांत दुखित हो गयी थी, उनकोभी सौदामि- तनि आश्वासन दिया जर माछताका भट करायी 1 तदनतर आनंदमग्न हो सव छोगेनि वधूषरोका विवाहोत्सव मनाया

यही इस नारका संविधानक अर्थात्‌ कहानी है दै तो यह बहुत सनी चौड़ प्र सायही सररूभी है बहुत घुमान फिरानेते जसे किसी विषयके। नटिरुता प्रा हो नाती है सो बात इसकी नरै है; इसकी भूटन्‌। एसी चमच्तिजनक एवं चित्रमिव होनपरमी इसके कपा

भवभूति ६५

सूम यव्‌ किचित्‌ उनता नहीं देखपडती आधार स्वरूप कुक होनिपरभी भवभूतिने एेसी रोचक कथा रची, इससे बोध होता कि, उसकी कटपनाशक्ति बहुत पचंड थी ¶सके सिवाय कार्पािकपथानु- यायो दो पर्रोकी नाटकमे योननाकर उसका मेर आख्यायिकसि वहु- तही उत्तपतया मिङाया है ये सव वाति उसकी चतुरताका पू्णरूपते प्रस्विय देती पाकि भिन्न स्वभार्वोकी विचित्रता स्पष्टरूपसे भदृित करनेकी रीति संस्कृत नारकोमेही नहीं सुतयं संस्छृन क- वितामातमें कम पायी नाती है; ओर तो क्या पर नारकमिं वेणीं हार, ओर काव्येमिं ' महाभरत अतिरिक्त उक्त गुण किसी काव्यपे करीभी पू्णरूपसे दृष्टिपथे नदी आता ेसा कहना स्यात अनुचितं सा- हस कहा नायगा वत्तेमनि नाटकमेभी वह गण वैसा कुछ विशेष नहा हं; पर तोभी परव्येक पत्रमे उसकी भिन्न > अवस्थानुसारनो जा गुण रहने चाहिये वे उक्कृष्ठतापूर्व्वक मर्दित क्यिगये माधव ओर मकरदकी शूरता जीर प्रस्परका स्नेह, म।ठुतीके स्वभावकी गभीरता एवं कुाभिमान, रवगिका, बुद्धरक्षिता ओर अवछोकिताकी प्रबचनप- टतः, कमंदकीकी मौदता मोर राई, अघोरषेट ओर कपार्कुटराकी निदुरता, मभृति सब गुण इसमें पूर्णरूपमे पयेनाते है इसका भध्‌ःन रस परायः भगार जानपडता है, तौभी अन्य नाटकोमे वह नितना स्प ओर उदाम पाया नाता है उतना इसमें पायानाता इसमे दह निस ठेगका पायानाता है वह बडा गभीर एवं ग्रोद हे इसके उदा- हरण स्वरूपम आगे एक दो बाते छख नाती दहै प्रथम अंकांतीत मदनोद्यानमे मारुतीके दृष्टिपथमे आनेके कारण माधवका कामात हाना जोर उसका समस्त वृत्तांत मकरेदते कथन करना; अगे ख्ये अकर्म मारुतीका करुणाग्रावित हो ख्वेगिकाको भरांतिसे माधवे गले छिपटना ओर अनन्तर उसे देख रुज्नित होना, वैसेरी आरवेके आदिकः सुभरीद्‌र श्रंगारका चुटकुला आदि आदि प्र इन सबकी अपेक्षा पन्पि भ्म कविने अपनी चतुरताकी पराकाष्ठा मद्षित कौ है; उपमे भया-

६६. संस्क्तक विपंचक

नक अद्धुत, वीर ओर करुणादि भिन्न भिन्न रस अवदय एकनित हुए रै। पर उनमे श्रुगारका जो अंशा है वेह उदात्तरूपर एवै अत्यन्त शुद्ध है समे अणुमात्रभी सेदेह नहीं रै कि) भिन्न भिन्न रसोकी एेसी एकात्मता बहुतरी थोहे स्थानोपर मिरृसकेगौ माङतीका विवाह जब नेद्नके साथ निरिचित हुजा तब माधव निराश्च हो गया, उस समयकी उसके मनकी अवस्था, ओर वेसेदी कपारकरुण्डरके मारतीको उढा छे जानेपर विरहके कारण उसे नो असह्य दुःख हज जादि प्रसंगोका वणेन अत्यन्त नूटी उक्तिद्वार उकृष्टतया किया गया है।इस नाटकमे वैभत्सरसकाभी एक सुमसिद्ध उदाहरण पायानाता है वह यह कि, जव माधव सायंका- रके समय हताश हो मर्ध॑टमे फिर रहा था तव भूत मर्तोकी नो डीराए उसके दष्टिपथमें आयीं, उनका तत्कृत वर्णन है कहनेका अभिमाय यह है कि, कविने भायः सब रस इस अन्मे गठित कि है, ओर उनका परिपाकमे वेसाही परमोत्छरष्ट बना है वौचवीचरमे करीं कदी कुछ वर्णन आगये हँ सो वह भी बहुत सुन्दर है, ओर विशेषतः नवम कमे सौदामिनीने आकाशमार्भसे याजा करतीवार पदमएरनिकयवरतिनी वनश्रीका नो वर्णन किया है वह बहुतही बहारका है इस नाटकमे रचनाक्ते सवन्धसे एक बात विरपरूपसे ध्यानमे रखने योग्य है, क्योकि, वह भपर थोडेही अन्यो पायी नाती है सर्छृतके कान्यनि- यमपरधानयन्धोमे यह नियम नदी पायानाता कि, नाटकमे इतनेही रहने चादि, अतः अंगरेनी नाटकोकी नाई सदा उसमें पांचही अक नही रहते किन्तु कीं कही वे दश पयन्तभी पायेनति है वही बात व्त॑मान नाटकमेमा पायीनाती ह; ओर उसके भपर्‌ दोरनो नायकेमिं रहकर इसमे रहनेका कारणभी स्पष्ठरी है।वह यह क्रि, इसका सविधा नक ( कथासूज ) बहुत रम्बा होनेके कारण सात जाठ कोम शेष होने योग्य था। पर तभी यह नाटक यदि चछा जाय तो जान पडता है कि, उसकेल्यि ओर नाटकोकी अपेक्षा जधिक समय रुगेगा, कोक, उसकी पृषठेस्या अपर नाटकोकि इतनीही ६। ,

भवभूति ६७

“महूवीरवरित' माटकफ रामायणकी सरवेप्रसिद्ध कथाके भाधारसे रचा- गया है } तीभी उसकी आख्यायिकाकी अपेक्षा उसका संविधानक बहुत ही निरा देगसे बांधा गया है; एतावता वह अगि संकषषरूपते शिखा जात्‌ हे विश्वामित्र दश्चग्थरानके यहां जा यन्नवित्ननिवारणा्थं राम कष्मणको अपने आश्रमपर ले अयि यज्ञोत्सव देखने स्यि जनक रजाभी निमन्तित कियेगये थे, पर उन्दँ अवकाश मिर्ेके कारण उनने अपने भारं कुशष्वन ओर कन्या सीता एवम्‌ उरम्भिखाको वहां भेन दिया था। इसुभकारते आदिमे इन दोनो गनकुमार ओर रानकुमा- रिर्योका भेट हई इतनेमे याणका भेनाहुभा एक राक्षस सीताकी मेगनीके अये कुशष्वन ओर विरवामिच्रफे निकट जया उसकी स्वागत पञ उन रोगन उसे वहां वेठनेको काही था कि, उतनेमे ताडकाका भीषण शब्द्‌ श्रवणगत होनिर्गा तव विदृवामि्रकी आज्ञानुसार श्रीरामने तत्क्षण उसका वध किया तदनन्तर कृश॒ष्वनकी आज्ञासे शिवजीका धनुष वहं छाया गया श्रीरामचन्दनीके उसे तोडनेपर उन दोनों ख्ड कियकिा यथाक्रम श्रीराम स्ष्मणको दिया जाना निक्चित हुभा इस सव घटनाको देख गक्षसनाथ रावणका भेजाहुभा दूत भयचकित ओर निराश्च हो रकाकं रोरगया ओर वहां पहुचनेपर उने वरहमका समस्त वृत्तान्त रवणके पितामह एवम्‌ अमात्य माल्यवानको कह सनाथा 1 उसके सुनतेही वह गम्भीर चिन्तामे म्र हो गथा; ओर तवसे रामका घाते करनेके स्यि वह नाना भोततिके उपाय ओर पमरयल करनेख्गां मथम वह महन्द्रदीपको गया ओर वहां उसने रिषकोदण्डका सव वृत्तान्त परणुरामको सुनाया, ओर रामसे उसका बदरा छेनेके ययि उन्हे उत्तेनना 8 परशुरामभी परम कद्ध हो मिथिरानगरीको अये। उनके वहां भनेपर रामसे युद्ध कनेक स्यि विदवामिच खीर वसि- मनि उनकी बहुत प्रार्थना की, प्र उनने अपना हठ छोडना चाहा यह देख राना जनकके पुरोहित शतानंद बहुत कुपित हए, ओर दोनोका बाद्विवद्‌ हो शतानंद्‌ परणमकेो शपोद्कदारा भस्म करनेकोही थे

६८ संस्कछरुतकविपेचक्‌

कि, इतनेमे राजा द॑शस्थने उनकी रक्षा की आगे स्वयं रामने युद्धके- छिये पणयरामको बोखाया ओर दोनोंका दंदयुद्ध होकर परश्चुराम परा- नित हए इस भ्रकारसे मास्यवान्‌का पहिला मसूवा नब व्यर्थं ह्‌ गया तब उसने दुसरा मंपूवा किर बांधा वह इस मरकारसे कि; शरुपंगखाको मथराके शरीरम पविष्ट करा, तद्रारा रामको बनवास करानेके लिये कैके- यैकी बुद्धि केर दी, ओर किध, खर दुषणमभृतिको रामका नाश कर- नेकी जज्ञा प्रदानकर कपिरान वारको अनुकृठकर उसेभी वही बात नता दी इधर परजुरामजीने शखसंन्यास किया ओर दंडक।रण्यनि- वासी य॒निननोकी रक्षका भार रामपर रर्मषितकर, जाप तप करनेको चले गये रामनेभी उसका परम हर्षके साथ स्वीकार किया, ओर उसके योगसे कैकेयीपदनत्त बनवासका उन्हें अणुमात्रभा दुःख हु देडकारण्यनिवासी खर ॒दृषणादिके क्धके वृत्तां, ओर सीताहरणआदि नटायु ओर संपातिके सवादमे सूचित क्यिगये हँ जने सीतन्वेषण- तत्पर राम लक्ष्मण अरण्ये जन भ्रमण कर रहे थे तव विभीषणकी भेजी हई श्रमणा नामकीं एक खी उसका पत्र लेकर उन्धं मिरी इस पत्रमे विभीषणने रामकी शरण चाही थी रामने उसका स्वीकार किया ओर उससे नानकीके समाचार पृे, उसने उत्तरमे निवेदन किया कि, सीतनि एक वख नीचे डाल्दिया था उसे सुश्ीव विभीषण जीर हनुमानादिकोने आपके स्नेहके कारण पने पास.रख छोड़ा है। इस वात्तके नानतही वे दोनो किष्किधानगरीकी ओरको गये। आगे राम ओर वाछिका युद्ध हा ओर वासन अपने भराणोत्रमणके समय सुरी ओर भं गदको राज्यायिकार दे अथिसाक्षिक राम ओर सुकंठकी मित्रता करायी

इसके अनतरकी छकादहनादिं घटनाए नाटकं सम्मदायानुसार कर पट्देके पिके ओर कदं पात्नोके संवादादिमें सूचित कौ गयी है, ओर षोरथु-

दधका वर्णेन इन्द्र जोर वित्ररथके परस्परालापके छलसे किया गया

अन्तिम अर्थात्‌ सातवे अकम पिरे छंका नितान्त शोकाकुढ होकर

जाती ओर अनन्तर अदका अर्थाव्‌ यक्षश्वर कुवेरनगरीकी जधिषठात्री

भवभूति ६९ आकर उसकी सांत्वना करती है अन्तमे पृष्यकविमानारूट्‌ हा राम सीता रक्ष्मण ओर सुग्रीव विभेप्रणादि अयोध्याकी ओर मस्थित होते हँ ओर मागमे राम भूतपूर्वं भित्र भिन्न षटनाभोका वृत्तान्त सीतासे कहते जाति हे रामके अयोध्या पहंचनेप्र भरतभेट हो उनका राज्याभेषेक हज है

उक्त संविधानकद्धारा यह बात रक्षित होती है कि, रामायण वत्तेमान नाटकका आधार केवर नाममात्रको मामी जा सकती है, पर वास्तवमें उसकी समस्त स्वना कविकलितहि है रामायणकी कथा ओर वेत्त॑मानं सविधानकमे पहिछा क्डाभारी भेद यह्‌ है कि, यद्यपि परशुराम तथा वारे रामका युद्ध ओर वनवास्रादि स्वतन्त्र घटनाएं हैँ तथापि कर्विने यापर यह वात कतित कौ है कि, उक्त घटनाएं मात्यवानूने कपटपुवैक कराध हमारे चतुर काविने एसा क्यो किया इसका कारणमी विवेकी पाठकोको ज्ञात हही चरका होगा वह यह्‌ है फ, ऊपर कैसी बातें कित- नीहि आधिक हा तौभी उनका पृथक्‌ वणन काव्यमे निहित होसकत। प्र उनके परस्परस सम्बद्ध रोनिके कारण, ओर नाटकके मुख्य पयेवसानकी ओर नेसे यहां रामरावणयुद्ध-उनकी गति बिटकृरु हेनेके कारण, वे नारक्मेँ अधूरी दीख पडती है, ओर इसके योगसे नाटकके प्रधान गुण वस्त्ैकताका # भंग होता है इसी भकारफे ओर दूसरे हेरफेरभी जो कविने कयि वे सव युक्तियुक्त है ताडकाको देस विद्वामित्र इर गये, रावण रिवधनुषकी भरत्यश्चा चदाती बार उर्टकर गिरपडा, प्रद्यरमको छद्ध देख दज्ञरथराना भयभीत इए इव्यादि वातोसे मनको भ्रस्ता नदी नानपडती अतः कविनें उनका रोप कर एक निराखीदी रचना रची है परडुरामका स्वभाव जैसा कुछ निदैय एवं अव्यु मदरित किया नाता रहै $ीक वैसाही यहा नहीं

% ( प्राक्त ^ तणा ) नाटकके सषिधानकमे जो कृत्य रहूते उने नारककती परिभाषामें व्वल्तु) कते ३, उ्की एकता अर्थात्‌ समस्तभगोका परस्पर का मेल)

७० संस्कृतकविर्षग्यक

भद््दित किया गया है किंतु उसमे थोड़ीसी सौम्यता स्ञरुकायौ गथी है वैसेही वारी ओर सुयीवका वैर, उसरमेभी परिटेकी उदंडता, ओर उसके साथ रामका कयटव्यवहार आदि वातोका इसनाटकमें कही पतातक नहीं ख्गने पाता सारांश नाटकम्रणेतृशणोकी मथानसार भवभूतिने संबिधानकको चमलत्छृतिननक करने तथा पाकी उदात्तशीषठता मदत करनेके हेतु रामायणकी मृटकथाफो अपनी आवरयकतानुसार हुत स्थाननोपर परिवर्तित किया

इस नाटकके नामके अनुसार इसमे वीररसदी पधान पाया भाता है; जर आदिमे समभ्यपेक्षित गुणोंका वणैन करताहृमा सूज्धारभी बही बात कहता है |

महापुरुषसंरम्भो यत्र गम्भीरभीषणः

प्रसन्नककैडा यत्र विपुखथां भारती

अप्राकृतेषु पत्रेषु यत्र वीरः स्थितो रसः।

भेदैः सृष्षमेरमिन्यक्ते प्रत्याधारं विभज्यते

अभिनीत दहोनेवछे इस अगे नाटकमे महापुरूषोकी गंभीर एवं भयावनी उमता म्रदोशित की जानी चाहिये; आ।१ स्पष्ट एवं उदाम रहने चाहिये, पात्रगण उच पदस्थित रहने चाहिये ओर उनम वीररस जागृत रहना चाहिये, वह इतना फि, निस पात्रको जितना भवद्यक ओर शोभाप्रद हो

उक्त भस्तावनानुसारदही उसमें सष गुण पये नाते हं करी कीं थोडेसे स्थरोपर मात्र भरंगाररस ्ञखकता है इसके सिवाय अपर कोई भी रस ' महाषीर ` चरितमे बहुधा नही पाया जाता कहना स्यत अयु- क्तिसंगत समक्षा जायगा |

इस नाटकके पा्ोके स्वभावेोंका यहांपर वणित होना आवदयक नी है: क्योकि वे सरन्मसिद्धी है पुराण वा इतिहासमसिद्ध कथाके आधा

अवभूति। ` ७१ रसे नाटक छिखनेवरेको यह बात स्वयंसिद्धदी मिखती है किं, पाठक षा दके चित्तमे उन्दँं नो वृत्तियां मदुर्भूत करण्नी पडती हँ वे परि- लेषे दी उनमें सिद्ध पायौ नाती हँ उनको केवर इत्नीरी बातक्रा ओर ध्यान देना पडता रै किं, संविधानक अप्रयोनक रीतिसे नोडा जाकर वा पा््ेकि संवाद्‌ अशेभापदं टिखे जाकर मूर कथाकी रसहानि होने पवि उसमे उक्त चतुराई होनेके कारण वह उस बातको सुधार भी सकता है; ईस अंतिम बातको वत्तेमान नाटकमे .भवभूतिने कहां कहां ओर किष किस भकारसे सुधारा है सो अभी पीछे उष्टिखित रोही चका है सारांश यह्‌ नाटक कविकी इच्छानुसार उन्छृष्ट चन भी गया है अतः इसके एकं भागको उत्तम भौर दसरेको अनुत्तम कहना युक्तिसं- गत नही देख पडता 1 तथापि थोडेसे स्थरोका किचित्‌ सविशेष वर्णन- आवर्यक जानपडता दै 1 पांचवे अक्के आदिमे नयायु ओर संपात्िका मेश; वैसेदी भंत्तिम अंकके राम सीतादि मंडङी पुष्पक विमानमे वरेट- कर सूर्थमण्डरके सन्निधि गयी ओर भूतपूव वृत्तांतस्मारकं दंडकारण्यसे हेतु अयोध्याको छर आई, यह दोनें वर्णन भ्य एवे उदात्तर- सगित है छठे जंकमे सीताकेछयि उत्कंठित हो रावण आया है; फिर मंदोद्रीको आतीहूयी देख उरुन अपना मनस्ताप छिपाया, ओर तत्क- यित सेतुबंधनके संबादका उपहास कर उस आश्वसित किया अगि उसके सेन्यपति रस्तने आकर रामके सैन्य समुद्र पार आकर टेका- पर आक्रमण करनेके समाचार उसे दो बार सुनाये पर उसने भमत्तताके कारण कुछ भी नही सुना, इत्यादि बाति बड़ी चतुराद॑से खी गयी ह। उनसे राणक गवे, सकट विषयक सोन्माद जनास्था, भर अप्रासंगिक कामातुरता आदि खचितहुईसी स्पष्टरूपसे दष्टिगत हती है

# संस्कृत वा भाषाके किसी प्राचीन वा अर्वाचीन रसम्रन्थप्रगेताने प्डदात्त' नामकः रस वणित नक्ष किया है } "उदात्त" नामका रस माननेकी सम्मति केक्ल स्वगेवासी पण्डितः पिष्णकृष्ण चिषङ्णकर श्ाखीनेही प्रकाशितकी

७२ संस्कुतकविर्पचक

भवभूतिका तीसरा नाटक उत्तर रामचाेत है यह पिले दोनोकौ अपेक्षा अधिक मिद्ध ह, ओर कोई कोई तो इसे सब संसृत नाटकेमे उत्तम मानते रै काछिदासके विषयमे इस नाटकके सेधत जो भास्पा- थिका परपरास चछा आती है, वह अभी उपर उद्धिखित हेरी चुकी ह, तद्रा भवभरूतिकी से्कृतज्ञ मडरीमे जो मान मान्यता है सो स्पष्टरूपते रुकषित होती यह नाटक पिचले 'महावीर चारेत, के उत्तराद्वके रूपमे है पिष्लेमे रामायणकी कथा रामके राज्याभिषेक परयत पायी नाती है, ओर इसमे वह बहधा अंत परयत वर्णित है, पर इसमे भी "महावीर रित" की नाई मूकी अपेक्षा वहूतेरे स्थानों पर हेरफेर क्रि गये हैँ वे निम्न छिखित संविधानकदारा सहनहीमे छरक्षित हो सकते हे रामके राज्यारइ होनेके अनेतर कष्यशरेगने द्वाद वार्षिक सतर करना भारम किया ऋष्यशरङ्ग रामकी बहिन शांताके परति थे इनके आर्मत्रित कप्नेपर रामकी तीनो मा, वशिष्ठ, अर्धती आदि रानकुठगुर्‌ उनके यघ्ं गये मिथिलानरेश्च जनकजी राम भौर सीताकी भटके भा; अयोध्यामे कई दिनोसे के हृएये, वे भी इसी अवसरपर भिथिछाको छट गये उनके बियोगके कारण नानकीको लिन्न देख उनके मनोर सनाथं रामने अपने समस्त भूतपूव वृ्तातोंका चिचरपट भस्तुत करनेके- छ्य रक््मणको आज्ञा दौ उसे छेकर रष्मण भये, ओर उसके चित्र ये यथाक्रम दिखा रदे थे कि, रामको उन उन वटनाभेकि स्मरणदाय पवाहुमूत हष, विरह ओर शोकारिं मनेृततरयोका एकवार पुनः अटुभ भाप् हुमा उक्त चिनपरको देखते देखते दंडकारण्यकी वारत्तातक नव आपह, तव॒ रामको नानकौके वियोगका स्मरण अजसद्य हू/ उनने टश्मणके ठरहनेकेख्यि कहा उस वित बनशोभाको देस, सीताका गवती होनेके कार्ण इस बातपर जी चा कि, भागीरथीके पावन कूरुस्थ वनम रहना चाहिये सीताक उक्त इच्छा पूणे करनेके हेतु रामने टद्मणको स्थ भसतुत करनेकी आज्ञा दौ छषेमणके उष्‌ चे जनिपर साता विन्रद्ीनसे परशरांत रामका हाथ उससे ठे सोगयीं इत.

भवभूति

नेमे दुर्मख नामका रामका गु्वात्तहर वहां आया -उसे रामने पडा कि, छोग हमारे विषयमे क्या चचौ करते है तव उसने सीताविषयक भयावना ननापवाद उनके कानमे का। उसके सुनतही राम मूव्छित हो गये, पर शीघ्री उनकी मृच्छौ टृटेनेपर निरपाय होनेके कारण उनने सीताको वनमे छोडदेनेकेश्यि निदचय किया ओर इस हृदयदाही विचारकी दभुखद्ारा गप्तभावपूव्यैक उनने रक्ष्मणको सुचना दी इसके अनेतर अगछा बहुतसा वृत्तांत-अथौव्‌ स्वयं गगाका कुश छव युवकको वारमीकिके आधीन कर देना, ब्रह्मासि वर पा आद्य कविका रामायण पणीत करना; वसिष्ठ, अरुधती, भोर रामकी माता आदिकोका सरस मापिके अनेतर बात्मीकिके आश्रमपर आकर कुछ कार्रो उहरना, रामका अदरवमेध भारभ कर घोडेको डोडना ओर उसकी रक्षाकेध्यि क्ष्मणके पुत्र चन्द्रकेतको नियक्त करना, ये सव॒ वाते जनस्थान # निवासिनी वासेत्ी नामक वनदेवी गर वात्मीकिभाश्रमस्थित तपस्विनी आञरयीके परस्परके सछापमे सृचित की गई जत्रेयीने अंतमे यहभी कह दिया किं, इस पचवटीमें शवक नामका एक शुद्र स्वधर्मीविरुद्ध तप- कर॒ प्रनामात्रके अकार मरणादि आपन्तियोका कारण हो रहा है, यह वात आकारावाणीदारा नानकर उसे दडित करनेके निमित्त राम इधर शीघरही आनेवि उक्त कथनासुर रामके वहां उसका वध करते ही वह्‌ अपने दिव्यशरीरको धारणकर भगट हज आगे श्ंवुकषे बात चीत करनेपर रामको विदित हुआ किं, यह्‌ दंडकारण्य दहै, तव वे पूरे वृत्ततका स्मरण कर वहाकी शोभां देखने रगे अनतर अगस्ति म॒निके यहासे सदेङा आनपर उन पिके दरीनाथं णम वहां गये। वहसि रट कर अयेोध्याका जातीवार सामने अपने पुष्पक विमानको उस दण्डका-

% संभरति जैमे प्नासिक फदते टे उसीका आसन्नवतता मश्च प्राचीन कालमे (जनस्थान)

ने नमसे पुकारा जता था] ;

७४ संस्छरतक विप॑चक रण्यमें पुनः उहराया,भोर अपने विचार किया कि प्के स्थरोका निरीक्षण कर सीताविरहके दुःखको किचिद्‌ हका कररे।परन्तु यह तो कुछ नहीं भा उरृटे ननस्थानके द्ञेनद्वारा उनके वियोगानलकी ज्वारा अधिकतर धधक उडी ओर उसके योगसे वें मूर्च्छित हौ गये इस भावी अनर्थको पव्वेहीमे जानकर उसके निवारणाथं गङ्गाने उपायभी सोच रक्साथा बह यह कि, अपने प्रभाक्से सीताको अदृष्ट रहनेकी शक्ति परदानकर तमसाको उक्षके निकट रहने की आज्ञा दे रक्सीशै अतः रामके भूच्छीपन्न होतेह सीता अदृश्यरूपस उनके पास गयी उनके हाथ का परिचित स्पर होतेही रामकी मृच्छी टूटगयी प्र नेत्र उवाइकर देख- नेपर निकट कोईभी रृष्टिगत नही हुजा तब नितांत खिन्न हो उनने विचार किया कि, सीताके निदिध्यासके कारण म॒न यह योदी भरम हज इतने वनेदेवी वास्तवी घबराई हई रामके पासं आयी, ओर कहनेकगी कि, सीतनि पूर्वमे निसे अपने हाथो पा पोषकर बड़ा किया है उप्त अत्पवयस्क युवा हाथीपर एक विश्ञाछकाय हाथी आक्रमण कर रहा है तब उसकी रक्षाके हेतु राम उधरको गेये प्र वहां नाकर उनने देखा तो उसे नय प्रप्त कर्‌ अपनी सखीके साथ नछविहार करते पाया।इसी मरकारसे अन्य परु पक्ष योको भी उनने पल्य परिचित पाया ओर वासतीके भूतपृन्पै अनेक घट- नाओका स्मरण दिछछनेपर ओत्सुक्यादि वृत्तियां उनके मनमे मादुभत हई। वात चीत करते करते साताकी चचाँ छेड़ वासतीने उनके परित्यागाथ हृदयभेदक शब्दौदारा रामका उपारंभ किया सीताकी चिरवयोग के कारण घोर अरण्यमे क्या अवस्था इहं होगी सा विदित होनेके कारण रामका हदय करुणाघ्ावित होगया, ओर दुःख असह्य होनेके कारण वे संज्ञाून्य हो गये तव फिर पिलेकी नाई सताने उनके रटाटका अपने हाथसे स्परी कर उन्हे रुव्धसंज्ञ किया, प्र उन्हे वा वासंतीको षह ृष्ठिगत नक हई अन्मे अङ्वमेधका समय चूके पवि ६स अनि- मायते राम विमानासोन हो अयोध्याकी ओर निकलगये इसके आगेका स्थ वात्मीकेका आश्म माना गया हे वहां वसिष्ठादि मण्डी

भवभति 1 ७९

नौर ननकनीभी मुनिके दीनां आगये है वे सप सीताकी षदर्यविदारक भीषणं अवस्थापर शोकं भकारित्त कर रहेथे कि,उतनेमे आश्नरमके बटु्गणो मसे एक उनके निकट आथा उसने अंपना नाम छव ओर अपने जेठे भारैका नाम कुश्च वतछाया। मातापितके नाम पे नाने पर उसने विदित किया गि, मुञ्ञे वह्‌ ज्ञात नरी हा इतना अछूषत्ते मेँ नानताहू कि) दम दानिं वाल्मीकेऋषिके हैँ उनकी चारु चरन ओर मुखाकृततिको देख ननकनी ओर कैौसल्याको विर्वाससा हौगया कि, इनमे राम ओर सीताके कु रक्षण पाये नति है इतनेमे उस छ्ड्केके ठेगोयिया मित्र दौडकर उसके निकट अये ओर उससे कहनेरगे फि, अपने शश्रे अद्व' नामका एक विरृक्षण पश्च जया है सो चछ हम तुञ्ञे उसे दिखछाते दै।हसा कहकर वह उसे उधर ठे गये। भागे उसके उस अद्वको प्कडकर बांध रखनेके कारण अद्रवरक्षकरोगेनि उसपर आक्रमण किया पर रामके दिन्याख्च उसे आनन्मतः प्राप होनेके कारण उसने केही सब सेन्यको परानित किया, उस सवादको सुन कुमार चद्रकेतु उससे युद्ध करनेके सिये आया यह सब घटना रामके शबुकको मार दडकारण्यसे रोट आनेके पूर्वैही हई फिर रामने वहां पहुचतेही दोनोको युद्ध बद करनेकी आज्ञा दे अपने समीप उपस्थित होनेकी आज्ञा दी चन्द्रकेतने रुवकी वहुत परशेसा की ओर रामायणकथाके ग्रह॒ पधान पुरुष हँ यह ज्ञात होतेही छवनेभी रामको प्रणाम किया आगे कुकषभी वहां आया जर अनेककारण एसे उपस्थित हए कि, निनके योगसे रामने अपने दोन पुजको परहिचानछिया, अंतमे वात्मीकि ऋषिकी आज्ञानुसार रक्ष्मणने

गक तटपर बड़ा भारी समान एकर बैठ सके एसी रंगभूमि स्तुत

की ओर वहापर उक्त फवि प्रणीत छोटासा नाटक अप्सराभोद्वारा अभि-

नीत किया गया) सब छोगेकि समीप इस नाटकके अभिनीत कराने उक्त

मुनिका अभिमाय यह था कि, सीताको वनम परित्यक्त करनेके परचाव्‌ नो नो घटना हुईं सो सवपर विदित होमार्थे तदनुसार षीताने अपना करीर गंगामे विसीजित किया, उन्दं दो पुत्र हुए, अनेतर गंगा ओर

७६ सस्करतकविप॑चकः

पृथ्वीने' उनकी रक्षा कर दोनों पुर्जोको क्षा संस्कार करानिके शय वात्मी- किके आधीन किया इत्यादि समस्त॒षटनारँ उक्त दद्यकाव्यद्यारा सब लो गोकिो परत्यक्षसी करादी गयीं अंतमे इस उपनाटककी सीताने परथ्वीके गर्भमें स्थानपाप्रिकी भा्थना की ओर उसमे वह समागयीं अनंतर सब पडदेके भातर गयीं परंतु शीघही सब भक्षकेकि समीप सच्ची सीता, गंगा ओर पृथ्वी यह तीनों गंगासे निकरीं, उक्त भ्रकारसे सवके सामने सीताकी गुद्ता पमाणित होजनेपर रामने पुनः उनका अंगीकार किया ओर अंतमे वाल्मीकि मुनिने सबको आशीर्वाद दिथाहे उक्त सविधानकमें भधानतः दो बातें कुछ हेरफेर कर च्खिी गयी है एक यह कि, मूककथामें यह बात वित दै कि, रुवकृशने राम ह्मणका पराभव किया, पर यहांपर केवर छव ओर क्ष्मणङे पुत्र चद- केतुकादी युद्ध वर्णित किया गया है वैसेही दूसरी बात यह किं) राम रक्षण ओर सीताका अन्त नितांत दुःखके साथ हुभा पर यहां॑वह उसके विपरीत प्रददीत कियागया है प्रथम हेरफेर करनेका कारण सपष्ी है कि,नाटकके नायकादि मधानपा्रोको रुधुताके दोषसे बचानेके हेतु वह क्रिया गया है; आर दसरा तो अत्य. ही अवर्यक था, कर्यो- क्षि दुःखपरिणामी नाटकोकी-निन्दे अरनी (्रानेडी' कहते है-पथा सस्ृतमे बिरकुदी नहीं है ओर इसमकारसे नाटकका अन्त होना चाहिये देसी साहित्यश्ञाखकी स्पष्ट आज्ञा भी हे संविधानकके अप्र अंगोक्षी रचना भी देसी चतुराड्से की #, उसकी सहायतासे कवि मान पराके उदात्तगुण स्पष्टतापूर्वक भरदर्दित कर॒ सका सीता रामको निन भाणेसि भी अधिक प्यारी थी तिसपर भी विच्रपटक द्दोन- द्वारा भृतपुव्पै धटनार्जका स्मरण होतेही उनका दद्य अत्यन्त सद्र तो भ्मनिमग्र हेगया था पर तो भी दुर्खदवारा ननापवाद कणगत हो तेह उसे उनने तत्क्षण वयकी नाई कटोर करथिया, ओर वसिष्ठ संदे तथा अपनी कोर मतिज्ञाको अनुसृत करः गरे रुपटी हई नदन्मुख सीताको निपट मिदैयतापृन्यैक अरुगकर, अत्यन्त गद्दित हो उन्हं उनन

भवभूति ७७

विद किया { दूसरे ओर तीसरे अंकक प्रसेग भी देसेदी ददयभेदक त्रासा हमरि कविने यह बात स्पष्टफर दिखडायी है फि, महाशय पुरषोके

अन्तःकरण समयविक्ेषपर ही नरी कितु एकरौ समयर्मे वजे भी कठोर जीर कुसुमसे भी मृद्‌ केसे हो नति हँ शेसूकवधकी कथा दमरि कवि- को अवृश्यही छिखनी क्योकि चिना कारण रानकान ओोड्‌ दंडक।र- ण्यमें अनिकेश्यि रापको कोर निमित्तदी था। वह काम रामकी सद्‌- यताका जैसारी घोर विपेधी दै वेसादी रगस्थरुपर उसक। खेछानाना भौ अरापरस्त नान पडता है। एतावता थेडेसे्मे ही किनि उस कथाको शेषकर शोबुकको दिव्यपुरषके रूपमे शीघही रगभूमिपर उपस्थित क्षिया है। तीसरे अंके तो करुणारस मानो साक्षात्‌ अवतीणही हज है देडकरप्यकी बनश्रीको देख रामका मन करुणादं हो गया, ओर वह्‌ स्थान चिरकारके अनंतर पुनः आरोकपथरमे अनेके कारण नो जो पदर दष्टिगत होता वह सव भूतपन्षै घटनार्भोका स्मारक हो सीताविरहके दु.खको अधिकेतर जागृत करता उसी समय सीताकी ससी वनदेवी वासेतीकी भेट होगई है पर इस अंफके संविधानकमें कविने इससे भी अधिक चमत्कृतिननक एक वात वही चतुणईसे लिखी है उसने इसके करुणारसको विदोषरूपसे अनुकुरता भदान की है वह सीताकी अह- इयता घोर काननमे जिसकी अवस्थाका बोध रोनेके कारण रामके हृदयम दुःखकी तरगे उठती है स्वयं उसीके सामने उपस्थित होते उन्द उसका ज्ञान होना, गोर उसीका परिचित दस्तस्पशं होनेके पञ्चात्‌ रामकौ बातचीत सुन उरन्दे उन्माद होनैका बासंतीफो सदेह होना ओर रामका भी उसे व्यथे भ्रम्‌ मानना, आदि बति नितातं हद्यदावक है, इसके सिवाय यद्‌ वाते एसी हँ कि, इनके योगते सीतापरित्थागविषयकं रामकी कठोरता अत्यंत विस्मृत हो नाती है चौथे अंकके स्थल्के सख्यि वारमीकि मुनिके आश्रमकी योजना अनेक कारणोसे बहती समीचीन एवं समर्पैक हुई राम गोर सीता दोनो बात्यावस्थासे असामान्य गुणसंपच्च होनेपर भी उरे कदापि सुखका रेरखमात्र भाष दुभा, जर्‌

७८ संस्कतकविषप॑चक ~

उनका अत ओर भी भयावन। हुजा, यह्‌ देष कैशचत्या ओर जनकको प्राकाष्टाका खेद हआ उसके योगसे उनकी चित्तवृत्ति उदास एषे विरक्त हो गयी, उस समयकी उनकी उक्तियोका पाठक वा दर्शकोके चित्तपर स्थङोवित्थकी सहायतसे विश्लेष संस्कार करानेकेण्यि ऋषिके आश्रमके छोड़ योग्य स्थान दूसरा ओर कहां मिख सकता है वैसेही इस असार- संसारके अनेकानेक दुःखोके भोग, सदोक एवं चितान्यथित हो शेष दिनक काटनेके हेतु एक ओर वेढा हज वृद्धसमुदाय, ओर आश्रमके दुसरे ओर अनाध्यायके कारण निद्विचत हो स्वच्छंदतापर््वैक बाक्रड़में निमग्रहुए वहांके बटगणोका समूह, ये दोनों बातें एकके उपर्रात दूसरी उद्धिखित होनेके कारण परस्परको नितांत शोभापद्‌ हई करयोकि संसारकी उक्त दोनों अवस्थां परस्परसे नितांत विभिन्न होनेके कारण एसे स्थानपर उनका मेद्‌ अस्यन्त स्पष्ठरूपसे दृष्ठिगत हो विशेष शोभा- को पराप्त होता है जगे सीताके विषयमे निराशहुए ननक ओर कौश- त्याने नब छ्वकेो देखा तो उन्हे यह शंका हुईं कि, स्यात्‌ यह सीताका पुत्र हो आदि वृत्तां; ख्वके ठंगोरिया मिर््ोका कियाहुभा कौतूहरन- नक घोडेका वर्णन, रानपुरुषोकिं धमकानेपर अपर बटुगण ओर उस क्ष- तरियकुरुमूषणमे तत्क्षण दग्गोचर हनिवाङा अंतर, यह सव बते बही चतुराईसे शिखी जनके कारण वे इस अंकको विष शोभामद्‌ हुईं अस्तु, अगे तीन अ्कोका सविशेष वणेन करनेकी कोई अवरयकता नही नान पडती, हमोर चतुर पाठकोको उनके विषयमे तकना करनेके स्यि उक्त सविधानकही अलम्‌ होगा

उत्तररामचारेत करुणरसपधान नाटक मानानाता है पिरे अंकमे करुणरस कही सभोग शगार ओर कदी विपरुभम श्रगारमे मि हुजा पाया नाता दुसरे अंकमेँ पुनः विभ शरंगारमे मिक वहां उसका आरंभमा इभासा देख पड़ता है प्र अगछे अंकमे वह पएण- रूपसे उपरन्ध हातौह। चौयेमें जनक ओर कोसस्या, तथा सरके आदिमे वासंतीके संभाषणे शुद्ध करुणरस पाया नाता | पांचवें ओर सातरवेकै

भवभूति ७९

आदिमं उभय योद्धा, कुमार होनेके कारण परस्परके संवादम वीररस विरेष सोभाभद्‌ बोध होता ३, अंतिम रथात्‌ सार्वे अंकके आदिमे करण मौर अंतमे अद्ध॑त रस है कहुनेका अभिमाय यह है कि, इस नाटके फविने करुणारकों प्रधानता दं अन्य रसोके मरसंगानुरोधसे वा तदाश्रित वर्मित किया है यहांरो इस नाटककी अंतर रचनाके विषयमे शिखि गया प्र जो कोई इसके पष्ठ योही उरूटा कर देखेगा उसेभी हमारे कविके भिन्न भिन्न स्थारनोकी चमक्तारननक मरयोगविधिका ज्ञान सह- नहीमे होनायगा कदी ऋषिका आश्रम, करी वनदेवताभकि रमणीक एवं भव्य वन, कही विद्याघरोका दिव्यप्रदेशष, करी सुरासुशदि सव भूतसृष्टिमपिष्ठित आश्चस्यंसंपन्न रगस्थकर, करीं समर्रागण एसे नानाम- , कारके चित्रविचितर स्थारनोकी कल्पना क्ियिनानेके कारण प्रत्येक अकका रस पाठटकगण ओर विरोषतः दशैकरेगेकि चित्तमे विशेष आनंद उप- नाता है कत्त॑मान नायके सृष्टिव्णेनकोभी दुसरे ओर तीसरे अकर्म हमरे फवि ठे अय रँ उक्त उभय स्थार्नोपर दंडकारण्यका जो वर्णन ख्ख गया है वह अव्यत सुन्दर है। उसी प्रकारसे ओर ठौरपरभी जटां करी रेखानुगोधसे वर्णन करना पडा है वहां वरहंपरभी वह वेसाही परमोत्कृष्ट रखा गया है इसके पाजगण भायः वीह नो रामायणमे प्रसिद्ध दै; ओर इस नाटकर्मेभी उनके उदात्तगुणको कविने समुचित संविधानक नोडकर अधिक व्यक्त किया सारांश अनेक उत्तम गुणेकि सम्भेरुसे उत्तररामचरित परम रमणीक हज है उसकी यह रमणीकतारौ भधान कारण है कि, वह सदसा रसिकभ्रिय हो आनपर्यत अपर दोर्नोकी अपेक्षा भूतपूर्वं पडि- तेमिं विष भसिद्ध दै ओर इस वातमे तनिकभी सदेह नही है कि, उसकी यह समुज्ज्वछ ख्याति कारगतिके साथ साथ सेतत बृद्धिराभ

करते जायगी ओर भवभूतिका नाम दिगंतरमे सुपरसिद्ध हो वह चिर स्थित रहेगा !

७८ ` संस्ङकतकविर्पचक +.

उनका ओर भी भयावन। हभा, यह देख कौशरया ओर जनकको पराकाष्टाका खेद हआ उसके योगसे उनकी चित्तवृत्ति उदास एवं विर हो गयी, उस समयी उनकी उक्तियोका पाठक वा दशंकोके चित्तपर स्थटोवित्थकी सहायतासे विशेष संस्कार करनकेणियि ऋषिके आश्रमको छोड योग्य स्थान दुसरा ओर कहां मिरु सकता है वैसेही इस असार- संसारके अनेकानेक दुःखेकि। भोग, सशोक एवं चितान्यथित हो शेष दिनोको फाटनेके हेतु एक ओर बैठा हा वृद्धसमुदाय, ओर आश्रमे दुसरे ओर अनाध्यायके कारण निरिचत हो स्वच्छंद्तापएव्वेक बाखकरडामे निमघ्रहृए वकि बटुगणोंका समूह, ये दोनो बार्ते एकके उपर्रात दृसरौ उद्िखित होनेके कारण परस्परको नितांत शोभाषद्‌ हई हँ क्योंकि संसारकी उक्त दोनो अवस्था परस्परसे नितांत विभिन्न होनेके कारण एेसे स्थानपर उनका भेद अत्यन्त स्पष्टरूपसे दृष्टिगत हो विशेष शोभा- को पराप्त होता है आगे सीताके विषयमे निराशुए ननक ओर कीश- त्याने नब स्वके देखा तो उन्हे यह शंका हुं कि, स्यात्‌ यह सीताका पत्र हो आदि वृत्तांत; ख्वके रगोरिया मित्रोका कियाहुभा कौतूहरुन- नक वोडेका वर्णन, राजपुरूषोकि धमकानेपर अपर वटुगण ओर उस क्ष- तरियकुरुभूषणमे तरक्षण दृग्गोचर होनेवार। अंतर, यह सव वते बही चतुराईसे छख नानेके कारण वे इस अंकको विशेष रोभाभद हई हं जस्तु, अगे तीन अंकोका सविरोष वणेन करनेकी कोई अआक्छयकता नहीं नान पडती, हमोरे चतुर पाठकोको उनके विषयमे तकन करनेके सियि उक्त संविधानकही अरम्‌ होगा

उत्तररामचारेत करुणरसमधान नाटकं मानानाता है परहिछे अंकमे करुणरस कदी सभोग शगार ओर कदी विप्ररेम शरगारमे भिरा हुमा पाया जाता दूसरे अकम पुनः विमछंभ शरेगार्े मिक वरहा उसका आरंभमात हभासा देख पडता पर अगते अंकरमे वह परण- रपस उपरुन्ध हातौह।चौयेमें ननक ओर कौसल्या, तथा सरके आदिमे वासंतीके संभाषणमे शुद्ध फरणरस पाया नाता दे पूवद ओर सातवे

भवभूति ७९

आदिमे उभय योद्धा, कुमार होनेके कारण परस्परके संवादम वीररस विशेष शोभाभद बोध होता है; अंतिम अथाव सातवे अंकके आदिर्मे करण भीर अंतमे अदधत रस है कहनेका अभिभाय यह है कि, इस नाटके कविने करुणारस्को भधानता दे अन्य रसोको परसंगानुरोधसे वा तदाध्रित वर्णित किया है यहांछो इस नाटककी अंतर रचनाके विषयमे छ्खि गया पर नो कोई इसके पष्ठ योरी उर्टा कर देखेगा उसेभी हमारे कविके भिन्न भिन्न स्थार्नोकी चमत्कारननक परयोगविधिका ज्ञान सह- नरीमे दोनायगा की ऋषिका आश्रम, करी वनदेवता्भेकि रमणीक एवं भव्य वन, करी विद्याधरोका दिन्यम्रद्ष, कदी सुरासुरदि सब भूतसष्टिभिधिष्ठित आश्चस्यंसंपत्र रगस्थक, करीं समरांगण रेसे नानाम- कारके चिजरविचिच्र स्थानोकी कल्पना कियिनानेके कारण प्रत्येक अकका रस पाठकगण ओर विशेषतः दक्षैकछोगोके चित्तमे विशेष आनंदं उप- नाता है क्तमान नाटकमें सृष्टिवणैनकोभी दुसरे ओर तीसरे अकर्म हमारे फवि रे आये हँ उक्त उभय स्थार्नोपर दंडकारण्यका नो वर्णन छ्खा गया है वह अत्यंत सुन्दर है उसी परकारसे ओर ठौरपरभी नहां करी छेखानुरोधसे वर्णेन करना पडा है वहां वहांपरभी वह वेसाही परमोत्ृष्ट खा गया है इस्तके पात्रगण प्रायः वही नो रामायणमे भरिद्ध दै; ओर इस नाटक्मेभी उनके उदात्तगुणको कविने समुचित संविधानक नोडकर अधिक व्यक्त ` किया है सारांश अनेक उत्तम गुणेकि सम्मेरुसे उत्तररामचरित परम रमणीके हुजा है उसकी यह रमणीकताही भधान कारण है कि, वह सहसा रसिकभिय हौ आनपर्य्यत अपर दोर्नोकी अक्षा भ्रतपूर्व पडि- तेमि विष मसिद्ध है ओर इस वामे तनिकभी संदेह नही कि, उसकी यह समुज्ज्वरु ख्याति काटगतिके साथ साथ सतत बृद्धिराभ

करते नायमी भौर भवभरूतिका नाम दिगंतरमे सुपभरसिद्ध दहो वह चिर स्थित रहेगा !

८० संस्कतक विपंचक

बहारों भवभूतिके सब ग्रन्थक विषयमे अर्थाव्‌-उसके तनो नार- कोके विषयमे आरोचना की गयी अब उनमे स्थूकतया जो विशेषता देखपड्ती है उसका परिटे वर्णन कर तत्पश्चात्‌ उसके कवित्वगुणका समासवणन करेगे भवेभूतिके नाटकोमे सावधानकके सेवंधसे पथम तो यह विशेषता रक्षित होती है कि, उसका विष्कंभक वहत सर रहता है उसके प्रथम नादी अर्थात्‌ मगलाचरणको ही देखिये अपर सब नाटके इसके सवेधसे यही बात पायी नाती है कि, इसे पूर्णरूपसे सननेकेखियि कोई बात उठा नरी रक्खीनाती अर्थाव्‌ शेखरिणी छण्ध- रादि रीष वृत्तो्मिसे किसी एकका प्रयोग कर अथै ओर पदोको रचना वड़ी चतराईसे की नाती है किसी नाटकमे एक पद्यसे अभीष्ट सिद्ध हेनेके कारण अधिक पयमी लिखेहुए पय नति हँ इस बातके उदाहरणस्वरूपेम वेणीसंहार का नामेष्टेख किया जा सकता है; इस नाटकमे मगलाचरण छः सात पर्योमे हेष किया गया है इसके योगसे मेक्षकननोके कुतहखका विधात होताहै, एतावता (काव्यपकाश' नामक सुभसिद्ध सादित्यग्रथमे यह दूषित निशित किया गया हे पर भवभरूतिके 'महावीरचरितः ओर “उत्तरयमचरित' इन दोनो नारकोके आदिकी नादी अ्येत सुबोध हैँ ओर उनका छंदभी अनुष्टुप्‌ है अव यह वात सच है कि, (माङती माधव) कौ नादौ तीन दीर्ववृत्तोमे शेष की गयी जर उसमें अर्थभी चमल्छृतिननक एवे प्रीद्‌ छाया गया ह; पर हम समस्त कि, भवमभूतिने भसङ्गविशेषानुरोष वा नाटक सेरनेवारी मंड- लीके अनुरोधंसे वैसा किया हो अपर सव नाटकोमं परे पत्रोको रङ्गभूमिपर छनेके स्यि कविगणोकी यह युक्ते पाथो जाती है कि, मूत्र धार जौरनथ वा पारिपार्धकके सवादोका भथमतः पेश करनेषलि पाकि साथ कुछ कुछ सेवं जोड दियानाता रै कई नायको यह्‌ व्यवस्था मरत्यक्ष नहीं रहती, पर दुष्ट पदृकि मयोगद्वारा उसका आभासमाज होनेकी तनवीन की इई छक्षित होती है पर भवभातिके नाटकं यदह .बातभी नदी पायी जाती विष्कंभक ओर मृथमगमकि

भवभूति

ये दोनो मिरु विकरुग रहते दै 1 णन कर अगे संविधानकका दिण्द्यन करता है ओर परि आनेवा् पारोक्ष पेक्षकोको सचना देता ` अनेतर्‌ प्राज्गण सेका मरम करते अप्र नायकोमिभो काविका वणेन जादेमह कियाहुञा पाया जाता ६, पर इन दोनेमि एक बड़ाभारो अतर दःधगत होता भव- भूति नाटककेकि सूत्रधार अपनी बाह्यताकी अतप्यत & रक्षा करता दै; पर स्स दुसरे नाटफमे वद॒ वात न! रौखपडती, स्यम वह्‌ उसे तर॑तदी मृखनाता है, भौर प्रथमतः मपिष्ट होनेवाले पात्रों पारेचित रेसा मदशिंत करेता दे नाटकभरणयनप्रथानुसार यह बात बड़ी पलक्षण ६; पर दसा अनमान होता किं) इस दोष मानकर इससे

[+ क्य [५

अपने नाटकोको वचूनिफेषिथे हमारे कमिने विष्कभकको वेष चमत्छ- तिजनक करनेकेखियि अपम) चराई यत्किचिव्‌। खये नरी की ओर इसके पिवाय दुसरी बात यह रं कि, उक्त विपरातता यद्यपि यथार्थम्‌ दो- षरूप तथापि बड़ उड़ नाम कमिगणोनेभी { अपन पाठक वा श्रोतागर्णो- \. # यहा प्र केर कदाचित्‌ यह आक्षेप कगे फ) सुत्धारमैः इस बाद्यत(की “उत्तरराम- चारतमे' निष्करातिपर्यन . कः की गय ट, क्योकि उसकी नटः साथ सीतायै नना- प्वाद्पेः विषयमे बातचीत दोनिषर पे परेन रामकी ओर चे गये पर रकिचिव्‌ विचाराञ्च करेनेषर यह चात ध्यानम आती हे फि) ठस नाटकम्‌ सुत्रधारकी सूत्रधारकता “पपोऽटईं की््धवक्षाद्‌योभ्िकस्तदा्नतनश्च सदृत्तः) ( देस्मि मे जके भमिनया मयोध्यावासी एं तत्काटीन नाद्र ) रसा कदते टी चठ गयी इसके भनतरका उसका नर्द सायका सवाद्‌ रंगस्य अप्र पाप्रेकेसारी जानना चस्यि नाटककी कथा भारभ करका यह्‌ ठग बहुदं वढ्यिा ₹) प्रगवश्चात्‌ अपने रन्न पाठन।फो सूचित कये विना हमसे रहागया

{ नारको) चचौ करतीवार सामान्यायेवोधक ।कवि' न्द्‌ व्यवदत क्रं कः कारण यद्‌ किं उक्त रकार अन्यदद्य कथि दौमर गौर मिलटनके मदाकान्य म, मारे पाया नाता उक्त दोनों कबियेनि स्वानुकूलताके देतु कवित्वं देषताकी माना करतीबारदी सदसा कन्यके कथानकका भारम करिया हे देखा करने यरी खनी कि? जेस अनत जलराक्षि समुद्रे नदीमुखद्यारा प्रवेश दोता दै षैसे पाठकोको हो, ठन्दे यई विस्मय हो $) युख्य कथनको केसे आपत

८२ . , संस्कृतकविषंचकः

फे चित्तम चमत्कार भासित करानेफे हतु उन्दँ अपने काव्योमें आश्रय मदान किया ३, एतावता इस बातके कहने कोई अनौचित्य नहीं बोध होता कि, चाहिये वह उसका प्रयोग सुखेन करसक्ता है; प्रर नब एकी युक्ति अनेक व्यक्तियोंदाण अनेक प्रकारसे प्रयुक्त होनाती है तब उसमे अणुमात्रभी रस नही रहता; भौर यदि इठेष साधनां यत्नकर भवभूति विष्कंभकको वैसा चमक रोत्पादक करही देता तोभी वह भूतपुव्षै कवि. गणोके अनुकरणकी नादी दीखपडता हम यह समक्षते कि, इन्दी दोनो कार्णोको विचार भवभूतिने अपने नाटकोंके विष्कंभककी देसी अकृत्रिम रचना की है; ओर यही आद प्रथा होगी एेसा रष बोध होता है अगेरेनीके नाटकोमें मंगङाचरण, विष्कभकादिकी प्रथा हौनेके कारण सहसा नाटक आरभ किया नात। है ओर रङ्गभूमिपर आनिवह पाकि बोधार्थं एक हर्तपत्रके अतिरिक्त अपरसाधन नहीं रहता, उनके ' यहां यह प्रथा अछर्बत्ते पायी जाती है कि, आदि ओर अंतमे श्रोतागणो- को संबोधन दे सू्धार संभाषण करता है,पर इन संभाषणो ओर संस्ृ- नायकके विष्कंभक ओर भरतवाक्योमे ( च्चेरीमे ) बहुतही अंतर ठक्षित होता है नाटकामिनयका आरंभ भौर अंत एक साथही किया जाय तो अच्छा नदीं दीखपडता, सोन दीखषडे; ओंर श्रोतृगणोकिं चित्त अगले नाटककी ओर संख्य हो; वा नाटक शेष होनानेपर बहु- मानपृव्यैक सधन्यवाद्‌ वे विसर्नित क्यिनारये; इसी अभिमायसे अंगरेन नास्कमणतृगण उक्त भाषणोंको नारके जोडदेते हे, यदी कारण है कि, उनके यह पुरे उनसे बिग रहते दै, ओर कथी कथी ते एसा

होता है किं, नाटकमरणता उरन्दँ किसी विख्यात कविसेभी छिखा छेते है तात्प्यं विष्कंभकरएचनाके पिषयमें भवभूतिका अपर नाटक

कर्ताओंकी अपेक्षा यथपि तृतीयपथ दृष्टिगत होता है, तथापि यही बात निद्धीरित होती कि, वास्तवमे उसीकी मथा यथार्थं ओर आय

~ काणा तया प्क यरभी विचार # कि जिस जित्धाको निज

भवभूति ८३

शिरपके विषयमे यह दृट्‌ विदवास कि, मेरे बनायेहए मोदैरके निस निस भागको छोग देखेगे उसकी ओर वे निहारतेदी रदेगे, वह दारपर वृत्तखंड मेहेराब बननिकेचियिरी अपनी आधेसे अधिक शिलपपटुता कयो व्यय करदेगा

भवभूत्िके नाटकोके विषयमे ध्यानमे रखने योग्य दूसरी बात यह कि, वे तीनों परमोत्कृष्ट रोनेपर भी एकसे नरी, तीनोके रस भिन्न मित्र रै ओर तदनुसार उनकी रचनाभी एक दूसरीसे निरारी है। इसके सविसेष उद्िखित करनेकां कारण यही है कि, यह बात अपर नाटक रचयितागणोँके नायकोरमेसे किंसीके नाटकमें दग्गोचर नही होती स्वयं काछिदासकफे विषयमे ही विचारांशा कीनिये कवि ओर नाटकमणेतारभकि विसदृश गुण एकी व्यक्तिमे पूणैरूपसे एकत्रित हए हों ठेसा उदाहरण काछिदासके व्यतिरेक कदाचित्‌ किसी भी देश वा कामें उपरुन्ध होगा, तौ भी उसके तीनों नाटकोकी परस्परम यदि तुरना की नायतो यह बात एक सामान्य पाठककों भी ज्ञात हो जायगी कि, परेम नो रंगदेगहै सो दसरेमे नही है, ओर नो दूसरेमे सो तीररेम नदी है इसके सिवाय रसके विषय आदिमे भी भवभूतिके नाटक परस्परम नेसे विभिन्न वेसे वे नही हे दुसरा उदाहरण श्रीदर्षका ठीन्यि इसका पहिला नारक ' रावी संविधानफचातुय्यै, पदरारित्य गोर श्छे- षादि गुणेकि योगसे रमणीक होगया है, पर उसका दूसरा नाटक ना- गानंदं वेसा उपयुक्त होनेकेकारण सामान्य नाटकोमें परिणत शिया नाता है उसकी इस अवस्थाका कारण यह है फ, उसके कः स्थाना पर परि नाटक अत्य॑त सदृराता पायी नाती है इसी भरकारसे ओर भी कवि उदाहृत किये जा सकते-प८ अव एेसा करना व्यर्थ है ९? अनत कालके उदरमें रीन होनानेके कारण कहो, वा दूसरे कारणके योगसे कहो, संस्कृत कवियोके यरथोका अनुसंधान किया ननिपर भायः यह बात पायी नाती है कि, कान्यके योगसे निनकी स्याति रही है ' उनके नाम नाटक रेलकेकिी श्रणीमें नही पये नति;जौर बहूतन ययि

सस्छतकविर्पचक्र |

+४

अनेक उत्तम नाटक प्रणीत येह तथापि उनके नामंसे एक नाटक से अधिकं ग्रथी परसिद्ध नही है 1 भारवि, माघ बाण, # मयुर, पेडित- राननगन्नाथ यह रोग पारे भकारके हँ ओर दरे भकारमें भदक ( मृच्छकटिक ), विशाखदत्त (मुद्राराक्षस ), नारायणभड ( वेणीसहार ), कृष्णमिश्र ( मबोषचद्रोदय ), रामभद्र दीक्षित ( नानकीपारेणय ) जदि उक्तं दोनों परकारफे यथ आनपर्यैत जिनके भसिद्ध दैरेसे कवि कालिद्‌ासके अतिरिक्त केवर दोही नानपडते हैँ एक तो श्रीहषै कि, निसके नामसे पूर्वोक्त दो नाटकोके सिवाय, अतिदायेोक्तिरूप वणेनादि दोष ओर मृदुतातिशयगुणसयुक्त नैषध नामक विख्य।त काव्य मसिद्ध है; ओर दूसरा गीतगोविंद ) ओर “मसन्नरायव नाटक का कर्ता जयदेव सारांश उत्कृष्ट होकर परस्परम अत्येत विसदृश भौर एकसे अधिक ठेसे नाटक एकमात्र वभूतिकेदी पयेनाते दै उक्त विसदशताविषयकं उद्टेख नेसाही सामान्यतः नाटककी रच- नाके सं्वधसे कियानाता है वैसाही वह उसकी प्रत्येक उक्तिके विषये भी भायः किया ना सकता है; अथीव्‌ एक स्थानपर नो विचार प्रद्‌ रित किया गया है वही आगे अन्य स्थानपर प्रदरदित किया इभा भव- मूतिके नाटकमें बहुधा नी पाया नाता काल्द्सके कान्य निसने किंचित्‌ ध्यानपूवेक संपृणे पटे होगि उसके चित्तम यह बात अवद्यही आगयी होगी कि, उस कविके अनेक विचार अनेक टोरपर बिख्कुछ %# चाण का्षेके नामे परसिद्ध (पाधितीपरिणय" नामका एक नाटकं हमारे देखेमे यौरमी आया है यह नाटक उस भुवनविख्यात फविमरणीत दै वा किसी भन्यका लि- खा हुमा है इसका निश्चय करना कोई कठिनं बात नदी है क्योकिजो इस नाटक के एकी अक्को पठेगा उसे ग्रथकरतीके साहस भर अमयोजकताको देख वडा अचरज जानपदेगा इस भयस बाण कविके नाम गौर क्ुभारसमवसे चोरईदुर

एक षटनाको ऋण करदेनपर गैथकर्तीकी मूता ओर सादसकी समामात्र शेप रई जता .

भवभूति ८६ एकस वा थोडे हेर फेरके साथ पदर्दित किये इए उपरुब्ध हेते है उदा द्रणाथं जगरे इरोकः देखियेगा-

प्रनागरात्सिरीपुतस्तस्याःस्यप्रे खमागघः। याभ्पस्तु दुदात्येनां दरषं चिजरगतामपि राक्तला वही. तः हदयमिषुभिः कापश्यात्िःसश्चल्यसिदं ततः कथञुषरमे निद्रा स्वपे समागषकारिणीप्‌ सुवदनामारेष्येऽपि भियां समवाप्य तां ममं नयनयोशुद्राष्पत्वं संखे भविष्यति विक्रमोवरी २, उक्त ररोकके उत्ताद्धका आशय पुनः मेषदूतमे भी वर्णिन्‌ किया गयाहै। त्वामारिश्य प्रणयड्कपितां पातुरभेः शिखाथा- मात्मानं ते चरणपतितं याषदिच्छभि करम्‌ अस्ेस्तावन्धुहुरुपयितेर्शिरदुप्यते मे अूरस्तसिमित्तपि सहते संगमं नो कृतान्तः उत्तरमेव इस पकारके उदाहरण ओर भी दिये ना सक्ते हजभिपराय यदह कि, उक्तकेसी अर्थकी एकता भवभूक्तके यथोम नरी पायी जाती;तासप्यै उसकी

उक्तियां भिन्न एवं नूतन प्रकारकी पायी नाती है। इसके सिवाय उनके विषयमे यहं इस बातका खष्टेख अत्यन्त समचित्त नान पड़ता हे कि.भव-

८६ संस्कुतकविर्पचक। ि मूतिके विचार संतत निनके ही पाय नति है अन्य कान्यय्ंथोका उर यत्किचित्‌ भी आधार नही रहता #

यहां भवमृतिके नाटकोके विषयमे बाह्यतः ओर अपर कवियोकि संयंधसे आोचना फी गयी अब उन्दीके विषयमे अर्थात्‌ उनके गुणोके विषयमे विचार कसते है पीठे काल्िदासकी कविता ओर उसकी पद्र- चनाके विषयमे छिखितीबार दम यह रिख मयि दै षि,उ्षके सामान्य गुण अत्यंत मधुरता ओर कोमरुता हँ इन गुणोंका साधन भवभूतिने भी समय विदोषपर अर्थात्‌ शरेगार ओर फरुणारसके विषयमे छिखतीबार किया है, पर इस कविके छ्खिनेकी शरी अपने ठेगकी कु विरक्षणरी है यह दरी भवमूतिके नाटके क्या गय ओर क्या पर्य सर्वत्र पायी जाती है संवाद उदात्त एवं गभीर वा सामान्य विनोदका ही षयो हो पर उसमे इस गुणकी उनत। कदी भी रक्षित नदी होती नहं नहां षीर रस छाया गया वहां तो

धीरोद्धता नपयतीवं गतिधेरितीम्‌

दछोकपादमें द्णित कुदाकी वीरताके अनुसारदी शब्दोंकी रचना

=

& पीठ कलिदासके समानार्थं तीन इोक छलि गये है, उन्दीकेसा मवमूतिकागी लोक नीचे लिखा जाता हैः- -वार षारं तिरयति दशओरुद्गमं बाप्पपूर- म्तत्सकन्पो °हितर्जाडमस्तममभ्येति गात्रम | सगःस्विदयन्नयमविरतोत्कपलोलागुटीकः पागिलेखापितरिषु नितरा वत्ते कि केमि मालतीमाधव इस उ्टोकके। उक्तं रलोकरोका आधार हेषा नरीं इसत वातका निश्चय करना भस मव है) सप्रति इतना सूचित करना आछम होगा कि) यह मले मानलिया जाय कि, दस दरीकको पिच्ले ग्लोकका आधार टै, परतो मीम मरोखा देकर) जबकि) उसो उज्तिकी उक्त चलोकमे इती स्पष्टताके साय न्यक्तकर गुरुको भपे्षा ्रिष्यने अधिकं प्रसा प्राप की तच ऊपर मृलटम्रयमें मवमूपिके विषयमे जो उद्धे क्रिथा गय टे उश्मे किसी प्रकारक बाधा उपस्थित हो सकती! इसकी ( कुशौ ) धीरिकेखौ चाल माने धरतीको मवयि देर्रहै।

~

भवभूति ८७

भी बहुतहौ भनुकूरु है ! ओर उक्त चरणी भवभूतिकी पदस्वनाका एक उदाहरण हे भवभूतिने अपने नाटकोमिं भिन्न भिन्न मसेगोपर भिन्न ररसोका परि- पाक उतार दिया है! उनमेसे प्रथम भ्रंगारके विषयमे विचार किया नाता है यह्‌ रस उक्त तीनो नाटककेमं से भधानतया 'मारतीमाधव' मेही विशेषरूपसे पाया नाता है; ओर “महावीरचरिते वदं योश करीं कदी छ्चरुकता है, ओर “उत्तरणमचरित'म वह शद्धरूपसे नही पाया नाता कित करुणारसमिभ्रित पाया जाता है अतः हमोरे कथि उसे कारों मातपादित करसके है सो पृणेतया देखनेकी यदि इच्छाहो तो उस 'मारतीमाधवमे ही देखना चाये षीके इसत नाटकके विषयमे छिखती बार हम नो छख अये हँ उक्षकी हमारे सचेत पाठकोको बहृषाविस्मृति इई होगी; बही बात यहां किचिव्‌ सविस्तर छिखी नाती हँ भव- भूतिके नाटकफोमें श्रेगारका नो ठंग पाया नाता है बह किसी नायक वा कान्यमे भायः नही पाया नाता अपने काछिदासादि कवियाको कवि- न्रडामणि मान योरोपके कई पेडितेने उन्हें सहसा कीत्तिमदिरके उख- शिखरपर अयटछृरूपसे स्थित करदिया है, सो निन अंगरेन म्रंथ कत्ताओकिो यह बात नही भाती वे समान्यतः सस्छृतकविताको यह दोष ठगाते है कि, उक्षके श्रेगारका उद्धव शुद्ध भेम रससे तादृश नही पाया जाता कितु बहुतमं वह कामवासनासेही पाया जाता है यह कथन हठवादियोके मतानुसार गथीव्‌ अंशतः मात्र यथाथ है संस्कृत कविताका जायय शुद्ध स्वरूप नव भरष्ट हौनरुगा तबके बहुतेरे कान्योमे ओर अन इधर निनकी प्रवर्ति विरेषरूपसे पायी नाती है वे बीभत्स भा- णादि # अरबत्ते उक्त दोषसे दुषित हो सक्ते प्र इतनेदही के कारण समस्त संस्छृतकविताको दुषित करना किस प्रकार युक्तिंसंगत हो सकता इसका विचार करना हमं अपने विवेकी पाठकोपरही समर्पित कसते ! भङा यदि यदी एक बात होती किं, भाण नामकं नाटककां एक मेद्‌ ® भाण नामक नाटकका एक भेद उम पत्र एफ रहना कद्र उस्ना

नायक माना जाता हे यह्‌ नायक कुछ भात्मगत्त ओर कु भरन्यौकेः समोधन दे कता ६॥ 'वततिलकः ध्यकुदानद्‌) पमृति लेेमिं विशेष प्रसिद्ध

<< स॑स्छतकविप॑चक

छक्त दष अकड। सस्छृतकवितमे पाया जाता ताभी कड कहना नथा प्र क्रया उक्त दोष यक ओर सेमं लोगोकी कविताम नदी पाया नाता { अथवा इतने दर जानकी कोई आवदयकता नई! ६। क्या यहं करई कह सकता कि, अगरेनी भाषाका रससभेस निसरभे एकनित किया गया वह रेक्सपियर कविका कविता उक्त दोषे सवेथा मुक्त है यदि यह बति रसीद हत, ते। कुटेवके सेगेके- अथात्‌ पुर्‌ष, क्ती, रड़वे आदि सबके एकत पटुनेके योग्य उस कविका संक्षि आवर्त अरग अरग क्यो निकरुती अस्त; संमति वर्तमान विषयके स्बेधस हमे इतना कहना ॐ, परव्वेदेदीय जथाव्‌ फारस सस्त इत्यादि भाषाभके कियं(के काव्य अर्‌ निषध रहत शगार वणः नका परस्पर नित्य सवथ यह सर्मन्च परपरासे चर! जयी वहं सवथा सत्या नरी हे इस बातका जिसे पणेकूप से अत्यय ख्ना उसे उचितं किं, वह्‌ दमारे भवभूतिके . नाटककि पयाटाचना कर उस अवजोकनद्‌।रा तदतर्म॑त श्रेगार कफस बहारका ६; कसा सुक्र जर भद्‌ आदि बातत सहन भ॑ रक्षित हो सकती हं शगार कछ उदृाहरण उद्धत करनेके पृ उनकं विषयमे पाठके। को यहाप्र एक बात सूचित करना अभी नान पडता वह यह किः कालिदासके अथेसि जैसे बे परथक्तापृव्वेक थोड्से उद्धत, कसते घने वैसे यहापर उनका रछिखा नाना स्थानोपर असभव बोध होता वयो पिरे उदाहरण परायः कान्यके होनेके कारण पतापर सदर्भ- न्य स्वारस्य हानिं हए विन्‌ वे अछग कसते बन गथ पर नाटकं रचना निम एवं सविधानकमधान्‌ रहती हे, अतः उसका करीकाभी [ग पथङ्‌ किया नात्ते€ बह विग दख पडने कगता ई; भर याद्‌ वह भगहा किया नाय तो उसके थोड़से अरग कणे भे काम नही चरता मैस सवका पच किंतनादी छवा क्रयोन हो प्र उसमें यष्ट टुकड़ा करल्या नासकता ६; पर वैसा टकडा कीसी परमोकछृष्ट १/५

वा चिन्मे पथक्‌ नदीं क्षिया जा सकता एतावता मवघरातिकं। भणि

भवभूति ८९

तके रसका जिन्हे भनुभव केना हो उन्हे समुचित है कि, वे उसके तनो ` नायकोके उक्कृष्ट स्थरोका जो पीछे उद्धिखित रोके रै, ध्यानपूर्व्यैक देख-सारंश उन्दं उन नाकोको आद्योपांत विचारना चाद्य पर हसा करनका निन्दे अवकाशा नही है, वा निन्दे अवसर तो भाप्रह ` पर अ्रथोके गुणोकी यथावत्‌ आराचना करनेक योग्य निनक बुद्धिका रसा- स्वादनपटुता अयावधि प्राप् नरी हुईं दे उन पाटकोके घ्यि निन्न शिसित संग्रह जसे वनपडे फिया जाता मदनोयानमे प्रथमतः माधव माखती के दष्टिपथमे तेरी उसकी शगार चष्टाओके योगसे उषकी ( माधवकी ) जो अवस्था हृ उसका वह्‌ स्वय मकरके मरति वृभन करता हेः- वि अनरातिर्‌ किसाप वाग्वा वृत्त पेचित्यणुदटूमितविभिम्त्सक््याः। तद्भूरिसात्विकिषिकारमपास्तय्यं- माचाय्येकं विजयि सान्पथमाविक्षीत्‌ ततश्च, स्तिसितविकसितानायुद्टेसद्भ्ररतानां मसृणसुकुख्तिानां परांतविस्तारभाजाम्‌ प्रतिनयननिपाते फिचिदाकौवितानां विविधपदषथुवं एनमारुकितानाम्‌

तश्च, अरसवर्तिसुग्क्लिषधनिष्पंद्संदे- रधिकविकसदंतर्विस्मयस्भेरतारेः इदयमश्चरणं पक्ष्षर््याःकराक्षे- र-इतषपविदं पीतञ्ुनमूखितम्च मारत माधव

९० संस्कतकविपंचक वैसेही दसरे दो भरसं्गोका व्णन-

सुभ्ूविखास्षमथसोऽयमितीरयित्वा सुप्रत्यमिज्ञमिव मामवरोकष्य तस्याः। अन्योन्यभाव्चतुरेण सखीजनेन मुक्तास्तदा स्मितसुधामधुराः कटाक्षः: यान्त्या मुहुवेखितकंधरमाननं तत्‌ आवृततवृतरातपननिभं वृहन्त्या। दिग्धोऽमूतेन विषेण पक्ष्मख्ष्या गाढं निखात इव मे हदये कटाक्षः मारतीकी बनाई हई माधव कौ मतिक्ृति करहसने नव उसे क्ष तब मकरदेके अनुरोधवश उसने भी वहां मारतीकी तस्वीर निकाल दी ओर तुरतह उसने एक इछोक बनाकर नीचे छख दिया- जगति जयिनस्ते ते भावा नवेन्दुकङादयः ` प्रकरुतिसधुशः संत्येवान्ये मनो मदयन्ति ये भष्‌ तु यदियं याता ठोकषे विरोचनचंद्विका नयनविषयं जन्पन्धेकः एव महोत्वः मारती माधव हम नदी समञ्चते कि, भपनी हृदयवह्वभाके चित्रफरुकपर अत्यतं सरस पद एवं अ्संपन्न सुभाषित भिस रसिकको छिखना होगा उसे वह उक्तकी अपेक्षा उन्कृष्ट ओर कही उपरुब्ध हो सकेगा ! मारुतीके कामदेवायतनसे सपरिवार प्रस्थित हैनेपर उसंकी एक सखी ( रवंगिका ) पुष्प विननेके व्यानसे माधवके निकट भायी, ओर उससे वकुरुहार मांगने कमी सो वृत्तांत माधव मकरेदस्े कथन करता है-

भवभूति। ९१

माधवः-सखे ! श्रूयताम्‌ अथ तस्याः करेणकारोहणसमय एव महतः सखीकदंवकादन्यतमा वारयोषिद्धिकंन्य वाख्वकुरुकुसुमावचयक्रमेण नेदी- यसी भूत्वा प्रणम्य कुसुमापीडव्याजेन ममिवमुक्त वती महाभाग सुदिरष्ट गुण तया रमणीय एष वः सुमनसां सत्रििरः कृतहश्नीच ना भत्तदारिका वत्तेते तस्यामभिनवो विचित्रः कुसुमेषु व्यापारः तद्धवतु कृतार्थता वेदग्ध्यस्य फरतु निमौणरमणीयता विधावुः आसादयतु सरस एष भरैदारिकायां केठावरुंबनमहा्य॑तामिति "1 #

मकरेदः-अहो वैदग्ध्यम्‌ !

लवगिकाको संबोधन दे मकरदने नो उक्त उक्ति पयुक्त की है उसी उक्तिका प्रयोग सा कौन सददय पाठक है नो नारककर््तीके विषयमे करेगा!

उक्त समस्त संग्रह केवर प्रथम अंककेटी है, ओर यह इस नाटकके श्रृगारका आरभमात है पर यही नहां अत्यत पूर्ण॑ताको पहुंचा है वहां इस कविकी श्रंगारविषयक उक्त विरेषता स्पष्टरूपसे रक्षित होती यह अंक भाठवां है। इसके स्थर, समय ओर घटना बहुतही उत्तम भ्यु- क्त कीगयी स्थान वनपदेश, समय ऋतुरान वसतमासकी मध्य रात्रि, ओर उसी समय चंदरका उदय, बर घटना भी तदनुकूर-नायक नायिका जथ एक ससी इन्दी तीनोका बर्हांपर विद्यमान होना इसके सिवाय उस दिन उत्तरोत्तर जो चमत्कारननक षटनारं हृई-अर्थावि मदनोयानमे नो साक्षात्कार हा, बाषके छूटने ओर कयारुकुंडर्के मारुतीके ठेनानेकी भयावनी घटना, वैसेही दोनो अवसर पर मर्दति कियाहंजा माधवका पराक्रम, ग्रामदेवीके देवारयरमे कियिहुए विनोदका मीर माधवके लिये उनके भिन्न अथे होक है एेसे द्ववथी श्षब्द उपर स्थ॒लाक्षरो- द्वार मरददवित कि गये "विधातुः भौर (्सरसः' स्दृको मी श्लिष्ट माना हे यट

सचको विलक्षण जान पडेगा, प्र सवाद्की ध्वनिक ओर किचित्‌ विङेष ध्यान देनेसे तत्क्षण हृत रोताहं कि उक्त वाक्यकलापम्‌ लेषुमत पर्त |

९२ संस्छतकविपेचक

वत्तात-उस समयके श्रगरके उदीपनकौ यह सव पूरी सामग्री होनेपर भमी हमरि कविने अपनी सदातनकौ भथा परित्यक्त नीं की श्रगारमे अत्यंत छीन.न हौ नायिकाकेो परम भूषणसूप जो शाढी नता (छना ) सो इस चुट्कुरमे परमोक्ृष्टतपूर्न्वक दिखरायी गई ‡६, ओर इस नाटकमे उक्त रस यदपि इसी स्थानपर पूर्णताको प्राप्त हा है तथापि ओर नाटकोमे वह निसपकारका दीखपडताहि उससे यहाकी बाति वहुतदहौी भिन्न पायी नाती है अस्तु, अंतमे उसके विषम हम अपने पाठर्कोको इतनाही सूचित करना चाहते कि, उक्त सग्रह यहां स्थानसंकोचवश उद्वत नही हो सकता अतः निन्दे अपनी इच्छा तप्त करना हा उन्हे उचित है कै, वे मूटयन्थ वा उसके अनुवादका अवलोकन करे

पिच्छे सब संग्रह शुद्ध शरंगारके अव नहां वह रसातरमिभरित हुआ है वहाकि कुछ उदाहरण नीचे छ्खि नाते हे

इस नाटकका वणेन करतीबार पीछे यह बात छ्खिही अये है फि, पंचव अंके शृंगार उदात्तरूप होकर वीर करूणादिं अपर रसोसे संयुक्त हुआ है अतः अगे पद्योका विचार करनकेदेत॒ पाठकोको उस अंकक संविधानकक। स्मरण करना परमावदयक

माधवः-महाभागे ! भेतव्यम्‌

भरण रषये कां त्यक्त्वा प्रतापनिएणर-

प्रकटितनिजस्मेहः सोऽयं सखा पुश्एव ते

# अवधनिवासी श्रीयुत लाला सीतारामजी वी. ए. ( उपनाम भूप ) कविते भनी पाचन नाटकमणिमाहामे भवमूतिके तीनो नाटकोकों दिरीमे गुषित क्रिया हे केवल मा- पाजाननेवाे काव्यरषाप्रतपानपटुलोग इसकेद्वारा भी भवमूतिकी सर्वांग सद्र अनूटी मूढ उक्तिका अनुमानद्ररा भानदानुमव करसकते दै।उ्तररामचारेत) के। पदित नंरटाटजी टे बी.ए. ते भी अनुवादित किया है इनके भनुवाद्मे विकषेषता हे कि) सस्छतके रले।क

जिन छोमे न्दः ठंदोमे उनका भापातुवाद क्रिया गया

भवभूति ९३

सुत ! विनोत्कंपं सेपस्यसाविह्‌ पाप्नः फटमतभवल्युयं पापः प्रतीपतिपाकफेनः मारुती माधव माधवः ( सछन्नम्‌ ) त्वत्पणिपफनपशियिहपुण्यनन्मा गयासपित्यभिनिवेक्ठाकद्थ्येमानः। भ्राम्यसर्मासपणनाय परेतथूमा- वाकण्थं भीरु ! शूदितानि तवागतोऽस्मि -दरात्मन्‌ ! पाषण्ड ! चाड ! असारं संसारं परिशुषितरत्नं चिशुवनं निररं रोकं सरणक्षरणं बंधवननम्‌ अद्षै कद्यं जननयननिमौणभफरं नगन्ीणोरण्यं कथमि पिधातुं व्यवकितः

~=

चामुंडाको बलिप्रदान करनेकेखिये अघोर घट जब माख्ती को पस्तुत कर रहाथा तव वह्‌ षडे दीधे स्वरसे चिह्ठाती थी वह आत्तै- नाद्‌ माधवको कणेगत होतेहौ इमश्चानमे तरक्षण उसकी नो अवस्था होगयी सो- माधवः-( साकूतमाकण्य ) नादेस्तार्वद्रकलष्करशैकूजितस्निग्धतारः चित्ताकर्षी परिचित इव भोऽकषवादमेति ) अंतभित्नं भरमति दृदयं विहरूत्येगमेगे देहस्तभःस्खर्ति गतिःकःप्रकारःकिमेतत्‌

९४ संस्कृतकविषैचकं

आगे उसके उस घोर भाणसकटको स्वयं देख ओर उक्षकी विरक्षण रक्षाका विचार कर बह कहता है- माधवः-अहो नु खहुभोः। तदेतत्काकताटीयं नाम संभरति हि राहोंद्रकरामिवाननचरीं देवात्समासाय मे दस्योरस्य कृपाणपातपिषयादाच्छिन्दतश्रयसीम्‌ आतकाष्रिकलं द्रुतं करुणया विक्षोभितं विस्मयात्‌ कोधेन ज्वछितं युदा पिकंपितं चेतः कथं वत्तताम्‌॥ उस अचिन्त्य जवसरपर माधवके मनमें जो नाना भकारकी तर्स सदसा उद्भूत हई उनका वणेन उक्त गोकोमे कैसा उक्छृष्ट किया गया है ! एेसी षटनाओंकी कल्पना कर उन्हे पाठक वा प्क्षकेकि समीप यथावत्‌ उपस्थित करदेनेकेखियि यन्थकत्ताको मानवीस्वभावका अथीव्‌ मनुष्यके हृदयस्थ विचारोका पृणज्ञान अत्यावदयक है उसे भवभूतिने इस स्थान प्र इतनी उत्तमताके साथ प्रदर्शित किया है कि, इस नाटककी समरो चना छिखता यार बिरूसन्‌ साहबने शिखा है कि, इस विषय मेँ यह्‌ कवि, कङिदाससे थी कही बठृगया ! तिम्नर्खित पद्य करुणाभेभ्रित श्रंगारका उदाहरण दै- निकामं क्षामांमी सरसकदीगभेसुभगा कृठजेषामूत्तिः शशिन इव नेबोतसवकरी। अवस्थामापन्ना मदनदहनोदाहविषुर- मियं नःकल्याणीं रमयति मनः कंपयाति माङतीमाधव > मारतीका विवाह नब नन्द्नके साथ निश्चित हो गया जीर माध- वको उसके प्राधिकी अणुमात् भी आश्ञा नही रदी तथकी उसकी दुःखोक्ति-

भवभूति ९९५

चिरादाशातन्ृखटतु नदिनी सूजभिदये महानाधिष्यापिर्निरवधिरिदानीम्परसरत्‌ प्रतिष्टामव्याजं ब्रनतु मयि पारिपवधुरा विधिः स्वास्थ्यं धत्तां भवतु कृतकृत्यश्च मरनः॥ अथवा समानमरमाणं जनमसुरुभं भायितवतो विधो वामारस्मे षम सखुचितेषा परिणतिः तथाप्यस्मिन्दानश्रवणसमयेऽस्याःमरविथरु- त्यम प्रातन्द्रय्ुतिवदनमन्तदैहति साम्‌ मारुतीमाधवं विनोदुप्रधान भरगारका उदाहरण रवेगिका वयं तथा नाप यृदात्थं किषृदा- स्ययं त्वकस्माद्िकर्ःकर्थाते } कदम्बगोराकृदिमाभितः कथं विरद्धग्धःकुखकन्यकाजनः मारतीम।(धव चित्रपरको देख भूतपुष्वे वृ्तान्तोका स्मरण हो आनेपर भिन्न भिन्त स्थानके पव्वतुमूत सखका राम वर्णन कसते ह- अङ्सटुकितसुग्धान्यप्वसभ्नातखेद्‌त्‌ अशिथिकपरिरम्भदेत्तसंबादनानि परिमृदितमृणारीद्येखान्यङ्गकानि त्वमुरसि मम कृत्वा यच निद्रामवाप्ता उत्तररामचरसिति

५६ सस्कृतकपिर्पचकः

केषरि केषपि मन्द्‌ पन्दसासत्तियोगा- ददविरछितकपोडं जल्पतोश्फमेण अक्षिथिपीररम्भव्यापृतेकेकदोष्णो-

रपिंदितमतथाक्ता राचिरेव स्यर्सीत्‌ पृष्पकविमा नारूढ्‌ हो अयोध्याको रीरतीषार रामको सीताके भरथम अभिज्ञान ( पहिचान ) दायक उत्तरीयके मिलने पर उन्हेनो हष हुभा उसका वे वणन करते है- रसः चारच्छतकरप्रकाश्चः कृयिऽपि कृपूरवरगपूरः स्वान्तेऽपि शन्द्राषतकुम्भेक- स्तद्‌ यदाकीत्किर दष्मा्म्‌ महाीरचरित इतने संग्रह बस होगि।उक्त पयोके मननद्वाश भवभूतिके भृंगारवणेनका रूप पाठकोके ध्यानमे आही गया होगा गव इसी बातके आधारसे भवभतिकी जीवनथाचके विषयम नो एक बात अनुमित होती हैउसे यहांपर लिखकर इस रसके निरूपणकेो हम शेष करेगे सस्कृतके ओर कृविरयोकी अपेक्षा भवभृतिके शंगारदणनमे जो विशेषता दीख पडती हे उसका कोई कारण अवदय दी होगा इसका मधान कारण कविका प्रदतिनात मनोधर्मं तो हेही पर नब कि, मनुष्यका स्वभाव अन्ता एकसा भायः नही रहता किन्तु संसारकी अनेकभाति की वर्ना ओके अनसार न्यूनाधिक होता नाता देसी अवस्थामे उनका विचार

~~~ ~~~ भदस इटोक के विषयमे पण्डितप्रसिद्ध जो भाख्याधिका है सो प्च्लि“ भवमूति? ७० पृष्ठकी तेरहषी ( १द) पक्तेमे देखिये ¦

भवभूति ९७

करना प्रभावर्यक है भवभूतिके वैशका वणन आदिमे दियारी गया है उससे स्पष्ट बोध होता है कि, वह रुध्मीकृपापात्र था अगि उसकी कविताशाक्ति प्रकटित हो चारो ओर कीर्तिं विस्तृतहो भाग्योदय होता-अथौत्‌ पराचीन रानारोगोके सम्पदायानुसखार कवित्व गुणपर मोदित हा वा केवर कीर्विके प्रीत्यथेही कोई राना उसे अपने यहां टिक।कर उसकी मानमान्यता बटाता पर भपने कविको ननकीर्ति रानसत्कार इन दोनोमेसे एकभी पाप् नधहुजा सो उप्‌ कथित हो- ही चका हे अथवा उत्त उक्त दु.खद्‌ अवस्था होनेका कारण वह्‌ स्वयं ही हृजा हो इसर्मेभी यक्किथित्‌ शका नकष नानपडती | अप्र इधर मा ईग्रेण्ड, फ्रान्स ओ९ अमेरिकादि जानसम्न्न देगोमे गुणवान्‌ मनु- ष्यको किसकी ठकुरसुहाती करते गुणको विदोष रामा देनेवाटी निः- सपृहत्ताका उपयोग ठेनेका अवसर दाथ र्गा हे क्योकि स्वैस्ताधारणमें . ज्ञानका अधिक फैङाव होनिके कार्ण गुणाग्रारी जनभी वहत होगये हे, अतः अन्थमरणताके उसका योग्यतानुरूप उक्त रोगोसे ही श्रय भिरनाता है। पर देसी अवस्था आनपय्यैन्त किसीभी दशमे नथी) यदीकास्णथा कि, जिस किसीको परभिद्ध रोना होता वह्‌ कैसादी गुणी क्यो हो पर विना छन्नाको तिरखा्नटि दिये.जौर भात्- दूरावाकी शरण ययि, वा अपने स्वामियोके मनोधारणा वाम्देवीको नररैकीकी नाई नचाये, निनेष्टडाभाथे उसे उपायन्तर दी था सम्पति सारनछाग अधिक होनेके कारण मलत्सरादि दुगुणोकी रपेक्षाहो गणकी थोड़ी बहुन परीक्षा हरी नाती है, एतावता गुणवान्‌ रोगोकी सहस्रा अव्‌ देखना नही हनि पाती, पर पुराकालमे यह बाते कही कुड थी तवकी दुःखजनक अक्स्थाका वणेन महर्षिं मर्वृहारेनीने आत्मानुभवंसे बहुत 2 यथाथं लिखा रहैः- योद्धाे सत्सर्यस्ताः प्रभवः स्सयदूषिताः

-जकोषोपहेतास्चानय जीगेभमे सुभाषितम्‌

९८ संस्क्रतक विष॑चकः

“गुणपरीक्षक मत्सरी हो रहे रै; रानाछोग अभिमानके मारे मर रहे है; अपरः छोगोकी वातही क्या ! उन्दँ कुछ वोधही नही है; एतावता कवित्वराक्ति उदयको प्राप्र हो भीतरके भीतरही टपर हो नाती है ।'" अस्तु; कहनेका अभिमाय यह है कि, उक्त भरकारकी अनेक बाधाएं पा- चीन काठमे गन्थकत्तौकी मसिद्धिके मामे आडी आती धी; ओर नो रोग ठकुरसोहाती करसकते थे, वा वैसा करनेको जो नीचता एवं अधमत। समञ्चते थे,उन्हे निनङृपापा् बनानेके हेतु उनके निकट ननिके स्यि रक््मी- को कोई मागेदी मिता था अनुमानसे नाना नाता है कि, भवमू- तिकीभी यही अवस्था इई होगी; क्योकि उस समय सेपूरणं देश दूर- नाओींके अधिकारर्मेही होनेके कारण भवभूति नेसे कविचृडामणिकेभी अवक्त कर घर पुरत आयेहृए भाग्यकी कोई उयेक्षा करता ! प्र अपने कविके गभीर एवे उदार मनको रानाश्रित शो विभवानुभव कसे- की अपेक्षा दरिद्रावस्थामेही स्वतंत्र रहकर अपनी वग्देवीको निष्करंका ` रखना अधिकतर अभीष्ट होगा रेता बोध होता है उसका यह सुट निश्चय निंदकोकी भवज्ञा वा अपने यंथोकी यथेष्ट स्याति होनेके कारण आगे कदाचित्‌ वे नष्ट रोनायगे इस भयसे टुकमा नही इयः; आ्मकवित्वका उसे सा दृट्‌ विश्वास थ, ओर उसमें सी विुक्षण मेदता थी कि, अपने कारके छोगोकी निदासे हतोत्साह हो उसने भावी कार्परही दृट्‌ भरोसा रक्खा, ओर भविव्यतमे मत्कृतिं अभिनं- दित होगी यह उसने भविष्यकथन किया, यह सब बाते परम आचय को उपनाती है, ओंर साथी इनसे हमारे कविके मनकी अथाह गंभीरता का अनुमान हो सकता है ! सारांश भवभूतिको रानद्गौरका संपकं कधी- भीन होनेके कारण उसके मनकी आ्यावस्थामे कदापि अंतर नही पड़ा, ओर हम समक्षते है यही कारण है कि, उसके श्रंगारवणनमे एसी अपूर्व शुद्धता दष्टिगत होती हे .

भवभूतिने अपने तीनों नाटकोमें वीररसको पूणरूपसे छिखा है आर 'महावीरपारेत मे तो वह मधान ही रै रेष दोनों वह कोन कने

भवभूति ९९. परसर्गोपरछाया गया है सोभी पीके उनके संविधानकोमे वर्णेत होरी चका है नीचे इस रसके उत्कृष्ट उदाहरण ओरभी ख्खिनति हः

जामदगन्यः--अहो दुरात्मनः क्षमियबयेरनात्मन्ञता ! अस्तं यदि नाम मूतकरूणासंतानरांतात्मन- स्तेन व्यारुजता धसुरभगवतो देवाद्भवानीपतेः। तत्पुथस्तु मदापतारकदधादिरवस्य दत्तोत्सवः स्कंदः स्कंद इव प्रियोऽहमथवा हिष्यः कर्थ शुतः॥ एष मे प्ररमस्य कंशः पारेणामः यक्षत्िथष्वपि पुनः स्थितमाधिपत्य तेरेव संप्रति धृतानि पुतधेनरंषि उन्मादयतां सुनयेन मयाऽपि तेषा- युच्छुखलखानि चरितानि पुनः शतानि महावीरचरितं > -आः क्षिज्रियमटो अति नाम पगत्भसे

प्रहर नमत चापं प्राक््रहारप्रियोऽहं

म॒यि तु कृतनिवाते किं विदध्याः प्रेण

धिगिति षिततव्हयुद्रारभास्वत्छुखा-

प्रविवटितकटोरस्कंषषेधः कवेधः॥

-एतस्य राधवशिशोः कृतचापरस्य

ट्त्व ्चिये मयि वनाय पुनः प्रयाते

स्वस्थाशिराय रघवो जनकाश्च सन्तु

माभूत्‌ पुनवेत कथचिदतिप्रसंगः महावीरचरित >

१०० संस्कृतकवि्पचक

“महावीर चारेत"' मे आदित अंते श्रीमदरामचंदनीके पराक्रमकाही वणेन प्रधान हानके कारण वह्‌ प्रायः वीररसमयही हो गया है अत उससे जितने इछाक उद्धत कियिनार्थं उतने थोडही अब इस वीरर- सको विशेष रोभादेनेवाा नो एक दसरा गण भवभतिके नाटकांतग॑त सवादोमे कदी कही पायानाता है उसका यहां पर उद्टेख किया नाता है वह यह कि, निम्र छिखितं वीरतोषित संवादोमे उदंडता नाम माके नही पायी नाती, बरन्‌ वे विनय ओर चा्य॑युक्त पये नति हैँ

वाङ्िरामो-{ अन्योन्यमुदिद्य )

कृषि त्वया इह ल्या वर्मष्यपहत्छवः। कि चिदानीवतिकरते त्वथ्यवीरा वसुंधय महावीरचरित वेसेही चन्द्रकेतुः-भो भो. इमार्‌ ! अत्यद्तादपि शुणातिशयास्ियोषे तस्मात्हख तमसि यन्षम तत्तवैव त॒त्कि निने परिजने कृद करोषि नन्वेष द्पेनिकषश्तंव्‌ चंद्केतुः उत्तररामचरित द! माङतीके अचित्य पाणसंकटके समय माधव चापुंडाके मंदिरे अचा- नक नव जा परहुचा तब वहं अघोरघटपर्‌ कृपाण उठाकर धिक्कारपृव्वैक सक्रोध उसे कहता है माधवः-रे रे पाप! प्रणायस्छीखीखयरिहसिश्ाधिभते- ठेडिताशरीषपुष्यहननेरि ताम्यति यत्‌

भवभूति १०१

वुपुषि वधाय तञ त्तव राखभुपक्षिपतः पततु हिरस्यकांडयषद्ण्ड इषेष युजः मालती माधव वैसेही ओर थोडासा जागे षट्के, ----अयि भीर्‌ ! ध्यै निधेहि द्ये इत एष पापः कि दा कदाचिदपि केनचिद्न्वथाविं सारससंगरदिधामिथङ्ुभङ्ट- कुदकपाणिङ्लिक्षस्य इरेः प्रमादः चद्केतु ओर रवकी भेट हेनिपर परस्परम शरतापूरित वात्तशाष हभा उस समय छव अपुयापृव्वंक शमचन्द्रनका उपहास करके कहता हैः- रिदं छ्चेतद्ाचि वीय्यै द्विजानां वाहुोवय्यं यत्त॒ ततक्षभियाणास्‌। शाश्चारी ब्रह्मणो जाघद्न्यः तस्मिच्‌ दान्ते का स्तुतिस्तस्य ाज्ञः॥ उत्तर रामचारत वृद्धास्ते विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु वतेते संदश्चीदसनेऽप्यखण्डयक्षसो सोके महति हिते यानि वीण्य़तोभयान्यपि पदान्याप्तच्‌ खशयोधने यद्रा कोशरमिद्सुडदसने तथाप्यभिज्ञो जनः अव इक्षके आगे करणारसके विषयम आलोचना की नाती है उक्त दोनोकि भधानस्थर यथाक्रम नेसे ' मारतीमाधव अर 'महावीरचरितः

१० संस्क्ृतकवि्पचक

है, वेसेही इस रसका मुख्यस्थान " उत्तररामर्चारत है भवभूतिका ठेसा कुछ अभिप्राय दीख पड़ता है किं, आठ रसेर्मिसे मरूय नो परहिषे तीन है उनमेसे मत्येककी छया एकेक नाटकमें दर्शित की जवि उनमें से पिरे दोके संग्रह उपर उद्रृत हेही चके है; उन्हे पद्‌ हमारे रसि- कं पाटकोको पूर्णतया ज्ञात होचुका होगा कि, उस उस रसको पाठकोके चित्तपर भतिम्बिमित करनेकी शक्ति हमरे कविमे कैसी विरक्षण थी वैसेही वर्तमान रसकाभी प्रारेपाक उतारनेमे वह कहां समथ हभा है सोभी पाठकोको भावी संयहदारा त्यक्ष हो नायगा परन्तु वैसा कर- नेके पवय षी कटीहुई एक वात पाठकोको पुनः एकवार सूचित कर- ता आकयक नानपडता है वह यह किं, नाटकके परद्यादि यदि अग निकरे जाये तौ उनका पूव्वीपर सन्दभ दरू जनेके कारण बहुधा वे नीरस हो नति है; अथीद्‌ सम्पूणं नाटक बा अद्ध पटुनेसे तदन्तगैत भा- पणादिका रसानुभव जैसा पूणं ओौर यथार्थे हो सकता है वैसा केवर उसीके पटृनेसे कदापि नही हो सकता, तथापि जव कि, यह निबन्ध एक भकारसे भा्कथन स्वरूप है-मथौव्‌ तत्तव काषिके ग्रथमे पाठकका भवे हो उसका कुकी माम्मिकञ्ञान पाठकको होनाय यही इसका प्रधान अभिप्राय है-तौ परववकमातुसार करुणारसकेभी कतिपय उदाहरण यहां रिखिनाने चाहिये बे निःसन्देहं अपूर्ण र्डेगे ओर तद्दारा पाठकोको उक्त रसके स्वरूपका नो ज्ञान होगा सरोभी वेसेही अंशतः मातर होगा अस्तु

्मुखके सीताविषयकः जनापवादं रामके कानमे कहंते ही वे वेसुधहो तुरन्त धरती पर गिरपडे भिर नब सचेतहुए तव मनोमन कहत ईैः- रामः-{ आाद्वस्य ) हा हा धिक्‌ परशवासदूपणं यद्‌ वैदेह्याः प्ररमितमद्धतेरुपायेः

भवभूति १०३

एतत्त्पुनरपि दैवदुभ्विपाका- दाटकं विषमिव सव्वेतः प्रसृप्तम्‌ इस भद्गतिछन्दका प्रयोग यहाकी षटनाको अत्यन्त अनुक वोध होता है 1 रामनीके चित्तपर जो सहसा आधात हुजा उसके योगसे उनका कण्ठ भर्‌ आया क्योकि उक्त उक्तिके श्रवणमाञसे यह बोध होता है कि, वह्‌ अत्यन्त कषटपु्वैक व्यक्त की गयी अगि निद्रादेवी्क गोदरमे पडू सीतानीको सम्बोधन दे रामचन्द्‌- नी करते हैः-- त्वया जगन्ति पुण्यानि त्य्यएण्या जनोक्तयः। नाथवन्तस्त्वया खकास्त्वपना्था वियत्स्यस अनन्तर उह बनमे परित्यक्तकरनेके कठोर निद्वयको स्थिरकर, उनने उस कार्य्येका भार दुमुंखपर अर्पित किया, ओर मे घातक अपने कर- स्परीसे देवीको श्यो अयुद्ध करू एेसा कद्‌ रामचन्दजीने सीताजीका शिर उठाकर अपना हाथ खीच छया ओर बोेः-- अपूवैकम्पेचाण्डाठमयि सधु वियु माम्‌। ्रत्ताऽसि चन्द्नघ्रन्त्या दुविपाके विषद्रुमम्‌ तदत्‌ विभ्रम्भादुरसि निपस्य रब्धनिद्रा- युन्यच्य प्रियग॒हिणी गृहस्य शोभाम्‌ आतङ्कस्फ़ारितकोरगम्भयनी कभ्याद्धयो बलिमिव निधरंणः क्षिपामि उत्तररामघरित प्रनाराधनफे निमित्त रामन्दनीने साहसममुख सीतानीका भी पारत्या- तक्षं कर तो सच दिया पर आगे वह बात सन्तत उनके चित्तमे ख-

१०४ संस्कुतकविपंचकः

टकरतीही रही उनका विरह पथमे दःसह था तिस्र परभी उनके साथ उन्हेन नो नो घोस्वानौ का उसक योगसे वह अत्यन्त तीव्र हो उनके हदयस भिदगया गमचन्द्रनीकी निम्नोक्त उं केसी स्वभावसुरभ एवं हदयमेदक है सो पाटक स्वयं विचार ठे रे हस्त दक्षिण प्रतस्य शिशोर्िनस्य सदीतव्‌ वसृन शु्डना इण्‌ | र[वर्व भरवां इदहगधालन्र- सतावदुद्नपट(; कर्ण्‌ इतस्त उत्तररामचारेत ` निस दंडकारण्यके रम्य पदेशोमे अभी कु वषकि परव्वं रामचंद्रनीने ननकनेदिनीके साथ आनन्दपदवेक दिवत्त वितामे थे उन्ही के पुनः म्रसंगव दा दृष्टिपथमे आनेपर उनकी नो अवस्था हुई सो अगे पदमे कितनी उ- तकृष्टताके साथ रक्षित की गयी ! रामः--हंत परिहरतमपि मामितः पचवर्टीस्नेहो वरादपकषेतीव ( सकरुणम्‌ ) यस्यति दिवसास्तथा षणा नीता यथा स्वे ग्रहै

यृत्छदाधकथ्ररद सतत दावािरास्थयतं।

एकः स्रत नाश ताद्यतमस्तसय सस पापः पञ्चवट विखकयतु दा यच्छत्वस यव्य स्‌

यत दुम्‌ अपि शभा अपि बधकम

यानि प्रियासहवराश्वेरध्यवातहस्‌

एतानि तानि वहुनिश्चरकंदसणिं )दावरीपरिशरस्य गिरेस्तटानि

~~~

भवभूष्ते १५५

उक्त कथनानुसार्‌ रामचन्दरनी दडकारण्यके पूरवेपरिचित भिन्न र्‌ स्थ रोका अवछकनक्षरते किर ररेरीये कि, वहांकी बनेदवी सीताकी सखी वासंती उन्हे भिष्टी उसे सीता विवासनका संवाद ज्ञात ही चका था अतः वनसंबधीय इधर उधरकी बति प्रथम रहोनाने पर उसने आंखेमे पानी छा समचन्दनीसे एखा महाराज! कवर रक्ष्मण नी कुश तो हैन? परंतु रामचन्दनीका चित्त उन पू्वपािवित स्थानोकत अवलोकनमे नितांत मङ्ग होगया था, अतः वासतीसे बात चीतहो रही थी तोभी उसके उक्त भश्को विकर अनसुनासा कर वे मनो- मन कहते हैँ (क कि) वली करकमरवरताणरडनअरशष्प- नङ्‌ 9 भ्र, कव ^ © स्तरुशड्ानङरगार्‌ भाथला अनषुष्पत्‌। (> पि ~ सदत पम्‌ वकररस्तडु शयु करप य्‌ 4 द्रवं इव्‌ इद्यस्य प्रस्तरदद्‌ पश्यः उत्तररमचरित वासंतीने वही प्रश्न फिर किया। उसे सुनतेरी उसका आशय > ना- नकर रामचन्द्रनी अतीव करूणाद्रं होगये, ओर विप करनेखगे आगे रामजीने सीता सतीकेसाथनो कठोरता की तदथै वाती उनका उपाेभ करती हैः-- =, 09 (> * (~ > त्वं जीवितं त्वमसि भे दयं द्वितीयं 4 = त्व्‌ त्वं कोञुदी नयनयोरमृतं त्वभगे

>€ वास्तवे वा्षुतीको भपनी प्रेय संदी सीताके विषयमे पूछताछ करनी चाहिय थी प्र उनकी चातदी मेष होगयी एषा समञ्चकर उसने टर््मणजीं कै विषयमे प्र्च किया 1 इम चातन राभचन्द्रजीके चित्तपर एसी गभीर चैर की कि) उन का कण्ठ करणि भमरभा- या} इसके सिवाय दूस चात यं क्रि, पूर््वैका अत्यन्त स्नेदमाव होनेपर भी उसने भपरे- चितकी नाद बहमानप्रमुख उन्दे महाराज सुवोयन किया !

१०६ संस्कूतव्छावेर्पचक

इत्यादिभिः प्रियकतरवरष्य सुग्धां

तामेव शातमथवा किमिहोत्तरेण

अयि कठोर ! यशः किरुते परियं

केषयक्षो ननु घोरमतः प्रियम्‌

फिपभवद्विषिने - हरिणीदश्चः

कथय नाथ ! कथं वत मन्यसे

उत्तररामचरित्‌ परि कालिदासके विषयमे डिखती षार शकुन्तरा' के चै भङ्गा

न्तर्मेत करुणा भौर वत्सररस चुदहति हए,अतः भाचीनकारु से रसिक- प्रियं वनेहुए चार दोकोका हमने उद्टेख किया था, उन्हीकी सम्ताके

भवभुतिके म्न्थोको सुतरां सस्छृतभाषाको परम शोमा प्रप्र हुई है! दुःख अत्यन्त असह्यं होनेपर रामनीका हृदयोद्रार- हा हा देवि स्फुटति हदयं ्ंषते देहबन्धः सन्य मन्ये जगद्‌ विरतन्वालमंतन्वेखामि सीदर्ेथे तमति षिधुरो मलतीवान्तयात्मा विश्वङपोहः स्थगयति कथं मंदभाग्यः करोमि॥ उत्तररामचरित्‌ सीताभीका वनमें वध होगया टेसा समञ्लकर ननकराना शोक करते हः- ननकः-हा वत्से ! नूनं स्वया परिभवश्च नवञ्च वोरं तां व्यथां प्रसवकारुकृतामवाप्य

भवभूति | ०७

कभ्याहूणेघु परितः परिवाश्यल्घु सनस्तया शरणासत्यसकश्त्स्पताऽस्प उत्तररामचरितं इतने संग्रह बहुधा अङं होगे 1 पर ओरभी एक चमत्कृतिभनक है जतः वह यहांपर उद्धृत करिया नाता है ननकात्मजके दुःसह विरहका दुःख कुछ इका हो इर आभिप्रायस रामचदनी भतू वृत्तातस्मा- , रक अनेकं स्थेरोका निरीक्षण कर रह थ, उसी समय वासेतीने पुराका- ल्मे एक टताभवनमे नो षटना है थी उसका सानुनय निवेदन किया हैः- वासती-देवदेव ! अस्पिश्रव ताम्रे त्वमभवस्तन्पागेदततक्षणः सा रसैः कृत्तकोतु्ा चिरमभदरेदवर्यरोधसि आयातया प्रिदुषेनायितमिव त्वा वीक्ष्य बद्स्तया कातय्यदरविदकुडमरूनिभो युग्धःप्रणामांनलिः॥ उक्त पमे हमारे कविने कितनी उत्कृष्टता ओर उत्तमताके साथ उक्त पटना कलसिपित की है } जर समस्त जीवनयातामे अत्यंतं मनो- हर नो मुग्धावस्था सो उक्त दपतीकी केसे हृदयग्राही शब्दोदधारा वर्णित कीहै।

पदी एक नितात दद प्रसगकी कल्पना कािदापषने श्चकृतला' नारकमे की हे उसका यद्ापर उ्ठेख किये विना हमार खनो आगेको नके चलती वह यद्‌ कि, जव शषुन्तला दुष्यतरानाके समप भेजी गयीं थी ओर वह्‌ उसका अमीकार नही करता था तच श्चकुतलाने राजाको स्मरण िलानेके ल्थि ठस छपक्री अगुढी भप्रनी अगुलीते निका- लनेकेशिये यन किया 1 पर उसे षहान पा उसने ततक्षचधीय मूतपएव, ध्यानम वारण करने योग्य एक घटना राजाके समीप निवेद्नकी वह यह्‌ ईः-

("नन्वेक्‌ स्मिन्‌ दिवसे नचमालिकामडपे नलिनोपजमाननगतमुद्क तव इस्ते सत्निटितमा सीत्‌! ततकषणे मे पूक्तके। दरीषीपाद्धा नाम मुगपोतक उपस्थितः त्वयाय तावत्प्रथमं

१०८ सैस्कुतकबिषष्वद

भवभरूतिने करुणरसके विषयमे पराकाष्ठा मरदर्दित की एेसी भाचीन कारुष उसकी कीतिं चटी रही दै। हमरे दुरानि पडितोकी मेडरीमे परसिद्ध संस्टृतके कतियोके विषयमे एक एक पद्य वा वाक्य सथके निहा पर पायाही नाताहै भवभृतिके विषयमे भी निमनोक्त पद्यांश पाया नाता है-

कारुण्यं भवभूतिरेव तनते {

“'करुण्रसका मतिपादन करना अकले मवभृतिकाही काम है 1" ओर यथाथेमे सस्छरतके सब कवियोमें इसके सवधसे उसको समता कर- नेव दो तीन स्यावही निकटं, पर उसते्रेष्ठतो कोई भीनही?। एतावत। पीछे निस भकारत काङिदासके कवित्व गुणविशेषके विषयमे उदात्त रसका नामेष्टेख किया गया हे वैसहौ भवमूतिके विषयमे करणार- सका उद्धिखित करना युक्तिसंगत बोध होता है

इस रसका यथाथ निषपण करनेफा अनाखी हथोटी अपने कविका कयोकर पप्र हुई सो जान लेनेकेखियि गंभीरं विचार्योकी उछश्चनमे फंसने की कोई आवदेयकता वही है कविताका तत्व सहृदयता है; अथात्‌ सब्बे साधारण ओर कविर्मे इतनीही विशेषता कि, हृदयकी नाना भका- रकी वृक्तियां ( निनकी पारिभाषिक सा रसु है) कवि को प्रकृतितः अत्यंत सूक्ष्मता एवे स्पष्टतापएव्वैक भासित होती हैँ भवशतिर्मे यह शक्ति पङृतिदत्त थी ओर उसके सहायक ओर भी दो गुण उसमें थे वे उसके मनकी कोमख्ता ओर शुद्धता हँ उसके इन गुणोका सविस्तर वणन

=~ ~ ~~ - र)

पिवव्वित्यनुकपिनोपच्छन्दित उदकेन पुनस्तेऽपरिचयाद्स्ताभ्यासगुपगतः पशचात्तस्मि- ननैव मया णते सलिलेऽनेन कतः प्रणयः तदा ॒त्वमित्थ प्रहसितोऽसि सर्वैः सगधेषु विश्वसिति द्वावप्यतरारण्यकाविति यंक ] यह एक वायवा किसी समूचे दलोकका अश है सो निश्चयपूल्वैक नही कटा नासता हा इतना अलभे कदा जा सकता है कि शादूलपिकरीडित ततकौ नाई इसकी रचना है

सदश्ति १०९

पे बहुत कुछ हो चका रै, इसफे सिवाय वे उसे केस आधीन थे इसके उत्कृष्ट भमाण श्रगार ओर बीर रसमे स्पष्ट रूपे पाये नति तो फिर करणां स्सकी बातही क्या पना है ! यहां पर्‌ वे परमावदेयफ हो- नैके कारण उनके योगे यह रस परमोत्कषैको याप भा हे

एवोक्त तीन रसोके अतिरिक्त ओरभी नो रस भवभूतिके नाटकौमे उपरन्ध होते है उनके उदाहरण यर्हापर उद्रत करना अनावदयक नान पडता है क्योकि उनसे बहृतेरे तो केवर गौण अर्थात अप्रसंगवशाव्‌ सिद्ध क्यिहए ह, मर अपर स्वरूपतया शुद्धं नहीं दीख पड़त कितु अन्य रसातगैत बोध होते हे यह कहां कहा पर रये गये हँ सो प्रत्येक नाटकके वर्णनकरे साथ र्षि चिखिा ना चुका है, हमे भरोसा है कि, उस वणनको पट हमरे जि्ञापर पाटकगण उक्त स्थानाका दूढ छे सकेगे

पीके एक रथानपर सस्कृतं कवितमे सृष्ट पदाथाका वर्णन किस टगका पाया नाता है सा छिखकर उसम ओंर आधुनिक अंगेरनी क- विता प्रधान मेद क्या पाया नाता है आदि दिखल्या गया था तोभी भवभ्‌तिके विषयमे यहांपर यह छ्खिना अनावद्यक समज्ञा जायगा कि, वहापर सस्कृतके परायः सव कवियोपर नो आक्षेप क्रिया गया है वृह केवर अके भवभूतिकै विषयमे चरितां नही होता आधुनिक अंगरेजी कथियीकी सनावटके ठगपर कियेहुए सृषशटिविभवके वणेन केवर भवभूतिकेदी म्रथोमें पाये नाते है इस कथनका यह अ- भिधाय कदापि नदी कि संस्छृतके ओर कावि्येनि चष्ट परदार्थाका वर्णन छिलादी नहो, हा इतना अनद्य कहा नासकता है कि, उनका ठग निशा है उनके वर्णने कत्तिपय अत्येत प्रसिद्ध # एवं निश्चित

~= -----

% आनंदकः विषय हे किमाषा काव्य की उन्नमि करनेफे अमिप्रायख आजकल बहु तेरे नगरोमे कविसमान, कविसमा, ओर कविमण्डलप्रमृति स्यापि किये गये द, जो यथावस्र समस्या दे उत्तम परकोको उपदहारद्ारा पुरस्कृत करते रहते उक्तषरमाओदवारा दी इई समस्याओकी पृ्तियोभ॑से जो पूतया इमारे दषटिप्थमे आयो है ठन स्मे सिवाय

ठबमक्षारिको = पिष्ट

परम प्रसिद्ध एव निश्चित उपमा मौर ठयेक्षादिकोके पिषटपेपणक्े भाति कोई नई

११० सैस्करतकविप॑चक

बाते की दही नरी सकती; जिन्हे पद्‌ यह शका उपसित हेष कि--उनमेसे वहूतेसोने-निदान आधुनिक लछोगोने निनर्वाणत भृति दद्योका स्वयं अनुभव कदापि नरी छया किंतु माचीन यथोको षद वेषा छख दिया रहं अस्तु, तो हम समञ्जते हँ किं, भवभति रेसे कवियोमेसे था, हमें यहभी विद्वासं है कि, इस विषयमे ओर सव रोग भी हमार अनुमोदन करेगे वस्वर्थं कविके विषयमे यह्‌ घात भसिद्ध है कि, उसने अपनी आंसोसे खष्ठिके निग्र दय, पदाथ, वा चमत्कारको देखा नही उसका वर्णनही उसने नही किया यदी वात वहुधा दमारे कविके विषयमे भी षटित हो सकती ई; कयोकि सेस्कृतके सव कवियोमे विरोषकर उसीने जो ठैर गौरपर प्रकृ- तिके उत्तमोत्तम वणेन छ्खि रहँ उन्हे कविकपोलकासित वा अयथार्थ कहना युक्तियुक्त नह बोध होता संस्छृतके शेष कविर्यो ओर भवभू- तिके वसेद अंगरेन कवियोके कृति व्णेनोमे दुसरा एक महद्धेद यदह स्पष्ट रूपंस दम्गोचर होता कि, परिखोका वणन भायः अरकाररूप- अर्थाव्‌ उपमा रूपक ओर उसेक्षादिगभित-रहता है; पर दृसरोका वसा रहकर बहुतदही सादा रहता है-अ्थव तत्तत्‌ सृष्ट पदाथके केव स्वरूपका वर्णन रहता इससे यरी मतिपादित कि, प्रकृतिदे- वीके भांति भांतिके मनोहर ददयोंका अवछाकन करनेका भवभूतिको परकृतिनात परमोत्साह था हमारे इस अनुमानका परिचय हमर मन- नरीरु पाठकोको निम्नोद्ुत उद्‌हरणोदारा सहनहीम मिरु जायगा.

एवं अनूठी उक्ति) कि जिसके द्वारा लोकोत्तर आनद उपनता है, देखनेमें नर आती विप- प्र भो तसे यह है कि, उनके सचालकगण चन्म कृतार्थेता मानलेते है हम समडति है कि, उक्त कवितारसममंज्ञ एव सदय सचालकगणोको सोचना चाहिये कि) जेस प्रकारका पात्तयां आजकल हेति है उनकी माषा काव्यम उनता नहा है कित्‌ वे आवरयकतासे करी अधिक है अतः उन्हे समुचित है कि) वे निन प्रतिज्ञानुसार माषाकान्यको उन्नत एव चिरस्थित कसनेके हेतु खष्ट पाथेवणेनादि अकमित्र काम्यरचनाकी ओर वर्तमान कषि- योका चित्त आकृष्ट कर ओर उन्हे वैसे काव्य प्रणीत करेनेको उपयुक्त सामग्री वत्तेमाना

उत्रव; माषामोसे लेकर प्रदानकरे

भवभूति) ११२ ईढकारण्यातगेत सष्िविभवका घणेनः--

इहं समदरष्कुताकतषानीश्ीश्त्‌- प्रसवसुरभिरीस्वच्छताया वहन्ति फरुभ्रपरिण।मर्यामनम्बूनिक्षन- स्वट्नयुखरभूरिस्रोतसो निशधेरिण्यः \ उत्तररामेचरेतं एते एव गिरयो विर्वन्पय्‌ श- स्ताय्येव मत्तदरिणानि वनस्थरानि ) आमंसुरवनुरुखतानि तान्यप्नि नीरभनीरनिश्ुखानि रितधनि॥

एते ते कुहरेषु गदरदनदद्रोदावरीवाश्यो मेषारुषितमोटिनीरुशिखशः क्षोणीभृतो दक्षिणाः। अन्योऽन्यप्रतिषातसंङख्चखतकषटोरकोखारडे- रुत्ताखास्त इमे गभीरपयसः पुण्याः सरित्संगमाः म.

रामः-देवि ! रमणीयमेतत्पपासरः एतस्मिन्‌ मदकर्पद्िकाख्यपक्ष-- ग्याधूतस्पुरदुरुद्ण्डपुण्डरीकाः वाष्पाभःप्रिपतनोद्रमांतराछे संरा: च्ुवख्यिनो युषो विभागाः उत्तररामचरित्‌

११२ संस्कतकविप॑नक

मानी माधव) का नवम सङ्क यक्के भित्र दृदयोके वर्णने भग दमा हमार पाटकेमिसे नन्हे काव्यपरिचयके योगसे तादश काव्यरक्षिकता मप्र हेग हो उन्हें उचित है कि, वे उसे मननपुर पर्णरूपते पठ संमति सन्पैसाधारणके अवलोकनार्थं॑ कतिपय पद्य नचि कामित किये नाते है रेवमिनी- भोस्तथाहुत्यतिद्ा यथो दक दुष भिरिनमर

ग्राभसरिदरण्धव्यतिकस्ष्चुषा परिक्षिप्यते

( परश्चाद्विटोकय ) साधु साधु | पदापदीपियछ्गरिविश्चारधिधु- पाशष्षरित्परिकश्च्छरते विभर्ति उुयकधघ्ुशदिरयोएशष्ट पएषट्पाट्तविुकभिवांतरिक्षम्‌

अपिच सेषा विभाति ख्वणा र्खितोभिषक्ि- रश्रागमे सनपद्ययदाय यस्याः। ओगर्थिणीमियनवोट्पमारूशारि सेव्योपकंठदिपिनावट्यो विभाति

( अन्यतोऽवरोक्य )

जयमक्तौ भगवत्याः सिषोर्दारितरसातलमायंस्तययपातः

यत्रत्य एष तु्रखे ष्वनिरुगभः गम्भीरनूतनषनस्तनितप्रचण्डः। पथ्यन्तधभ्रनिङ्ुजविभृमाण- हेरेवकंटरमितप्रतिमानमेति

भवभूति ११३

एताश्वदनाश्वकणसररूपाटरमायतस्गहनाः परिणतमारूरषुरभयेऽरण्य- गिरभूमयः स्मारयति खु तसुणकदंवनंबूवनावनद्धांधकारणगुरुनिक नगभी- र्वरद्रारगोदावरीरवमुखरितविशारुमेखटाभुे दाक्षिणारण्यभुषरान्‌ भयं

मधुमतीसिधुसंभेदपावनो भगवान्‌ भवानीपतिरपौरुपेयमति्ः सुव्ण- विदुरित्याख्यायते-

मकरदः--सख परसीद पर्य

भर, 60

वानीरपसवेनिङलक्षरितापरक्षकवासतं पयः पथ्येतेषु यूथिकासुममकघुन्ंभितं जाख्केः उन्मीरन्छुटनपरशषिषु शिरेशरुन्यं ससूनितः परामरिषु शिखंडिताडवदिधौ सेवेकितानायते

=,

श्रीरामसीताभभृति पष्पकाशूट हौ नद अयोध्याको रुटि हं तब मर- याचरकी ओर तजसो दिखलाकर रमचद्रनी रक्ष्मणजीतत कहत रामः [ अंगुस्या निर्दिशन्‌ | वत्स एता अवुः परिचिनोषि पिरूतषार~ चछा्णापष्ारितदुषारनख्यएयाः उन्ध्च्छर्दच्छपषर्याचटदुग् प्रा्भारनिष्पतितनिश्चस्परभाजः महावीर्चारत रक्ष्मणजैीको भी वहांकी एक भृत्यै घटनाका स्मरण हा आया मत्‌ः वे उसका वर्णन कस्ते है यह ॒चटना पावकी एक रात्रिका उनकी जो अवस्था हुई थी सो हे गर्जोनववैरितासु दि बधिरे तत्सफूनेधुस्फूनिते व्योति भास्यति दुष्प्रभयननदादमेऽप्फदधरे सुहु:

११४ संस्कतकविप॑चक

अक्षप्यान्धयति द्रुमांधतमसे चक्षुः प्रविरय क्षपा

यनात क्षपतां क्षस्नरधर्‌ त्वक्षाश्टक्षाकृते महावीर्चरित उक्त समस्त संग्र राह्यसृष्टिवणनप्रधान हैँ अव अन्तः सधक अथव अतः" रगकी भिन्न भिन्न वृत्तियोका वर्णेन भवमूतिने नहां नहां किया है उनके थोडेसे उदाहरण नेचि उद्धृत किये नाते श्रीरामनी सीतानीके हाथको स्वये निज गलेमे डर तन्नन्य सुखा- नुभव करतेहए कहत दै. विनिश्येतं श्क्षयो सुखपिति वा दुःखमिति वा प्रमाहा निद्रा वा कृञ दिषदद॑स्षपः किमु मदः। तव स्पश स्पचे पम हि परिमृटेद्ियगणो दिकास्शेतन्यं भ्रमयति समीरयति उत्तर रामचारत श्रीरमच॑दनीके मूच्छित होनानपर सीताजी अददय रूपसे उनके खाट दृत ह, ओर उनके करस्पशके योगसे सचेत हो पुनः वे कहत हैः- स्पशः एश एाराचता नियत एष संनीवनभ्‌ सन्तः एरिमोहणय्च सम्ताप्जां सपदि यः प्रतिहत्य सृच्छी- प्रानंददेन जडतां पुनरातनोति उत्तरणमर्चीरत श्रीरामनीको देखतेही वकी श्रुता ओर उद्धतताबुद्धे सहसा लुप्त होगयी ओर तत्क्षण उसके मनकी जो अवस्था हुईं उसका वह्‌ वन करता है'- लवः-जआश्यम्‌

भवभूति + ११५

विरोधो विश्रातः प्रसरति रसो निषेतिवन-

स्तदोद्धत्यं कापि जजति विनयःश्रहयति माम्‌

अटित्यस्थिन्‌ ट्र किमपि परवानस्मि यदि वा

पष्टावेस्तीथानाभिव हि महतां कोऽप्यतिशयः

उत्तर रामचरित

भवभूतिने इनके अतिरिक्तं ओर भी भसंगोकि वर्णेन ण्वि सव वणेन भिन्न रसोके हे, विषयक्रमानुरोधसे पाठकोके अवछोकना्थं हम उनके भी थोड़से उदाहरण नीच छख दते हेः-

( मारतीका वणेन )

( शंगारमधान )

सा रमणीयकनिषेरपिदेवता ष्‌ सोदयेकषरशणुदायनिकेतनं वा तस्याः खे नियतपिदसुधामृणार- ज्योर्स्नारि कास्णमयुन्धदनय्य्‌ वेधाः मार्तीमाघषव ( माठतीने ख्वेगिकाफे धोखे माधव्का आछिगन किया उनका वणेन ) एकोफ़तस्त्वचि निषिक्त इवावपीड्य निशंय सेनङ्कचकदमल्याऽनया पे कृष्रहारहरिचन्दनचन्दरकात- निष्यंदशेवलमृणारुहिमादिविभेः

( मारती मूच्छित होकर पुनः सचेत होती है )

११द्‌ संस्कुतक्विषन्वकः

भधति विततर्वाका सासा प्र्रपयोधरं ददयभपि च्‌ सिनध चक्षरिनग्क्चतौ स्थितम्‌ तद दलं श्रच्छंच्छेदात्‌ श्र्षदि विमते परिगत पारमेऽद्श्रिया सरसीरुहस्‌॥ # १० ( टवकुशको देख श्रीरामचन्नीने सीताजीको पहचान है सो भसंग ) अपि जमकषु्ाणास्त्च तज्चानुद्यं स्फुटमिह जङ्घे वेदुगेद्चियषस्ति नतु धुमरिव्‌ तम्धे शीचरीशूतवक्ष्मे- रमिनवश्चतपयशीषदास्यं पिया उत्तर रामचास्त ( श्रीसताजा जत्र वरनेवास्नं थ) तवक उनृक अरुकारार्दराहत सखकी मुग्ध शोभाका श्रीरामचन्दनी स्मरण करते हें )

वि

अशदुशारेथभवदपसतयद्दहकिनी- परुतरछताछकाङुख्ड्छादवहधुति

# ठक्‌ एेसीहौ वाते विक्रमोवक्शीमें मी वणित - आविभूते शक्चिनि तमसा रिच्यमानेव रात्रि. नैशस्याचिहैतमुनईव छिन्नमूयिष्ठधूमा मोहेनातवैरतनुरिथं हर्यते मुच्यमाना गगा सोध पतनकटुषा गच्छतीव प्रसादम्‌ अक जान पहतादहै इसी उको सामने रख उक्त एटोक लिखा गधा है| तौमी यह भवभति पूर्वोक्त दो शुणोकी विक्षेषता उष्छृ्टतया प्रमाणित करता हे एक तो उस्षकौ स्वत क(व्यरचनाको दृढ प्रतिज्ञा, भोर दूसरा भमी ऊप(८ का गथा उसर्क वर्णन उपमाद्यलंकरस्वरूप नरी ईः किन्तु वे यथवितरदूते इ।

भवभूति) ९१९१७ स्ुङुमकरकितोजस्कपीटमुसक्ष्यते निरायरणसन्दरथवणपाञसेप्यं भुखम्‌

8 ( वीररसमधान ) ( कृ्ङरा तरणन } द0िस्तणीटतलमविवदससाग धौरोद्धता ससयनीवं अिधरितीय्‌ देमुमारकेऽदि मिरिवयुरुतां दधानो वर रसः किषयमेध्युतं दप एव्‌ उना रामनारन्‌ ( चन्द युदय स्टप्रन पर व्धवद् वुत्तावि ) भ्यपवत्तत एप वार्षः पृतनानिसथनति त्यापहूतः। स्तनपित्छुरयादिभावलीना- गरपददिव सिदसाषः

न~~ ~ ~ "~ ~ १८

( बात्छल्यमधान )

( सीतानीकी वान्पात्रस्थाका वर्णन ) अनियतरूदि तस्पितं विरनत्‌ कतिषयकोपरूदन्तदुट्यरूयम्‌ 1दनकतख्कं दिशौ: स्परपि

११८: संस्छतकाविप॑चक स्वंख्दसमंभसमंलजस्पितं ते %&

उत्तर रामचरित [ हास्यप्रधान ] ( अश्वका वणेन ) प्चात्पुच्छं वंहति विपुर तच्च धूनोत्यजस्रं दीषभीवः भवति सुरास्तस्य चत्वार एव राष्पाण्यति प्रकिरति शफूत्पिडकानाम्रमायान्‌ किंवा स्यातेत्रेनति पुनदैरमेष्येहि यामः >

अब केवर एकी रसके उदाहरण छिखनेको रह गये हैँ पीछे काल्दिासके विषयमे छिखतीवार उदात्त रसके बहुत कुछ उदाहरण छ्खि गये है कर्यो कि, वे उसके ग्रथोमें ठैर ्ठौरपर्‌ पये नति हँ पर भवभुतिके नाटर्कोकी बात उससे भिन्न है 'मारती माधव" के नवम ओर (महावीरचारित' के पांच ओर सातवे अंकके अतिरिक्त उक्त रसके उदाहरण अन्यन्न स्यातही पाये नाते है ओर इसका कारण भी स्पष्टही कान्यरचयिताको निसमकार स्वेच्छानुसार अपने

मन्थे विषय सतिविष्ट करनेकेथ्यि अवकाश ॒मिखनाता है उस पर

2 % सस्कृतकान्यरसिकोको यह रोक पद (शर्कुतला' यतेत एतत्समानाथक इलोकक। स्मरण हुए विना रहेगा वह उलोक यह है'- आल्षयदतमुकुलाननिमित्तहासे- रत्यक्तवर्णरमणीयवचः प्रदृत्तीन्‌ अंकाश्रयप्रणयिनस्तनयान वहतो धन्यास्तदगरजया मलिनीमवति अक उकोककी विशेष प्रसिद्धिका कारण पीछे उधिखित होदी चुका हे कि) शेदी नामक फरासीश्र विद्रार्को इस इलोकने नितांत वह्नि करडाला भा

भवभूति ११९

कारसे नाध्क भणेताको नरी मिरुता, जख्यायिकामे हेरफेर कर नूतन रचना करनेका अधिकार उसे ययपि भाप है तथापि पात भ- संग स्थछादि भओचित्यकी ओर उसे अवद्यमेव ध्यान देरा पडता --अथौत्‌ पात्रविशेष, मरसंगविशेष ओर स्थरकिेषको नह जितनी बात शोभामद्‌ हो वहां उतनीरी प्रयुक्त करन पडती है इस के सिवाय नारक तो संसारकी वटनाओका चित्र हे! एतावता सर्व्व साधारणमें बोरुचारु ओर रहनसहनका ठग जैसा प्रचित होता है वेसादी छ्खिना पडता है यही सव वाधा है कि, जिनके योगसे नायककत्तौ अपने समस्त गुण एकही नाटक्मे प्रद्कित नर कर स- कता सारांश, कवि्योके विरेषतः नाटक्प्रणेतृगणोके एक दो अथो को देख भारकर उनके गुणोकी सीमा निथित करना अत्यंत अनुप यक्त है अस्तु; अव उपर कहे इए रसोकि कतिपय उदाहरण रांसेक पाठकोकी सेवामें भट क्वि जाते है, उन्दं पद्‌ उनको विश्वास होना- यगा किं, यह्‌ यद्यपि बहुत थोडे स्थानोपर छाया गया है तथापि इसे छिखिनेफौ अपने कविकी होर बड़ रिटक्षण थी संपातिः--नूनेभद्य वत्सनटायुरभिषादनाय मट पक्रद्रकुलाय- मुपासी रति तथाहि-

पय्योयाःक्षणरएनषककुभः संवत्तेविस्ताष्यो- नीहारीकृतमेवमोचिततधुतव्यक्तस्फुरदिदयुतः। आरात्‌ कीणेकणात्छणीकृतगुरूथागोचयश्रेणयः स्थेनेयस्य धृः त्पतयधुतयः प्रख्यापथंत्यायषम्‌

महावीरचारेत नयायुः-तदयमार्यो मन्वन्तरपुराणगृधराजः संपातिः अहो भरातृसनेदः !

१२० सस्कृतकवि्पचक्‌

पुरफसे दरोत्पतनसुरछकिङिजनिता- द्तिप्रत्याक्षगात्‌ परितपति गामामि तपने अनभ्यास साङखये ततपक्चः शिद्चरिति स्वपक्षाभ्यां शेषाददिकरूपरक्षत्‌ करणया

जटायुः--उत्पत्य गगनगमनमभिनीय ) एषोऽ प्रख्यथरतप्रच॑डरहः संित्तप्रथिप्रपि्वतिवातरिक्षम्‌ क्षेषीयो सख्यगिरेनिषादभभद्‌ सुखकर क्ितिरुहनारसभ्युपेतः ( रुकादहनके समयकां शोक ) नेपथ्ये भसः इक्षाधिकानां प्रविदधदस्णेरचिषां चकवाट- प्रग्वीयणामरस्यष्रसतिरतिशष्ुत्तप्येकम्पाख्येषु अद हु एप्पंद्रननिचस्यरोदटकस्पातिद्ंफ ठंकृप्रोगेहुताश्चःसह्णीरदलितिऽभ्ेशचिकूटेनर्टटि महावीर्वारेत च॑दकेत॒दारा युद्धाथं निमन्तित हो ठव उसकी भोर ननिक। निका; पृर अपनेको पुनः सैन्यद्वाा भविष्टित देख सकोध कहता हं टवः-पिग्जार्मान्‌ अथं क्चेखावातक्षुभितवडवावक्रहुतयकर प्रचण्डकोधाचिनिचयकवखत्वं प्रतु मे।

बाणंभट्र

- > नर व्कीकि~- रचिरस्वरबणेपद्‌ा रसभाववृती जगन्मनो हरति तकि तरुणी नहि नहि बाणी बाणस्य मधुरशीरस्य

विदग्धमुखमंडन

संस्कृत कविताकी मध्यावस्थामे भायः अनक कवि इए है उन सब- का यथार्थ वर्णेन करना कोई सामान्य कास्यं नी है, उसकं संपादनाथे बहुत परि्रम ओर दीं कार आवदयक है एतावता उनमे जो भमुख होगे है उनमेसे तीन कविमातके विषयमे यहांपर टिखतेर यह तीन कवि बाणभद्र-सुरवधु ओर दंडी दै

मध्यमकाटीन कविगणोमेसे इन्दी तीन कवियोका पधानतया वर्णेन ऊर- नेका कारण यह्‌ है कि, संस्कृतभाषामे गयकान्यरचनाकीक्मथा इन्दी कवि- योनि प्रचरित की।वारतवमे गद्यकान्यकी सृष्टि पद्यकान्यके पश्ाव्‌ होनी चहि- ये, यह नियम सर्वभाषासाधारणकेलिये घटित होताहै, ओर इसका कारणमी स्पष्ठही है यह बात प्रायः सब मनुष्योको निनके अनुभवसे ज्ञात होगी किं, बाल्यावस्थामे मनुष्यकी कल्पनाराक्ति जेसी तीव्र रहतीदै वैसी वह्‌ आगे उसकी युवावस्थामे नरी रहती, नेसे मनुष्यको ज्ञानराभ होतेना- ताहि वसे इस कत्पनाशक्तिका हास हो विचारशक्तिका उद्य होनेरग- तदि यही बात जातके विषयमेभी चारेतार्थं होती है उसके सन्ञानद्‌- रामे पदारोपण करतेही प्रथम उसकी कटपनाशक्ति काविताके रूपसे भकाशित होने गती है ेसा होते होते कुछकारुके अनतर इसी कत्पना-

# हमारे बहुतेरे १ठके कदाचित्‌ गकाव्यकरा ' नाम पद्‌ वटी उलक्षनमं पदनार्धगे उनकी श्रकाके निवारणाथे यहांपर संक्षेपमे कछ ॒लिखनेकी अपेक्षा हम यष्टी उचित समदते है कि, वे कक्षो नागरीप्रचारिणी सभाके मीस मारतरद्नः खाहित्याचा््यं पटित

अविकादत्तन्यासर प्रणीत “गद कान्यममासाकोः' मगाकर निषे तो इस भिषयका उरे महूत बोध हो जायगा

१२६ संस्करतकाविप्चक्‌

शक्तिके गभस तत्वनिक्ञासा-अर्थात्‌ आसन्नवीं सृटिमं े। अनेक चम- त्काशेक ओर आश्चयोत्पादक पदार्थं संतत ओर नो थोड़कार कमातसार आकपथमे आते रहते उनका तत्व अर्थात्‌ यथार्थस्वरूम नाननेकी इच्छा स्वभावतः उद्धूत होती है प्र इस दुसरी मानसिकशक्तिका परिीसे मकृतिनात विरोध रहता क्योकि कटपना अर्थात्‌ असत्यभासका सर्वस्व, एसी अवस्थामे उसका तत््वनिज्ञासके साथ किं, निऽ्का सर्वस्व एक सत्यही है कै मेर पट सकताहै१ सारांरा तत््वनिज्ञासा जेसी हटपुष्ट एवं बरिष्ठ होत नाती है वसी कल्नाशक्ति उत्तरोत्तर अधिका- पिक दीन क्षीण होती नाती है-अर्थात्‌ कवित्वानुकरमनकी परिटी कमर अवस्था दुप्र हो सत्यासत्याविवेचनारूप कटर मानसिक शक्तिका अधिकार बटते नाताहै इस आधिकारफे होते दी काव्यो आधेकता मद्‌ हो उत्तरोत्तर प्रतिपाद्य विषयोकी ओर रोगोकीं मनः मवृत्ति होती नाती है एसे विषयेकि यरथोको छन्दोबद्ध रचना यत्किचि- तभी शोनाम्रद नही होती; सर्वसाधारणकं। भाषारी उन्हे अनुकर होती है; अतः गद्यकाव्यकी पथा रचित होती है यह परिपा भरचाछ्ति हौ ग्ंथरचनाकी इसी भरथाका निश्चित हो नाना भी विदयावृद्धिका एक श्म रक्षण है; क्यों कि, स्वरसंयोग राद्वारंकार ओर अथांरंकारादि मित्र बहिरग साधन जो कान्यको मनोहर एवं हृदयग्राही करनके रेत्‌ कामम खये जति है उनमेसे एकभी गयग्रंथोमे नदी पये नाते रहँ पर तोभी उनक भववेकी मनोहरता एवं सुंदरताके दवारा मनका रंनन हौ सकता है; अस्तु यह सब मतिपादन वत्त॑मान विषयानुमोदित हेनिपरभी उसके यहां- पर इतने विस्तृत ॒करनेका कारण यही है किं, इस रमणीक विषयका हमारे केवरु भाषा नाननेवाे पाठकोको पसंगवशाव्‌ कुछ दिगूदरनहो- नाय कान्यकेखिये अज्ञानावस्था विरेषरूपसे अनुकूल है" “'ज्ञानसंपनन तके समयमे उसका करमराः हास होते नाता है "जदि जो सिद्धांत सहसा बडे विलक्षण जान पडते हँ उनका भी उन्दँ कुछ भेद विदित हो नाय उक्त सिद्धांतका वर्तमान विषयके साथ केवर न्यतिरेकसंवेध है-अथौव्‌ उक्त

वाणमट्। १२७

बतमिसे एक भी उसके विषयमे चरितां नदी होती पू्ेक्ति तीन कवियोने गद्यकाव्यरचनाकी परिपाटी प्रचछिति की है तभी उनकी वह स्वना केर नाममायके च्य वैसीहैःओर वास्तवमें तो वह पदिरी कान्यरच- नाकाही रूपातर ३। पुरा कारीन ग्रीक ओर रोमनरोगोमि निसमकारके गदकान्यकी भथा पचित इई, ओर संमति अंगरेनी आदि योरोपकी भाषामोमे उसका नो रूप पाया नातांहै वेसा संस्कृतमे कदापि किसीकारमे उसने ग्रहण कियाहो सो नदी जना पडता उसके गद्यकान्यका टेग कुच्छ निराखाही वेसा ओर किसीभाषामे स्यातही होगा इस भाषाकी विरक्षण मधुरता एवं भौटता ओर रचनविचित्यकेलियि शब्दमचुरता, समासब- नानेके विदक्षण भकार ओर उनकी दीषैताका अनिघ प्रभृति समाग्री अनुक होनेके कारण अकेे छदको छोडकर कविताकी परी सनावर गकान्यको देना नितांत सुकर काय्यं होगया; यही कारण है कि उक्त तीर्न यंथरचयितृगण कवियोमे परिगणित कयि गये रह अपर दोनोकी अपेक्षा बाणभ्ृही विशेष भसद्धं है अतःपथम उन्दीका वणेन भारभ किया नाता है पिच्छे दो कवियोमेसे एकंका केवर कुवृत्त ज्ञात हआ था, पर उसके स्थान ओर कारके विषयमे कुखभी ज्ञात नरी इमाया; जर दृस- रेका परिचय उसके नामके अतिरिक्त ओर अधिक कुछभी उपरुग्ध नही इजाथा परतु यहांपर यह्‌ रिखते परम हष रोता है किं, वर्तमान कविके विषयमे पाटकोकी जिज्ञासा अंशतः परिपूणैकरनेकी सामग्री बहुतकुछ संमाप्र है बाणभटने अपने परम परसिद्ध कादंबरी सन्ञक यथकी भूमिकामं अपने पूवेपुरुषाका नामाष्टख मात्र कियांहै ! इसस अधिक ओर पारिचय उसमे कुछ नही भप्त होता वह्‌ टि उसके अव इधर प्राप्रहए हर्षचरित नामकं गंयदवारा पूणं रोसकती है इस गरथके मथम उच्छरासके अंतमे निस्नटिखित वृत्त पाया नाता हैः- बाणमभष्के पिताका नाम चितभानु ओर माताका नाम राज्यदेवी

१२८ संस्करतकविर्षचक

था, बाण नब चौदह वका था तभी उसका पिता मृत्युको भाप्र होगया था भद्रनारायणः ईशान ओर मयुरकं उसके बारमित्र थे शोण(सोन) नदीके पश्चिमको भोतिकूट नामक याममे उसका घरथा।इसी नदीके प्ररे किनारे पर यष्टिगृहनामका एक ग्राम था इस गांवेसे तनिक अगि वदतेही श्रीकंठनामक देशकी सीमा रगतीथी हषैकी रानधानी यहांही थी

तौ उक्त मकारसे अपन कविकेही ग्रेथदारा उसके वसतिस्थानका निणंय हो नाता है ओर साथरी थोड़ासा कुखवत्तांतमी ज्ञात हो नाताै; षर समय नाननेके हेतु कोई साधन दस्तगत नही होता इस देदके पाचीन कारका पृरा इतिदास यदि हमारे पास रोता तौ वह इस समय अत्यंत उपयोगी होता, पर क्या कियानाय ! उस साधनका हमारे पास सर्मथा अभावेहै ेसा कहना कदाचित्‌ अनुचित होगा।जौर सब विषयोमे भाचीन मीक ओर रोमन खोगोसे समता भराप्त करनवाटे ओर कही क्रदी तौ उनसे भी बद चट गये हृदे हमारे भूतपतैपुरुषोके हाथसे नाने विद्याका यह एक मधान अंग क्यो दूट गया इसका कारण चाहे यह मान थ्या जाय कि, म्ीकलोग जैसे परगज्यदशित इए ओर उन्हे उनकी वीरता रदित कर- नेका अवसर माप्र इजा वैसा अवसर यहाके रागोको कभीभी पप्र नरी हुआ; वा हिरोडरस्‌, जिनोफन्‌ ओर थुसीडिडीनके समान हमारे देके विदवानूल्ोग परवासविमुखताके कारण देश्पस्ययन कभीभी करतेथे; वा वे छोग नरस्तुतिको मिथ्या मानते थे, वा यंथ टुप्तरोनानेके कारण, इनमेसे कारण चाहे नो हो पर यह बात तौ स्पष्ट बोध होतीहै किं, हमारे देश- का भाचीन इतिहास सवथा टु हौ गया यह असामान्य हानि केवर उसीके संबेधसे रोचनीय नदी है कितु गरंथोके संबंधसेभी वह वैसीरी शोचाईं हे जैस निबिड अंधकारमे रग, रूप, आकार ओर अंतरादिका ज्ञान सब नष्ट हो नाता है, वैसेदी एक इतिहासकरे अभावके कारण समस्त गरंथसमूहके विषयमे गडबड प्रायी नाती है कौतसा श्रंथ॒ पिले र्षि गया, कौनसा पीछे िखागया, कौनसा यथ अपने जन्मदाताके `नीवनक्रा- र्मे किस भकारसे समाहत इजा इत्यादि अनेकं बति जाननेकेिये मन

याणयट््‌ | १२९

अत्यंत उत्क॑टित एवं छदुप होता है, ओर उनका बोध हेनेरमेभी बडा कौतूहल है, कभी तौ यह सब आनेद उन वातोमेही पाया नाता है अधेन्स नगरके आरिस्तोफेनीन्‌ नामकं एक प्रहसनकन्तीका “मेषमाला' संज्ञक एक प्रहसन अद्यावधि भसिद्ध है वह यदि अपने “भरवोधचदरो- दय की नाई इतिहास-पसिद्धिशल्य होता तौ क्या आश्चप्यैहै कि, उसका सब रस विनष्टसा हो गया होता! सांग जसे किसी मृत च्लीके मुख- दवारा उसके अपरञंगोका आकार, उसका वणं आदि मात्र दृद्यमान रहै, पर नीवितकारका सौद्यै ओर मुखमडल्की शोभा एकवार नो अस्त होनाती ₹ै सो होही नातीहै, उसकी पुनः कल्पनातक नरी होस- कती, उसी परकारसे संस्कृतभाषाके यथोकी नूतन शोभा अपने समयके साथी प्रायः कभीकी ख्यको माप् होगयी एेसा कहनेमे कोर बाधा नरी योध होती पर यदि वही शोभा इशतिहास-रूप चित्रमे आनादिन ज्योकी त्यो बनी रहती, ती सूर्योदय हो सव दिशाओोके ्रफुट्धित होनेपर नदी, वृक्ष, पर्व॑तादिद्वारा चि्रविचिच्ररूप ॒धारणकरनेवारी भ्रङृतिदेवीकी जेसी अपूद्वै शोभा आङोकपथमे आती है ओर उसके समस्त द्य रमणीक दीख पडते है, उसी भकारसे पूर्वोक्त यथसयह संभतिकी नाई उरुञ्लनमे फसकर यथाक्रम हृस्तगत होता, ओर उससे संमतिकी अपेक्षा कटी वटके भानद्‌ ओर रभे प्राप्त होता तात्पय्य यह है किं, अपने देशका पुरातन इतिहास उपरन्ध होनेके कारण अपनी ओर सुब नगकी बडी भारी हानि इरे

अव यह वात सच हे कि, मरसंगवहात्‌'रानतरंगिणी" # नसे ग्रेथदारा

# यहे बृहद्रथ चारमागेमिं शेष इं हे कहुण पटितने इसके पदे भागम कारमीर देश्षका इ० सन ११४८ प्यैतका इतिहास लिखाह दुसरे भागमे कोन राजानि इ० सन १४१२ परयैतङा कृ लिख्राहे तीसरे मागमे ( जोन राजक क्षिष्य श्रविरपांश्तने इ० सन १४७७ प््येतक। घटनार्भोको लिपिबद्ध किया हे ओर चौथे मागमे परनयभस्े अक- परके काहमोरबिजयका ष्च भर अगि श्राह मालमवाद्श्चा$्पर्णन्तका गृचान्त लिग्वाहे कन्परीतिके अनुखार भी यह्‌ ग्रय त्यत मक््नीय

१३० संस्कतकविरषचक

काम निकट नाता हं; पर उस इतिहासके नामे पुकारना युक्तियुक्त बोध नही होता।कयोकि पिरे तो उसकी छेखमणारी शुद्ध इतिहासंकैसी नेहा कितु वहं केवर काव्यंकेसी है ओर दूसरे इतिहासके जो दों सुदृद्‌ आधारस्तभ कालक्रम ओर भूगो ( देशाज्ञान ) है उनकी ओर रेखकग- णान वेसा कुछ ध्यान दियासा नही देखपडता भारतवपे अ््य॑त विस्तीणे देश होनेकं कारण मित्र मातोके रानारोगोने भित्र शक मच- लिति किये एतावता कालका निश्चय करनेम बहुत्‌ आपत्ति उपस्थित हो तीह इसके अतिरिक्त हमरोगोके यहां पूरवसे एक एेसी भदी चार पड गयी है कि, कोई शक वा संमत छ्िखितेही नदी आनदिनभी बहुतसे पुरनेगरंथ विद्यमान हैँ पर उनमेसे एेसे थंथ स्यात ही होगे किं, जिनमे उनका शक छ्खिा हआ है पर इतने द्रनानेकी भी कोई अवर्यकता नही हे। आनदिनभी केवल भाषा नाननेवाले वा पुरानेपंडित छोग अपने प्रमे केवर तिथि जओर महीनेकाही नाम छिखितेहै वर्षका श॒क वा संवत्‌ कदापि नही छ्िखिते कहनेका अभिमाय यह है कि, अपने भूतपते यंथ- परणतृगणोके समयका खोन खगानेके साधनोंका अपने पास भायः अभा- वही हे, तोभी यहां पर एकं बड़ी आश्च्य्यननक एवं रनोत्पादक बात पाटकोको सूचित की नातींहै- वह यह कि, बाणकविका समय नानने- की अपनी निसं उत्कट उत्कंटाको स्वयं अपने ग्रंथ तृप्त नही करसके उसे एक चीनके यथने पूणं कियाद !!

यह महदाश्य्यैसंयक्त घटना वर्योकिर हरै, ओर चीनके यथ ओर हमारे बाण कविके काका क्या संबन्ध है आदिका यथावत्‌ बोध होनेके हेतु यहांपर थोडेसे एतिहासिक वृत्तका उद्धिखित होना आवहयक जान- पडताहे हमारे पाठ्कोमेसे सारज्ञ पाटकोको यह वात अवदरयमेव विदित होगी कि, मुसलमानोका अधिकार हमरोगोकी वुद्धिमवर्ताका वाधक है उसकी अवनतिका कारण होनेके पूव सेकडो वर्षों धम्मेके संबधसे इसदे- रामे कई बडेरउखृटफेर हो गयेथे आ्यछोगोके मूट वैदिकषम्मेपर गक्षि- पृकर परिल मतभेद बुद्धने भचति किया। काटकरमानुसार बहुतेरे टोग

नाणभटर। १२९

उसके मतका अनुधावन करनेरगे ओर इस रकारसे धर्मम दो भेद होगये मौर यह ॒नूतनधर्मौवरूबी रोग अपनेको बौद्धं कदानेरूगे इनके नवीन मत कैसे थे इनका उद्य, विस्तार ओर ख्य कब ओर क्यो हमा आदि बाति इतिहासरेखकोके षडे मनोहर विषयकी सामभीथी, पर अब उसकी चचौ करनेसे राभदी क्यार पिखरी ही खेदकारक बातका यहापर पनःएक- वार उद्टेव करना चाहिये किं,इतिहासके अभावके कारण हमको समस्त नगके साथ इस महद्लामसे हाथ धोैटना पडा अस्तु, बुद्धेके विषयमे यद्यपि हमे कुछभी ज्ञात नरी है # तभी यह बात ता रुष्ट री हे कि, उनकी बुद्धि रोकात्तर ह्‌।गी क्योकि स्वय उनके विपक्षी बराह्मणेने भी उन्हे ईश्वरका साक्षात्‌ नवम अवतार माना है जयदेवस्वामी अपने गीत गोविद्के आदिमे छ्िखिते हैः- निदसि यज्ञविधेरदद थतिजातम्‌ सदयहृदयदशितपञ्चातम्‌ केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ( धरुवप्द्‌ ) इसमे बुद्धके मुख्य पतिपायय मतका कथन किया है “वेदाज्ञानुसार यज्ञमे नो पटुहिसा की नाती थी उसका उनने सदय अतःकरण हा निषध किया” इस धर्म्मसंस्थापकका मरणकारु अंगरेजगरंथकत्तोरओनि ईसवीसनके पूर्वं ६४३ वपे कहा है इसके अनेतर इस धम्मेने परमोत्नति पाप्त की थी ईसवी सनके पूरव अनुमान २० ०वर्षेउस धम्मैका परम परसिद्ध अशोकसंज्ञक राजा शासन करता था सुना नाता हे किं, उसने अपने सपूणं राज्यमे पश्चा- दिकोके वधका निषेध कर दिया था इस समयकी साक्षी देनेवारे अक्षर खु- देहए करई स्तम भृति आनदिनभी कही करी पायेनाते हे ! अस्तु, पर बुद्धका आनद्का विषय हे कि, केवल माषा जाननेवे छोगभी भव याद वृह चाह तौ,

काकौ निवासी श्रीयुत वात्‌ श्यामसुंद्रदासख वी ए. लिखित भ्ाक्यवेश्नोयगोतमनुद्ध ® नामकं पचधद्धारा बुद्धके विषयमे हृतकुछ परेचय प्राप्त करसकते है

१३२ संस्कतकविर्षचके

यह समस्त विभव आगे कुछकाखके अनंतर समृ विनष्ट होगया ईंसवी सनकं आरंभके छागपर बद्ध ओर बराह्मणेमे भवचंड वादविवाद हज था; श्रीमच्छकराचास्यन बेोद्धधरम्मका खंडन कर ब्राह्मणधम्मं स्थापित किया था # इस मकारसे बैद्धोका परानय होनेपर स्वेच्छानुसार कहो वा रानाज्ञानुसार कहो उनटोगोने देशत्याग किया ओर कोई तिब्बत, कों चीन ओर कोई रकामे जा बसे आगे चिरकाटर्पर्यत उन्हे अपन आदिके दशका स्मरण बना रहा था ओर बीच बीचमे कोई कोई रोग स्वधर्म्मीरोगोके पूरके स्थान ओर विशेषतः अपने धर्म्मोत्पादककी धरतीका निरीक्षण करनेके हेतु भारतम आया करतेथे इस भकारका एकं चीनी हुएनसंग नामका यान्न पिरे दिनों भारतमे आया था उसने ईसवोसन ६२९से६७५पर्यत अर्थात्‌ अनुमान १६ वषं छो भारतमे भ्रमण कियाथा उसने अपन यंथमे उस समयके हद्‌ रानाओंका तथा उसने नितना देश देखाथा उसका वणन इतना परमेोत्कृष्ट कियाहे कि, योरोपके वत्त॑मान भुवनविख्यात संस्कृतज्ञ पंडित मोक्षमूरर महोदयने उसकी अत्येत मंसा की है संप्रति यहांपर हमे यही बात म्रदशिंत करना अभीष्टहै कि, इसी इुएनसगने अपने ग्रमे हषरानाका वणन किया है इससे यह बात निशित होतीहै कि, ईसवी सन ६५०के छागपर बाणकवि जीवित था इस गुरुतापरित शकके खोजन रगानेकी प्रतिष्ठा सुयोग्य कटर हार साहि- बको, कि नो पिच्रे दिनों ककत्तकी ओर थे, माप्त हई है इस रोधे सी बातसे हमारे आधुनिक विदान्‌ यदि यह रिक्षा रहण करे किःवियाकी सफकता पटवग्ाहिपांडित्य ओर शुष्क तर्वेनामे नरी है, वेसेही जीवनका प्रधान अभिमाय विछासमियता एवं तदिरुता नदी है, नेसा कि वे अपने आचरणद्वारा छागोको पायः मदर्िंत किया करते, तौ बहुतकुछ छाभकी ता

# सर्धसाधारणकी यह्‌ सम्मति विलसन सदधिवकेो स्वौफृत नहीं आपने पन कोश्चकी भमिकमि एक स्थानपर यह च्छि है कि माधवाचार्यके ज्ञकरविजय ग्रथ आर भाचा- गयके येयाद्ारा श्व मतके स्यि कहीं कु आधार नीं मिता दै, उक्त ग्रय उनके

स्वभावकी सौम्यता अवदय प्रद्‌शिन करते

बाणमटर। १३

बाणकविका अत्यंत मिद्ध रथ॒ कादंबरी है, ओर आनपरय्यतं यही एक उसके नामस विख्यात था पर अभी षीके छ्िखिही आये किं, अत्र इष्र ' हर्षचरित नामका उसका एक दसय ग्रथभी प्त इभ है य्ह ग्रथ अभी चारों ओर तादश परसिद्ध नरी हजा है तथापि उसके जभि- धानसे यह ॒वात स्पष्ट बोध होता किं, निस रहषनाने बाणभष्टको निन आश्रय भदान किया था उसका उसने इसमे वेन किया होगा चडिकारातक नामक गथके विषयमेभी अब इधर सुना नाता हे कि, वहभी बाणभटरका र्वि दै इसके विषयमे एक अचरनकी बतत कदी सनी नाती दे) अभी उपर उद्धिखित होदी चका कि, बाणभद्के बारमित्रोमे मयुरभी था यह अगि वडा नामीं कविं हुजा, इसने अपने महारोगनिवारणाथं सूय्येस्तवरूप सुप्दै- कतक नामका एकं काल्य मणीत कियाहै इस पण्यकम्मौनुष्टागदरः उसका महारोग दर होगया ओर वह्‌ पूर्वेवत्‌ पुनः सदरकाय रोचय: सूय्येभसादका बाणकषिको बड़ा डाह हज जीर उसने जए हयउ टये ! वे उसे पनः उक्त काव्यद्वार मरा होगये 1 शौडे = ददम भवभूतिविषयक आरव्यायिकाञकिं संवेधमे रिखतागःर भ्त कन्दर जञ विषयमे हम अपना मत भद्र्ित करदीचके ह्‌. न्ध्रेस्द्‌ ग्टय्ड

बात र्सिबिना ठेखेनी जगेको सचाटित नई =. उर न्दम युक्तिसंगतता ओर संदरता इन दोनों गपो उन्न र्रर! याप काविके नामसे पावेतीपरिणय नामका एक र! इद नाटके विषयमे हम अपनी संमति पि चिन > " "द्र उत ऊर अधिक छ्खिना अभीष्ट नदी चन्म्ह्यं ठ्य च्च श्या डर एक गं॑थकी कृता जपन च्च्ि उन च्खन द्र} बह

(- = ~~ पृवेठिदित [ब्‌ यह्‌ मत डाल कंच्न!

१३९ संस्करुतकविष॑चक्‌

ˆ रत्नाव्टीका ' सुमसिद्धं रचयिता श्रीहषै है, पर अपना कवि निसका आश्रित था वह हषे ओर यह यदि एकी हो तो इस मिद्धिका कारण सहनहीरमे कहा ना सकता है वह कारण यही हो सकतांहै $, रानाने वाणकविको द्रव्य उससे उक्त नाटिका छख री है, ओर एकवार वह मरसिद्ध हो वही भरसिद्धि आजर चरी आती हो उक्त साहेवको यह रका उपस्थित होनेकेलिये यह कारण इहै कि “रत्नावली! के कतिपय शोक हष॑चरितके शोकोसे मिरते हमने “हषचारेत' देखा नही है, अतः इसके विषयमे हम दृदृतापू्वंक यहांपर कुकभी नरी छिखिसकते तभी इतना ङ्खिदेना आवद्यक समद्ते हैँ कि, जव यह मत आन सैकडो वरषोसे चरीजतीहुई भसिद्धिका विरोधी होगा तब नवरो विश्वासपा्र एवं दृद्ममाण नरी भाप् होतेह तवर उक्त विवादका निर्णय करना अनचितेहै

एक (काम्द्बरी' मात्र बाणकविका अत्युत्तम गंय है; इस ग्रंथका नित- ना भाग स्वयं बाणकविने छ्खा है, उतनाटौ यदि उसका यंय माना नाय तौभी वह ग्रंथ बहुत कुछ वडा है, एतावता यह कहनेमे कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती कि, उसका कावित्तवगुण उसमें बहुत समाविष्ट हह अतः उसके ओरभी नो ग्रंथ होगे उनकी ओर दत्तचित्त होकर संमति उक्त यंथकोही समीप रखकर उसके कवित्वगुणकी परीक्षा छिखतेर भरोसा तो है $, इस कार्यम हम धोखा खाने पावेगे

विषयव्णनक्रमानुरोधसे तो यह समुचित था किं, यहांपर वत्तेमान गरंथके संविधानकका (कथासूत्रका ) उद्ेख किया नाता पर संमाति यहांपर उसे छिखिनेके छियि हम असमथ रै उसका कारण यही रै कि, वह संक्षेपे नहीं छ्खा जा सकता ओर उसका यही थोडा बहत ङ्ख जाना केनेल निरूपयोगी है अतः इसकथानकके छिखनेको एक स्वतेतर्ेथ छ्िखिना सम्चकर हम उसे यहां पर नहीं छिखिते; ओर इस अथके विषयमे पू्वकरमानुसार सामान्य तथा हमें नो ङक ठ्सखिना है उसका सहसा भारभ कसते है।

अंगरेनीमे निस अद्ुत कथासमूहको, “रोमन्स के नामसे पुकारते ह,

भवभूति १२१

समम्तादुत्सषेन्‌ घनतु॒रसेनाकर्करः पयोरारोरोषःप्रर्यपवनास्फाडित इव्‌ उत्तररामचरित

भवभरूतिके तीनो नारकेमिसे इतने श@र्कोका यदहपर सिखानाना व- स्तुतः अपिक बोध हता है प्र यह अभीष्ट होनेके कारण एतदथ हमारा पाठकेसि क्षमापार्थी दोना हमे भावद्यक मरी बोध होता हमारे देवोपम पूतन्वपुर्षेकी विशार बुद्धिका ज्ञापक भत्यक्ष ममाण स- रूप जो विदयाका महान्‌ भंहार हमारे पास है-कि, नो इस देशोमाचर्क सति पराचीन एवै अक्षय संपत्ति है; जिसे इसके पूतव्वै अपर देर निवासी रामागण अपहत नकं कर सके; ओर जो नगसख्यपर्यत हमारे नामकी पाणपणसे रक्षा करनेके खयि बद्धपरिकर है; वत्तैमान निक्ष अवस्थाके कारण हमछोग समस्त जगकी रृष्टिमे कैसेदी दीन दीन रीख पड्तेहो, पर तौ भी निषकी ओर देख अभीरो रोग ह्मे समाहत कसते है, भोर इतःप्र सुदैववशात्‌ यदि हमछेर्गोका उत्कर्षं पुनः द्जारी तौ भिसके गीनस्वरूप हुए विना वह्‌ होही सकेगा-उसके विषयमे केषर भंधप- रेपरादारा सामान्यतः शुष्क अथवाद्‌ करनेकी अपेक्षा उसका यथाथेरूप ओर उसकी योग्यता सर्वेसाधारणको प्रत्यक्ष फरदेनेके थ्यि जो यत्न करता हो उसका पाठकोकि पठनपरिश्रमा्थं पद पदपर क्षमाप्रार्थी होना इम अत्यन्त अनुचित समञ्चते जिस भकार किसी अबोध मनुष्यको उसके पिनाका धरतीमें गडाहुभा अतुरु धन पुनः हम्गोचर करादेनेवा- ठे पुरुषको उसे परेश्रम देनेके हेतु सको माननेकी कोई अवहयकता नदी है; उसी भकारसे अपने भराचीन कषिवरोकि वागर्त्नोकी सुन्द्रताको भपने सव्वैसाधारण पाठकेकि बुद्धिकषत्रमे खादनेकेख्यि जो यतन करता है उसे भी वारेवार अपने पाठकेसि क्षमा मागनेकी वैसी कुक मावद्य- कता बोध नहीं हेती गस्तु; हमारा मभिमाय इतनाही है कि, निस

@ इसका अर्य मामे चकर लिर्खेगे

१२२ संस्कृतकषिपच्छ

भीति एवे उत्साहक साथ हमने यह गुरुतर काम हाथमे छया है, उषी .भावकों हमारे पाठक गर्णोको अपने चित्तम धारण कर हमारी सहायता करनी चाहिये, हमे भरोसा है कि, हमारे रासिक पाठकगण हमारी मार्थ- नाका सानंद्‌ स्पीकार करेगे

संस्कृतके कवियोमे परमनिश्यात जो काषदास ओर भवभूति उनके विषयमे हमं नो जो उचित जानपड़ा सो हमने अपने विवेकी पाठको सेवामें सानुनय भेट किया। अव यहांपर छेखके भामे नो भस्ताब कियारै उसके विषयमे कुछ छ्खिना आवङयक जानपडता हे। कालिदास ओर भवभूति की खमोनता करनेवाा तीसरा कोई कवि नहीं है अतः संस्केतके परमेोत्कृष् कविवृन्दमे यह दोही परिणत कि जति है इन देनोकी भेसी ही उकृष् पतिभा पकृतिजात थी वैसेदी भाषाभी इनके आधीन अर्थाद्‌ अभमिपायानुषा- र्णी थी दोरनेकी करना पदरचना # नितांत सरता, भ्रौ- टता रसिकतादि नो महाकवियोफे गुण हैँ सो पृथरूपसे दष्टिगत हतेहें दोनोका जीवेनकार एकही थावा कुछ निकट था आदिक विषयमे शक शक नहीं कहा जा सकता तोभी अत्यंत पाचीन काठसे लेोर्गोकी देतकथाओके कारण दोनोके काठकी सी कृ गुत्यमगुत्या हो गयी है कि, इतःपर उसक्रा सुरक्षनाना असंभवसा बोध होता दै, भनु- संधानमिय पंडितगण उप्ते नष्ट करनेके लिये मब भमाणोको भेदी उपस्थित करे, पर ये उभय कविमणि भोनरानाकी सभके कविर्योमे रिरोरत थे, उस गुणिजनैकपक्षपाती राजान उनका कण्डमणिकी नाई संतत बडे ऊाडचावसे भरण पोषण किया है, घटना केसीरी क्षर क्यो हो-विषय सुच्छ भेदी हो, पर॒ तौभी अपनी अस्खरित सरस्वतीके रसमेव छोग उसे भूषित करते, दोर्नोकी पवचनपटुता तथा उक्ते भव्यु-

# हां, यह वात अवदय देखी जाती रै कि, पू्वोखानुसार मवमूतिके मर्थो लबे खमासघट पद पाये जति पर साथी वे सुबोध है ओर बहुत योद्धे स्थानोपर प्रसगाः नुरोधके कारण व्यवहत किये गये है अतः; वहं उक्त उछेखके विरोधी नरी हो सकते

भवभूति १२३

क्रिमे सदेव स्यपटी हजाही करती, ओर परस्परकी रसपुरेत कृतियोको देख क्षणभरकेश्यि स्पीको भृ ददयो्टास भारित हो उनका अभिनेदन करना, आदि असत्यमय भादनारजमिं ही रंग जाना मनको प्यारा छगता है; भीर जिन पृथासत्याभिमानी निडुर भनुसन्धानश्ीक रोगोने उक्त मनोहर भर्मोको नष्ट करनेफे हेतु अपनी बुद्धिको कष्ट दिया ह, उन्दै शतक शाप देनेके स्यि इयत हो उनके सर्वथा निद्धौरित सत्यकी उपेक्षा फर नेको मे तनिकभी नही हिवकते !

[वि कभ पो 14

20-५/./ ७.

बाणभट। १३२५

तदेतर्भत,“कादवरी"' परिणत की ना सकती ह। इसयथकी नाका कादबेरो है यह एकं गधैकी कन्यां उजैनके राजप चेदरापीडने, साथ दूसका विवाह हआ यह राजपुत्र दििवनकी अभीलापासे मस्त हे हिमाङ्यपर कैलासके वगस्मे डे डर पड़ा इजा था एक दिनि आसैटकी खोनमे फिरते फिरते वह्‌ एकाक गपर्वेकिं देरमे ना निका अगे महाम्रेता ओर कादब्ससे उसकी भेद हई ! महाता कादबीकी सखी ओर इस उपन्यासक उपनायिका है इसने पुडरीक नामक कमारसे भिवाह किया था जन्मातरमे यही चदापीडका भित वैरंपायत हभा, ओर आगे महान्वेताके शापाथं पनः तेता हा 1 कथाके आदिमे ओंत्यनकन्या भिस सेग्भ॑कों छेकर्‌ भूद्रवः रानाके निकट आयी है वह्‌ यहीं कीर शूद्रक जन्मातस्का चंद्रापीड हं अस्त इस समासकथानकदा हमारे विज्ञ पाटकगण ईइ उपन्यासफे सविधानक तथा उसके वृहत्काय एवं आश्र्योत्पाद्क हनिका अनुमान सहनदह्‌।मे करसकते साबिधानकचातय॑र वस्त॒ फि, भिसः दारां आख्यायिकाके मायः पयैवसानपय॑त आगे केया व्या होगा उसके पाठकोके थाह भिरने पये ओर उनका कौतूहरं सतत जागृत बना रह्‌ इस विशेषताकों बाणकविने वक्तंमान्‌ ग्रथ बड़ी निपुणतासे सन्ि- विष्ट कियाहै आदि आदिमेरी नरी कितु कथाके बीचोवीच आजाने परभो दीं काटरो उसके अवसानके विषयमे कभी अनुमान नरौ किया ना स- कता 1 जआनपय्यत सहस्रो मनुष्योन यह्‌ कथा पद्ीहोगी, पर हम नदी सम- सते कि उनमेे कितने छोग इस मर्मेको समन्षे होगे कि, शूद्रक ओर ता- ता इस कथाके यथाक्रम नायकं ओर उपयनायक दै जो इस्र॑थके अभि- धानका मधान कारण उसी मस्य नायिकाका आयसे कटी अधिक भथ पदेनानेपर पार्वय मिर्ने रुगतांहै, तबटे। पाठ्कोको यह रहस्य यत्किचिव्‌ भी नही विदित होता कि, इसम्रथका नाम कादंबरी क्यो विरित फिया गया है।आगे कथा नसी नसी बदृती नाती वैसा उसमे यह सदेह उसत्न सेता जाता दै कि! निदान एककी वह्‌ अवस्था हई-अथकार कथक आरभको

१२६ संस्कृतक विपंचक

अथोत्‌ तोता रानासे ओर नाबाटिमुनि रिष्यसि बोट रहा है सो भृ ता नही गया! आदिभादिमे अत्यनकी कन्यका एकवार आकर जो चपत हौ नाती है सो अंतरके पृष्ठोमे ना पुनः दृष्टिगत होनेरगतीरै, वह जातिकी पतित होनेपरभी आदिमे उसके निरुपम सोद््यैका इतना वर्णनं भ्यो किया गया है, उसने तोतेको राजके आधीन क्यो किया आदि बातोंका रहस्य षिरकुर अंतभंतमें जाकर ज्ञात होता है तात्पयै यह्‌ संविधानक अत्यंत निपुणताके साथ नोडा गया है, अब हिदी आदिभाषाओमें इसकाग्यकी जो मधुरता छायी नायगी उसका इस संविधानककी अपेक्षा अधिकं श्रेष्ठ होना सर्वथा असभवसा बोध होताहै

पर यह्‌ संविधानक उक्त भव्यभवनकी.नीवमात्र है इसकी मधुर एवं मोट वणैरचना, शेषोकी सूबी, भिन्न > स्थानोके चित्र विचितं एव मनो- हर वणेन, आछापका परवाह भाविके गुणसमुचयद्वारा ईसग्रथको जो विछ- षण शोभा पराप्त इई है सो वणन शक्तिसे परेदै। मथम तो गीवौणभाषाही अनेकगुणसंपन्न होनेके कारण नितांत मनोहर है तिसपर फिर उसका बाण- भट्रैसे दय चतुर एवं कल्पनी कािके साथ मेर हो, उसके वह्‌ केवल आधीन होनाने पर पृष्ठनाही क्या है ! नो नो चमत्कार हो वे सब थोडे ही है! इसमे तनिकभी संदेह नही है के, जिन निन छोर्गोनि जपने कविकं अपने पाटकेको अर्पने भरकृतिसुखम वाग्विरासदारा आश्व्ित करदेनेकी ओर उनके म॑नको ठर लैरपरं चमत्कृत कर्सेकी शक्तिका स्वयं अनुभव छिया होगा उनमेसे रेसा कौनसा रसिक है जो निम्न छिखित गोवद्धैनोक्तिको यथा्भ मान शिरः भर्केप करेगा ओर उक्त जचार्यनीको असीसेगा

जाता शिखंडिनी प्राङ्‌ यथा शिखंडी तथाऽवगच्छमि प्रागल्भ्यमधिकर्मापं वाणी बाणो वभूषेति “८ हम समक्षते है कि, जैसे पुराकाले शिखिनी रिसंडी इई वेसे-

बणिभट्। ९२३७

ही अधिक प्रगल्भता पाप्तकरनेके हेतु वाणी ( सरस्वती ) बाण इइ " # आचा््यंकी इसओआ्य्याको पठ हम इस बातको निश्चित नौ करसकते कि; यापर हम आचार्य्यके सदहद्यताकी अधिक मर्ञंसाकंरे बा नकी चतुरताकी अधिक भरशंसा करे !

सारांश यह यथ उक्त भकारसे अनेकगुणसंगुक्त होनेके कारण परम णीक इञा है निस किंसीको टिद्रोगोकी कर्पनाशक्ति, सस्कृतभाषाका शब्दाथरूप अक्षय भंडार, उसका श्ेषादि विचि्रतोत्पादक असामान्य साम्यं, उसके काव्यका नितांतोज्वलस्वरूप, आदिगुणोको एकत्रित हृए देखनेकी इच्छा हो उसकी इच्छा वर्तमानग्रेथ पूर्णं करसकता है ओर इसके अतिर्त इस ग्ंथके अथरोकनदाया माचानकारकी रीति भांति रोगोकी रहन सहन आदिकाभी परिचय मिरसकता है परस्थ विनातीय रोगोद्धारा पद्‌ दटितदोनेके इस सुबणभूमिके अपार विभवका जा दुदुभी नाद दूर- दूरके दे्ोमे सुनाई पडता था उसका परिचय इस यथदारा निस भकारसे प्राप्त हो सकताहै, वेसा कदाचित्‌ ओर म्रथद्ारा हो सकेगा

कादबरीकी रचनाके विषयमे एक चमत्कृतिननक घटना हई है उसका भी उदे यापर आवदयक बोध रोता है उस ग्रथक दो भाग है-पर वे कविकृत नष है किट्‌ कारुकृत है बाणकावि इस कान्यको अनुमान आधेतक ट्ख चुकेदोगे एक, सहसा करार काछने इन्दे कवित करटिया पूत्राद्धके अतमे अर्थात्‌ नहांपर कथा- विच्छेद हमा है वदां भारभ किया हज ( कादबरीका ) भाषण वैसाही अधूरा रह गया है सो वह अगले भागमे परा किया गया है इस अनू- ठेकान्यकी निसनं मनमें सृष्टि निग्मित की उसीके हाथसे बह अतप्यत

कर भारतात्मं उदोगपवंके अंतमे क्िखटोकी कथः वाणे काश्लीरजाकी कन्या मना भीष्मस वदा लेनेकेल्ि दुरे जन्मभे पदि क्लिखदिभि हृद } मागे एक यक्षने माजन्मके लियि उसे अपना पस्त्व दिया तब बदरी क्िखदी हु अनतर मीष्मके वका कारण यही शिखंदी दुभा अव इस कथाका अनुधावनकर इमारे माचार्थं कहते कि, रेसेही वाणीका चाण (वयोरमेदृः) हुमा देखा हमस मद्यते

१२३८ संस्कृुतकदिपंचक्‌ !

एण नही हाने पाया, इस बातको देखकर मनको बहुत खेदं होताहै, ओर नानपडताह कि, एतद्रारा सस्कृतभाषाको विषम हानि पहुची हे अस्तु, जवनो बात होगयो सोतो होहो गयी पर आनादन इस घटनाको देख परम सताषहाताहे कि, अधूरे रह गये हए सुद्र भवनको दख ददोकोको युगपत्‌ आनद आर दोक सवथा होन दनको तनयान बाणभद्के पुने कर- रक्खोह उसका सवा हआ यह उत्तराद्ध ययाप पत्रोदधैकी योग्यताका नही हो सकता है तथापि इसमे अणमातभी सदेह नही कि, रसेकरोगोकी यह्‌ सवा तदातरिक्त कविदारा हना सवथा असभव था सतत पिताके साथ रहनके कारण ओर विरेषतः बाल्यावस्थासे उसको रिक्षा पितादा- राहौ इइं हागो एतावता उसके कवित्वगुणको स्चलकका उसपर पडना जसा सभव था वेसा वह अपर कविके लिये सभवन था सो स्पष्टही ई# सारांश दूसरे कविको बुद्धे केसोहौ विशार क्यो होतो, ओर उसका ˆ कादबरी के साथ केसाही धनिष्ठ पारेचय क्यो होता. पर तभी

% सस्कृतके पडितेमे एक आख्यायका प्रसिद्ध हे छ, बाणकविने पचत्वको प्राप्त होनिके पृञ्वं अपने ज्येष्ठपत्रसे पडा कि, क्यात्‌ मरे इस अधरे ( कादबरी ) ग्रथका परा कए देगा { उस च्येष्ठण्रन जा कि, वयाकरणकसरी था, उत्तरम कहा क, हा अपक धत अधरे ग्रथक्रा प्रा करदगा पुत्रके उत्तरका सनकर वाणन अपने उस पुत्रस का कि त्‌ इस समोपस्थय सखे पेडका वणन कर तरे उस वणनका सुनकर भं समञ्जसकुगा [क तुन्नसे यह ग्रय पर होसकरेगावा नदो पिताक बान्ञाके पाते ही उस पचने नाच ला हद्‌ पाक्त अपने मुत्युको शस्यापर पडेट्ए पताका कहस॒नाई्‌

शष्को बृक्षास्तष्त्यय'

दस पाक्तका सन बाणकविको तादश मनस्ताष्ट नहो इई तव उसने भपन छट पुत्र कटा कि,त ता इस सुखे पेडकां वणन कर पताका आज्ञा पातहा उसन उसा ¶डका वणन या कहु सनाया

(नीरसतरारह विखसति परतः"

ट्स कणाप्रय रचनाको सन पिताका बाणका ) चत्त मरसन्न हागया आर उस तत्क्षण विश्वाक्च होगया कि, मरे अधरे ्रथको यह वास्तवमे पृणकरसकेगा बाणन प्रसन्न हकर अपने काटे पचक आशीवाद दिया के, मरे इस म्रथको पुराकरसकेग।} आर तदनुसर उसने उसे पूरा भी किया | ~

बाणभट््‌ १३९

वह बाणपु्रकी नाई कादंबरीको पुणे कदापि नहीं करसकता स्वयं बाणकविही यदि इस अयूैकान्यको देष करपति तो आनदिन उसका जो आकार है उसकी अपेक्षा डेवदा तो व्ह अवद्य ही हो- नाता; सादी यहभी निःसदेह बात है कि, संमति उत्तरद्धेमे नितना रस पाया नाता है उससे वह कटी अधिकं पाया जाता तौभी यह्‌ वात कुछ सामान्य नरी है फि, मृत्युकारुके समय पिताने जो अरपमात्र संविधानक बतलादिया भा उसीके आधारसे पुने उस कथाको एसी उत्तमतापूरक परिदेष किया कि, उसमे देसी कोई बात नौ पायी जाती जो मूर्ेथका विरोध करती हो ! महान्‌ महान्‌ प्रंथकारभी अपने समस्त कान्योमेही नही कितु, कभी कभी एकही कान्यमें एकसा रस छानेके स्यि असमथ हए दै-क्योकि रिर्पका्ेकी सफक्ता नितने समयके गुणसे संबंध रखती है उतना रित्पीके परिभ्रमसे नही रखती विचारका स्थर है कि, विराखबुद्धिसंपन्न मिरटनकवि निस उत्तमताके साथ अपने ^प्यारडेनूहास्ट' संज्ञक काव्यको पूर्णकरसके उस उत्तमता- कै साथ वहं उसी काव्यके उत्तरभाग “प्यारडेनूरिगेड” को नरी छिखसके उसी प्रकारसे यह भातभी अनेक बार दृष्टिगोचर हई हे कि, ग्रंथकारोनि अपनी मरापूवे कीत्तिको अधिक बटानेके अभिमायसे अपने मूख्ग्रथोमें हेरफेर किये, पर उनका परिणाम कु ओरी हज, यही कारण कि, चतुर- छोग काव्यादियेथोके एकवार उक्ष सपादित होनाने पर पनः उनमे प्रिवत्तेन नरी करते यह्‌ सब निनके ग्रथोके विषयमे कहा गया फिर दूरके यंथमे हाथ डार उसमे उरूटफेर करना वा कुछ काट शट करना कैसा दुरूह एवं गुरुतम कार्यं दै सो सब रसमभेज्ञखगोपर विदि- तही है ! जैसे मत्येक मनुष्यका स्वभाव स्वरूप ओर स्वर एकं दृसरेस कदा- पि नही मिरते वेसेदी परस्परके बुद्धिगुणभी परस्परके एकसे नही पाये- . जाते ओर इसके सिवाय एक बात यहभी देखनेमे आती है कि, बडेषडे कुराग्ुद्धिवारे मनुष्यकोभी दीरषकारो संतत ॒पारेश्रम करनेके ' कारण गुणपुंनमेसे किसी एकमे अधिकतर निपुणता भाप्र होती है ओर शेष

१४० संस्फतफविर्पष्वकः

सब गुण योरौ रहते है 1 किसीकां चित्त गद्यकी ओर, किसौका प्चकी ओर, किसीका इतिहासंकी ओर, किसीका भित्र > शाखरोकी ओर, जैसा आकृष्ट होतार ओर उसमे जैसा > उसका मेश होता नाता है उसी भकारसे वह उस विषयका पृण वेत्ता होना- ताह एकही व्यक्तिमि अनेक गण एकचित हृएं हो रेसे उदाहरण कालिदास, सीञ्षर ओर आरसस्योटर कैसे खाखोमे एकटी दो पाये नते है। सामान्यतः एकही गुण पृणंतया प्ाप्र करनेके हतु कईं जन्म विताने पडते है मिमाय यह है कि, नब एकका मन दृसेरके मनसे सर्वथा मे नदी खाता तव एककी कृतिमे (कवितामे दृसेरका हाथ डालना प्रचंड सा- हसका कास्यं

इस विषयमे पाचीनकारका एक उदाहरण अत्यंत समर्पक है उक्त चतुर चूडामणि सीकर बड़ा रणधुरधर था, उसके विषयमे यह बात भसिद्ध है कि, रुडाईमें उसे नो समय छ्िखने पदृनेको मिरु नात। था उसमे उस ने अपनी चदाइयोकी संक्षि रिपपणी रिखयक्खी है कि, नो आन दिन प्रसिद्ध है उन रिप्पिणियोके छिखनेमे उसका अभियाय यह था कि,मरे पीठे कोई महान्‌ इतिहासकार उस समयका इतिहास रिखतीबार मेरे रेखक धार मानकर उसपर विस्तार कंरे,पर अचरनकी बात है किं, उक्त ट्पिणी आनदिनभी ज्योकी त्यो पायी नातीहै ओर उस समयके इतिहासका परमो- कृष्ट एवं विश्वासपाच्र ग्रंथ वही माना नाता है सीञ्चरबादश्ाहके अनंतर कंडे नामी इतिहासरेख॑क इए पर उनमेसे एककोभी भरोसा हमा कि, मे उसकी उत्कृष्ट मूटरचनामें कु हेरफेर कर कुछ विदोषता माप्त करसकृ- गा सारांश निनकी नूतन रचना करना तादृश कथन काय्यं नही है प्र दृसेरेके यथम नोड र्गा दोनोका एक जी कर देना भति , निम्मित करनेकैसा पायः दुःसाध्य है सारांश एेसे भचंड साहसकार्यम यरालाभ करना सामान्य बात नही है हम समस्ते कै, “कार्दबरी'' परिदिषके विषयमे बाणतनय उक्त शछाष्य यशकाभ करसके हं सुनानाता हे कि "कादेबरी' के शेष भागको बापके पिले शादे

बाणयट्‌ १४१

प्व अथौत्‌ एकसारूके भीतर पणिकरनेकी उसन भतिन्ञा की थी ओर वैसाही किया भी

बाणपुत्का नाम क्या थासो विदित नरी है। ओर उसका उसन कादबरीके उत्तरार्दमे उद्ेखभी नरी किया हे, इसका कारण स्प्री रै, उसने अपने पिताके अंतिम नियोगकी पर्तिमाज की है, उसमे कोई बात नई ओर निजकी नरी है, इसके सिवाय नेसे चंदकांतका दवित होना चैदके आधीन रहता है उसी प्रकारसे बाणभद्के पूवीद्धैकी शरीका अनुधावन कर उसने उत्तराद्धै रचाहे अतः हम समस्ते रै कि, प्रा भथ बापके नामसेही भसिद्ध हौ इस उदेशसे उसने अपना नाम नान वृक्षकर भगट नही करिया यह्‌ बात उसकी पितृभक्तिका मत्यक्ष भमाण बोध होती इसके अतिरिक्त उन्तरार्दक आदिमे उस्ने जो थोडीसी पस्तावना शिखी है उससे उसका मरकृतिसुलभ एवं बुद्धिसस्कारनन्य विनयभी स्पष्टतया बध ॒होतारहै \ इस प्रस्तावनाको पट्ती बार मनकी कुछ विरशक्षणही अवस्था हो नाती दहै पाठकोको कथाकी नायिकापर्य्यत पड्ूचाके अपना कवि उन्हे भरकथामे रानेकेख्यि उद्योग कर ही रहाथा फ, निर कारन उसके आयुष्यकी डोर काट दी,अतः यह अद्ितीय यंय एेसाही अधू- रा रह गया यह्‌ देखकर मन नितांत उदासीन हो जाता है ओर मगर मेगराचरणभी अमेगरवत्‌ नान पडने ख्गतांहै अगे पद्य पस्तावनास्वरूपं होने परभी एेसे जान पडते है मानो वे कविविषयक विरापके टै, ओर मनम इस वृत्तिका संचार ॒होनेका प्रधान कारण तदतर्मेत वृर्तेकी मंदता बोध होतीरै वशपरंपरागत भिरछेटी स्थानमे पाये ननेवे बुद्धिगुणको इन पितापुजमे एकत्रित पा ओर इस अभूतपूर्षटनाको देख मन कैत्हरुसमद्मे मय्नहो नातांहै-अभौत्‌ बापकी कृतिका बेटेके हासे परा होना देखकर मन नितांत जश्यिंत होता है; ओर मन वसे भयचकित होने रगता कि, एसे प्रचंड साहसका््येमे हमारे होनहार कविको क्योकर यरखाभ हो सकेगा, पर गंथ आगेको जेसनेप्ता पद्ते नावो वेसा वैसा वह भय दर हेते नाता है ओर अतम उसे पाप्रयशच देख पसन्रता होती है

१४२ संस्छृलकविपंचक

काद्बरी' शरेगाररसमधान यथ है 1 इसरसकी अपेक्षा इसमे किचिदन कीं कटी अद्भुत ओर करुणारस भी पाये नाते दै, ओर अपर रसोकी तो यों की भरसंगवश ्॒रुकमा् देख पडतांहै इस गंथके पदरच- नाकी विशेषता अर्थात्‌ रवे समास भयुक्तकरनेकी रीति इसके भत्येक पृष्ठम स्पष्टरूपसे दीख पडती है यह रीति कारिदास, भर्वृहारि भृति भाचीन कवियोके गंथोमे बिटकुर नही देख पडती उनके यथेमं चारपा- पदोकि समाससे अधिक पदके समास बहुतही कम पये नाते है, परु कारक्रमानुसार जवसे यहु प्राथमिक सरछ रीति उठकर कविताको सना- नेकेखियि यल किया जाना प्रारभ इजा, तवसे बडे समासमयोगदारा रचनाको विचित्रकरनेकी प्रथा चर निकली, यह भरणी प्यकी अपेक्षा गद्यमे अधिकतर स्वत्पकष्टसाध्य एवं विरेष ओभाप्रद होनेके कारण गद्यरचनाकी परिपाटी चर निकटी होगी एेसाभी अनुमान किया जा सकता है सप्रति संस्छृतके रभ्यमानयंथोको देख यह अनुमान होता है कि, इस नई प्रिपाटीका उत्पादक सुबंधु कवि होगा उसीको आगे बाणभदट् ओर देने अनुद्त किया # पीछे यह बात उद्धिसित हही चृकीरै कि, भवभूतिनेभी भरसंगानुयोध वर एेसी सनावट कही कदी की है

अब यह्‌ सचना सदोषहै वा निर्दोषि है इसके विषयमे यहांपर कु लिखना आवद्यक बोध होता रै आनक इस बातका अनुमान कर छेना किचित्‌ कठिन नान पडता है कि, निस समय चारो ओर संस्कृत भाषाका पूण अधिकार था उस समय एसी रचना कैसी विरक्षण नान पडती होगी तथापि उसकी ओरसे पाठकको थोडासा वृत्तांतं सूचित करना आक्यकीय जान पडता है मरथम तै यह्‌ बात सिद्धहीसी बोध हती है फि,जब बाण ओर भवभूति नैसे सुप्रसिद्ध कविगणोनेभी उसका अपने भ्रथोमे मथोग क्रिया तो निदान इस बातके मानेनेमे क्या हानि है किः उक्त रचनाको तत्कारीन पंडितोने सदोष नदी माना क्योकि उक्त बात

# य्‌ फेख जन प्रथम ह्खां गया तब इमारी यष्टी सम्म थी प्र गले दृशीके तिव -धद्वाराङ्खात दोजायगा कि बह हमारी मूल थी]

बाणभट १यद्‌

[> [१०५अब्‌ »ऽ

यदि वैसी होती तो इन रोगोकी कतिंही कदापि होन पातीं 1 यह्‌ वात अवद्य मान ना सकती है कि, उस समय संस्कृत भाषाका प्रचार न्यून होकर वह केवर उच्वपदाभिषिक्त तथा विद्वान्‌ रोगोदारारी व्यव- हत की नाती होगी, तो भी इसमे अणमाजभी सदेह नरी दै कि, उक्त पद्‌ स्चनाको विक्षेण निश्चित करमेकेषियि उक्त छोग थोडे बहत अपिकृतय। प्र उनके अनंतर ओर कुछदिन थीत जानेके कारण अव हमरगोको वह्‌ अधिकारी नही रहा एसी अवस्था इसके विषयमे समति ओर भमि- षयम केवर बाह्यतः मात मत देनैका अधिकार रहगयां अथात्‌ यह पदरचना कानोको कैसी रुगती है, इसके योगसे मन चमत्कृत हो अनदानभव करता है वा नही अब ईस दूसरी बातके सबधम्‌ नतन मत भकाशित करनेकी वेसी कु आवद्यकता नर दीख पडती बाणकविका यह्‌ ग्रथ आन बारा सौ वषैसे विदवानूलोगोके समीप विमान है ओर गवद्धनाचा्॑- मथति सटदयघुरीण रसिकटोमेोने उसे कसोधे र्गाकर परमेत्कृ्ट निद्धौ- स्ति किये एतावता हम सम्ञते दै किहमाया निश्नखिसित मत उन्शेके पुनसवारणकैसा दै। कादवरीमे शृगाररसदी मधान होनेके कारण कविकैटसकी पद्रनाको मादेव एवं छारित्यादिगुणोदारिशेषरूपसे अलंङृत करसकारै सायही परसाद्गुणकी इसकाव्यमे प्रचुरता पायी नाती है।यह्‌ वाते यहांपरस्पष्ट- रूपसे उद्धिखित करनेका कारण स्पष्ट है किं, इसमे बडे समास ओर्‌ यीचवीचमे बहुतसी बकोक्ति यद्यपि छायी गयी तभी यथके पदृते चे सव समह्ञमं आनातीे जक तिर्माजभा हानि वा चिष्टता होन- देते बाणभहृने छेषादि विचि रचना की इससे सरकृतभाषा उसके वदभ किस मकार थी सो स्पषटरूपसे नाना ना सकतांहै पीठे छिखिी हुई गोवरधना- चा््यंकी आस्यौ ओर^“बाणोत्चिष्ट नगत्सर्वम्‌'' दतूमासिद वाक्यका मुख्पार्थभी वही दै यहं मथ पठती वार ` उठाने पडते है, एक तो

१.४४ संस्कृतक विर्पचक

टक मक।रस ध्यानमे आनेके स्यि उसके मिन्नरप्पोकी ओर ठत्तचिनत्त रहना पडता है, ओर दूसरे यह किं, एेसे वर्णनोमे अनेके करपनामोकी एकही स्थानमें गुत्थमगुत्था होनेके कारण उनमेस॒भत्येकके $क $क समक्षमे अततक ठह्रना पडतांहे पर यह श्रम ॒रेसे है किं, पठनेके आनन्दमें इनका ज्ञानखों नही होने पाता

अब्‌ इस ग्ंथके कतिपय परंमोत्तम संग्रह पाठकोके अवरोकनार्थं नीचे उदृत किये नति है

मरथमतः भृगारके उदाहरण र्खि नाते हँ यही रस वत्तेमानकाव्यमे

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प्रधान है सो षी रिखहीदुके है,ओर यह रस अपने कविको कितना मिय था सो उसकी भस्तावनामारसे ज्ञात हो सकता है दृष्टोकी निदा ओर सज्ननोकी स्तुति करना यह कवियोका संप्रदाय परायः निशिती हो गयाहै सो उसका अनुधावन कर हमारे कवे र्खिते हैः कट्‌ क्रणंतो मलदायकाः खला- स्तुदन्त्यट बधनशखला इव मनस्तुसाघरष्वनिभिः पदेपदे हरन्ति सन्तो मणित्पुरा इव “दुनरोग पारवोकी बेडर्योकी नाई क्णकटु शब्द्‌ ( भाषाण ) बोरतदै ओर मल्के ( पापेके ) भागी बना देते पर॒ सन्जनरोग मणिनू- पुरकीनाई मंजु शब्दोदवारा(मधुरभाषणदारा) पद्पदपर भनको रिदचति दे ८दइृदयवसतिः पचवाणस्तु बाणः अथात्‌- उक्त पक उत्तरा्धमे कके मनकी श्ञाई केसी स्पष्ट दीसयडतीहे जयदेवस्वामीने जो कहा है किं, कवितावृधके द्यम वास करनेवाटा

वाणयटर। १४५९

दक्षाद पैचबाण ( मदन ) ही बाण कवि है उसकाभी अभिमाय यदी है। # इन उक्त पदेकी साथकता अगले संग्रहोदधारा भत्यक्ष होनयगीः-

आदिके शूद्रक राजाके क्ञान समारोहका वणेन-

अवतीणैस्य जलद्रोणी वारविलासिनीकरम्‌- दितसुगधामलकोपलिप्तशिरसो राज्ञः सम॑तात्‌ समुपतस्थुरंशुकनिवद्धस्तनपरिकराः दूरसय॒- त्सारितवलख्यबाहुकताः सयुल्िप्तचरणाभ- रणाः कर्णोत्सगोत्सारितालकाः गरदीतजरक- ठशाः स्रानाथेममिषेकेदेव॑ता इवं वारयो- पितः तायिश्च सयुन्नतकुचमंडरामिः वारि मध्यप्राविष्ठः कारिणीभिरिव वनकरी परिवेत- स्ततक्षणं रराज राजा द्रोणीसछिखादुत्थाय स्रानपीटममलस्फटिकधव वरुण इव राजदंसमारुरोदह्‌ ततस्ताः काथित्‌ मरकत करुशप्रभार्यामायमाना नछिन्य इव मूर्ति-

ओः धमेदरास नामके कविने भपने विदृग्धम॒खमडन सृज्ञक ग्र॑थमे रेसही माद्य की, शक छेकापहति छिखी वह यह रै. रुचिरस्वरवणेपदा रसभाववती जगन्मनो हरति तत्कि तरुणी नहि नहि वाणी बाणस्य मधुरद्ीटस्य कोहं कता ““ भहा ! उसके स्वर वणे ओर प्दोका सौदरयं कैसा अनोखा है, रख भौर मावे वुहवुहाती हई रोनेके कारण वद सवके मनपर वदी गंभीर चोट करती हे!” यह्‌ सुनकर दूसरा उससे पृषता रे कि, मारं क्या यह के नायिका हे ? 1 उत्तरम वह्‌ कटेता “नदीं नदीं वह नायका नकं है» भने यद्‌ मघुरक्ील वाण विक! बाणीका वणन कियाद्हे)

ठक्तभाय्योके (स्वर) "द्‌" "रस, शौर (भाव' श्िषटदवके भपर भ्ेभी स्पष्ट ३।

१४द संस्कृतकविषचक्‌

मत्यः प्पुरकेः काथिद्रनतकलशरस्ता जन्य इव पूणेच॑द्रम॑ंडल्विनिगेतेन ज्योप्स्ाप्र- वाहेण काधित्‌ कलशोतक्षेपश्चमस्वेदादश- रीरा जख्देवता इव स्फाटिके: करुशेस्तीथै- जलेन काधित्‌ मल्यसरित इव चंदनमिभरेण सलिलेन काथिदु्िप्तकलशपाश्वैषिन्यस्त- ट्स्तपषवाः प्रकीयंमाणनखमयूखजार्काः प्रत्यंगुछिविवरविनिगेतजनर्षाराः सकिल- यंञदेवता इव॒ काथिनाडयमपनेपुमाक्षिप् वालातपेनेव दिवसभियं इवं कनककलश हस्ताः फुंकुमजलेन वारांगनाः कमेण राजा- नममिषिषिचुः॥ कादंबरी जर चदापीडकी पहिी भट होनेके अनंतर उसे रहनेके लिये क्रीडापर्वतस्थ बंगा दिलाकर महाश्वेता कादंबरीके पितासे मिर्नेके थ्यि निकल गयी यह कडि कादंबरीके मह्के बगस्में ही था पाशै वौ उपवनोकी शोभा देखमेके हेतु चंदापीड बाहर आये हृए दँ यह देखकर मदनविवड कादंबरी कुरीनतोचित रुननाको तिरांनारे दे उन्दै देखनेके छ्यि अपनी अयारीपर उपस्थित इई उस समयका वणेनः-

कादंबरी त॒ तं दृष्ा चिरयतीति मदाश्वेतायाः किट वत्मांवरोकयितुं विञुच्य तं गवाक्षं अन- गक्षिप्तचित्ता सोधस्योपरितनं शिखरमास्‌- रोह तञ्च विरखपरिजना सकर्शशिमं- उरूपांडुरेणातपत्रेण हेमदडेन निवायेमाणा-

बाणभट्‌। १४७

तपा चतभिबौरुव्यजने फेनरचिमिरद्- यमानेरुपवीज्यमाना शिरसे इसुमगंघटु- न्येन भ्रमता भ्रमरकुलेन दिवापि नीलावरट- नेव चंदापीडामिसरण्वशाभ्यासमिव कुवती कैलासशिखर इव गोरी सुहृश्चामराशेखां समा सम्य, सुहुरख्चदंडमवटंन्य, सुहुस्तमाछिका स्कंधे करो विन्यस्य; सुहुमेदेखां सखी परि ष्व्य्‌, जुहुः पारिजनांतरितसकल्देहा ने- ्रिमागेण सहृरावछितभिवरीवल्या परि- वृत्य सुहु: प्रतिहारीवेऽरताशिखरे कपोटं निधाय; युहुर्िश्वरकरविधृतामधरपद्े वीरिकां विनिवेश्य; सुदुरुदूणेकर्णोत्परप्रदा- रपरायमानपपिजनाचसरणदत्तकतिपयपदा

विहस्य; तं विरोकयन्ती तेन विलोक्य माना महातमपि कालमतिकांतं नाज्ञासीत्‌

वही घटना फिर-

अनतिदुरं गतायां तस्यां कीडापवैतकूगतं उदयगिरिगतमिव चंद्रमसं; च॑दनदुकूलहार- धवलं चद्रापीडं द्रषुसुत्सारितवेचछ्वचामर- चिह्ा॒निषिद्धाशेषपरिजनानुगमना तमा- लिका द्वितीया चि्रथसुता पुनरपि तदेव

१४८ संस्करतंकविर्धचंके

सोधशिखमारुरोह तस्था पुनस्तथे- विविधविलासतरंगितेविखोकिंतैजंहारास्य मनः 1 तथा हि सुहु्तितंवविवन्यस्तवाम- रंस्तपद्वा असपाबृतांशकायसारपरसारित दक्षिणकरा निश्वरूतारका टिखितेव मुहूनै- भिकारंभदत्तोत्तामकरतलतया तद्रो्रस्खल- नमिया निंरुदवदनेव युहूरंशुकपडवताडित- निश्वासामोदटग्पमधुकरमुखरतया प्रस्तुता- हाने सहुरनिलगलितांशुकसंबरणसंभम- दविणीकृतभजयुगरपरावृतपयोधरतया दत्ता टिगनसंज्ञेव॒ यहः केशपाशाकृष्टकुसुमपू- [रतांजटिसमाघ्राणटीख्या कृतनमस्कारव मुहुरुभयतजंनीभमितयुक्तोप्रखंबतया निवेदि- तद्दयोत्कलिकोद्रमेव महुरुपदारकुसमस्ख- लनविधुतकरतखुतया कंथितकुमायुधशरः प्रहारेदनेव युहुगेितरशनानिबिडनियमित- चरणतया संयम्यार्पितेव मन्मथेन।मृहुछितो रुविधतशिथिखृदुकूला क्षितितर्दोखायमानां शुकेकदेशाच्छादितकुचा चकितपरिवत्तनघ रचभिवटीकता अससरस्तचिङ्कुरकटापसंक- लनाङकककरकमला, कटाकषक्षेपधवटीडृतक-

अआणमदट | १८९

गोत्रं विलक्ष्य स्मितसुधाधूरिष्ूसरित कृपोरं सचीक्रृतवदनमनेकरसर्भगिरभगुरं वि लोकयन्ती तावदवतस्थे, याबदुपसंहता- लोको दिवसो वभूव

उक्त उभय संग्रहोमे कादबरीकी मुग्धरीलाजका वणेन कितनी उत्त- मताके साथ किया गया दै इसीमकारके ओरभी सरह यथेष्ट उदत हौसकते दे, पर वैमा ग्रथके जगरका रसिक पाटकोको पौश्वय करा उन्हे उसका प्रमी बनादेनेक खयि उक्त तीनही संग्रह अलम्‌ होगे तथापि यपर ओरभी एकं स्थानका विभेषरूपसे निर्देश किये विना हमसे नही रहा नाता 1 पीछे यह ता छ्खिदी आये है किं, चद्रापीड मृगयाकी चिता करत कतै गंधर्वेके रदेशको अकेली पहुंच गया आगे काविने तदर्थं एकंसे एकं अद्धत घटनाएं घटित कौ है पहिरी घटना अच्छादनामकं विस्तृत एवं रम्य सरोवरका उदन, दूसरी उस निनैनवनमे दूरपर्यत श्रवणगत होनेवाखा मधुर गायनस्वर) ओर तीसरी हिवार्यमे बेट हिवगीत गनेवारी दिव्य कन्याका दङ्गन यह कन्या महाश्रेता है, आगे उस कन्याने जब राजाकी आदरातिथ्यदासया सभादत किया त्वं नाने उसका परिचय चाहा उत्तर उसने अपना गधर्वकुरुका नन्म॒ निवेदन कर पुंडरीक नामक एक दिव्य कषिकुमारके साथ उसकी अचानचक भेट कैसे हई, दोनोमे ततक्षण मेम किसमरकार अकुरित हज, ओर अंतमे रातिके समय तद्थे अभिसरण करनेपर उसे मदननव्यथाद्वारा गतप्राण देखकर वह्‌ कैसी विषम अवस्थाको पराप्त इई, आदि सब अपनी कथा उसने उसे पुरी परी कर्‌ सुनायी, यह कथाभांग अत्येतही दयभेदक है इसमे भगार, कर्‌- णा ओर अद्भुत ये तीनों रस मिभ्रित पराये जाते है यहांपर शेगारका अदा अव्यत द्ध होनेके कारण ओर साथी महश्वेताके मनकी गभीरता दिखायी जनेके करण इस कथाभागको विदोषं शोभा भराप्र इर है स्थानौचषित्थकीभी यहापर किसी भकारकी उनिता नही दहै-हिमार्यके

१५० संस्कतकवि्प॑चक

गगनभेदी उत्तुंग भदेश यहाके स्थान सारांश निस भकारसे च॑दापी- डको इस प्रदेशमे भथम पदार्पण करतेही नितांत विस्मय एवं हर्ष हु, वेसेही पाठकोकोभी होता है; ओर अगला वृत्तांतं नाननेके हेतु उनका रसिक मन परमोत्कंठित हाता है, पर उनके कटपनाकी दौड यथाथ घट- नारो नदीं पहुचपाती। अस्तु; इस स्थलके वणेनको यहांपर उद्त कर- नेके खयि स्थाभाव होनेके कारण हम विवा हो अपने रसिक एवं विवेकी पाटर्कौको मंत्रणा देते कि, वह मृखग्रंथदारा अपनी मनस्तुष्टि करे

भृगारके अतिरिक्त ओरभी रस इस ग्र॑थमे करीं कही पाये जति हँ, पर वे अप्रधान होनेके कारण उनके उदाहरण यहांपर ङ्खिना अभीष्ट नरी जान पडता अतः यहांप्र अव इस ग्र॑थमे ठौर ठौर पर जों रसपूरित वणेन उपटरग्ध होते है उन्हे अपने पाटकोको भट करते रँ

कथाके आदिमे तोता भिस विदार शार्मलीवृक्षपर रहता था उसका बह वणन करता हैः-

तस्यैव पद्यसरसः पथ्थिमे वीरे राघवशरपरहारज- जेरितजीणेताखतरुषंडस्य समीपे दिग्गजकमर्‌- दण्डायुकारिना जरदजगरेण सततमवेष्ितमूखत- या बद्धमहाटवालट इव तंगस्कंघावलबिभिरने- लवेष्धितेरदिनिमेकिषृतोत्तरीय इव दिकचक्रवाल- परिमाणमिव गृहता भुवनांतराखविप्रकीणेन शा- खासंचयेन प्रख्यकाल ताण्डवप्रसारितथुजसदस् मुडपतिशकल्शेखरमिव विडंबयितुमुयतः पुराणः तया पतनमयादिव गगनस्कंधलयः निखिलशरी- र्योपिनीमिरतिद्रोत्ततामिजींणंतया शिराभिः रि परिगतो त्रततिमिः जरातिककविदुमिसिि

वाणनमट्र्‌

टकैराचिततनुः इतस्ततः परिपीतिखा्णरसांटटै- गेगनागतेः पर्रथरिव शाखातिरेधु निलीयमाने क्षणम॑बुभाराटसेरादीकृतपद्वैजंरधरपटखृरप्य- ृषशिखरदशः तंगतया नंदनवनभियमिवाव- लोकयितमभ्युधतः समीप वत्तिनासुपरि संच- रतामंवरतटगमनखेदायासितानां रविरथतुरग- माणां सृक्परिसतेैः फेनपटलेः संदेहिततूलरा- शिभेषवटीकृतशिखरशाखः वनगजकपोलकं- डूयनटश्मदनिटीनमत्तमधुकरमारेन रदशर खलावंघनिच्चलेनेव कल्पस्थायिनां मूटेन ससु- पेतः कोटयार्यतरनिषिश्वैः स्फुरद्धिः सजीव इव॒ मधुकरपटलेः दुर्योधन इवोपलक्षितशकु- निपक्षपातः नलिन्‌नामे इवं वनमारोपगूटः नवजलघरव्यूह इव॒ नभसि द्रितोत्रतिः अ- खिरथुवनतटावरोकनप्रासादं इव वनदेवताना- मधिपातिरिव दण्डकारण्यस्य नायक इव सचेव- नस्पतीनां सखेव विध्यस्य शाखाबाहूमिरुपम्‌- त्येव विध्यारवीमवस्थितो महान्‌ जीणंः शात्म- दीवृक्षः।

प्रथम तो तेते का इतिहासदी वडा विरक्षण है। तिसर्मभी नव वह शा-

त्मरीवृक्षपर था तवका वृत्ता अर्थात्‌ राबरोने उस वनमे आखेट की, अतमें एकने उस पेडपर चढ अनक सुग्गाको मारकर नीचे डाक दिया उस अचित्य

१५२ ' ` , संस्क्रतफविर्षवकः

एवं विप्रम आपत्तिसे इसने' अत्येत विरक्षणतापूत्ैक अपनी रक्षा की आदि घटनाएं बरहुतही चमत्कृतिननक हँ ओर साथही उनका वर्णनभी परमोत्तम हे। उन्दँ पदतेही मन कौतूहरुमय्र हो नातांहै ओर नान पडने रगतांरै कि, मानौ बे अगर प्रकी उत्तमताका आश्वासन दे रहेरै। उक्त वणन उन्दीका एक जयसा अंश है इसका रस उदात्त इस रसके ओरभी उदाहरण इस ग्रथ कईं स्थानपर पाये नातेहँ उन्मेस एक निम्ररिखितभी है कि, जिसमे उक्त अच्छोदसंज्ञक सरोवरका वर्णन किया गया हैः- परविश्य तस्य तरुषंडस्य मध्यभागे मणिदरपंण- मिष अरोक्यलश्षम्याःस्फाटिकभूमिगरहमिव वसुंध- रादेव्याः निगंमनमागेमिव सागराणां निष्यंदमिव दिशामवतारमिव जराकारं गगनतरस्य कै ल्य समिव दरवतामापत्नं तुषारगिरिमिव विलीनं चंद्रातपमिव रसतामुपेतं दराहृदासमिव जली भूतं िथ्ुवनपुण्यराशमिव सरोषूपेनावस्थितं वे- दूय्यैगिरिजालमिव सलिखाकारेण परिणतं शरद भरदमिव द्रवीभूयेकञ निष्यंदितमादशेभवनमिव्‌ प्रचेतसः स्वच्छतया सुनिमनोभिखि सलनयगणे- रिव हरिणलोचनप्रभामिरिव सुक्ताफरखजुभि रिव निर्मितनापृ्णैपर्य्यैतमप्यन्तःस्पष्टटष्टसकर- वृत्तांततया रिक्तमिवोपलक््यमाणमनिरोद्तज कतरंगशीकर धूछिजन्ममिः सवतः ससुत्थितेः संरक्ष्यमाणमिवेन्धचापसदसेः भ्रतिमानिमेनातः- परविष्टसकल्काननगौलनक्षजयदहचकरवालं चि

१५४ संस्कृतकविर्पचकः

विक्षिप्तफेनपिडं कविदेरावतदशनसुसरखंडित- कुसुदखंडम्‌ योवनमिवोत्कटिकाबहुलम्‌ उत्क ल्तिमिव ्॒रणाट्वल्याटंकृतं महापुरुषमिव मीनमकरकुम्मेचक्रमभ्रगटलक्षणं पण्मुखचरितमिव श्रूयमाणकं चवनिताविखापं भारतमिव पांडधा- तैराष्रुरपक्षकृतक्षोभममृतमथनसमयमिव ती- रावस्थितशितिकटपीयमनविषं कृष्णवाखच- रितमिव तरटकदंवशाखाधिषूटहरिकृतजलप्रपा- तकीडं मदनघ्वजमिव मकराधिष्ठितं दिव्यमिवा- निमिषलोचनरमणीयमरण्यमिव विक्ञममाणपं- उरीकसुरगकुलमिवानंतशतपरपवोद्धासितं कं सवटमिव मधुकरकुरोपगीयमानकुवल्यापी- डं कंद्ुस्तनयुगलमिव नागसदस्रपीयमानपयो- गंड्षं मलयमिवं चदनशिशिरवनं असत्साधन- मिवाद्टांतमतिमनोदहरमाद्दादनं दृष्रच्छोद नाम सरो दष्टवान्‌ विध्यारवीमं उक्त शबरोके मृगयाथं धूमधाम मचा देनेपर उनका सेना- पति उक्त सेमरके पेडके नीचे श्रमनिवारणा्थं वैठगया उस समयका वणनः- ततः शबरसेनापतिरटवीपारेभरमणससुद्रवं अम मपनिनीषुरागत्य तस्यैव शाल्मारेतरोरधरछ- यायामवतारितकोदण्डस्त्वारितपारेजनोपनीते प-

बाणभट्र। १५.९५

वासने समुपाविशत्‌ अन्यतमस्तु शवरथुवा ससंभ्रममवतीयं॑तस्मात्‌ करयुगरपरिक्षोभितां मसः सरसो वैदृयेद्रवादकारे प्रटयदिविसकर- किरणोपतापादबरेकदेशमिव विरीनमिदुमण्ड- लछादिव प्रस्यंदितं दतामिव सुक्ताफलनिकरम- त्यच्छतया स्पशांनुमेयं हिमजडमरविदकोपरनः कषायमंभः कमलिनीप्रसंपटेन प्रत्यमरोद्धताश्च घोतपंकनिम्मंखा मृणालिकाः समुपाहरत्‌ आ- पतसि शबरसेनापतिस्ता मृणालिकाः शशिकला इव सेरिकेयः कमेणादशत्‌। अपगतश्र- मश्थोत्थाय परिपीतांमसा सकरेन तेन शवरसेन्ये- „+न शनेः शनेरभिमतं दिगंतरमया- त्‌

चद्ापीडका वव्याध्ययन पूरणं होनानेपर उनके पिता उन्हं उननयिनीको छोय छाये आर उन्दं उनने युवराजपदाभिषिक्त करना विचारा तब एक दिन उनके पिताके मंत्री शुकनासने उन्हे उस पंसगानुकूर उचित उपदेश भदान किया यह्‌ उपदेश सामान्यपुस्तकके आट दशय पृषटोमे समाविष्ट होसके इतना दै इसमे तारुण्य, रानलक्ष्मी, ठकुरसोहाती करनेवाले नरपिाच एवं धृत्तरोग आदि दारा राजपुरोको जो नो अनथकारक आप- त्ति होती है उनका कविसंमदायानुरूप अरुकारिक वर्णन किया गया है इस स्थरुपर बाणकविने अपने शब्दाथके अक्षय कोरक पृणंरूपसे भग किया है इसमेसे नर््मीके वर्णनको हम अपने रसिकपाटकेकि पठना- यापर उत करते

१५६ संर्कुतकथिषंचकः

आलोकयतु तावत्‌ कस्याणामिनिवेशी रक्ष्मी- मेव प्रथमम्‌ इयं हि सुभरखडर्मडखोत्परषन- विभ्रमरमरीरक्ष्मीः क्षीरसागरात्‌ पारिजातप्- वेभ्यो रागमिदुशकल्यदेकातिवक्रतामुचैः्वस- चरतां कालकूटान्मोहनशक्ति. मदिराया. मदं कोस्तुभमणेरतिनै््यंमित्येतानि सदवासपरिच- यवशाद्विरहविनोदचिह्लानि ग्रदीत्वेवोद्रता दयवेविधमपरमपरिचिर्तमिव जगति किंचिद्‌- स्ति यथेयमनास्य रन्धापिः खट दःखेन प- रिपाल्यते हदशुणपाशसंदाननिष्पंदीकृताऽपि अपक्रामति उदामदपेभरसदसरोासितासिता- पंजरविधृताऽपि अपक्रामति मदजलदुर्दिनांधका- रगजघरितघनचरारोपपरिपालिताऽपि प्रपलाः यते पारेचयं रक्षति नाभिजनमीक्षते हप- माखोकयते कुटक्रममनुवतेते शीलं प- स्यति वेद्ग्ध्यं गणयति श्रतमाकणंयाति घम्मेमनुरुध्यते त्यागमाद्रियते विशेषक्ञतां विचारयति नाचारं पालयति सत्यमनुबुध्यते लक्षणं प्रमाणीकरोति गंधवेनगररेखेव पर्यतः एव नरयति अयाप्यारूढमंद्रपरिवत्तोवत्तेभा- तिजनितसंस्कारेव परिभ्रमति कसलिनीसंचरण- ग्यतिकरटय्ननटिननारकंटकक्षतेव कचिति-

वाणमदु। १५९७

मेरमावधाति पदं अतिप्रचत्नविषृताऽपि, परमः ` शररगृदेषु विविघगंपगजगंडमधुपानमत्तेव परि स्वरति पारुष्यमिवोपशिक्षितमसिधारास निवसति विश्वूपक्वामिव मरदीतुमाधिता नारा- यणम्ूरि अप्रत्ययबहुखाः दिवसांतकमरमिव समुपचितमूरर्दडकोषर्मंडरमपि मुंचति भूभुजं लतेव विटपकानव्यारोहति गंगेव वसुजनन्यपि तरंगबुदुदचंचला दिवसकरगतिरव प्रकटितविषि- धसंकातिः पातालगुदेव तमोबहुला हिंडिवेव भीम- सादसेकरा्य॑ददया प्राब्रडिव अचिरदयुतिकारि- णी दुष्टपिशाचीव दशितानेकपुरुषोच्छाया स्व- ल्पसच््छसमुन्मत्तीकरोति सरस्वतीपरिग्रदीतं ३षये- वं नालिगति जन गुणवंतमपवि्रमिव स्पृशति उदारसत्वममगरुमिव बहुमन्यते स॒ज्ञनमनिमि तमिव पयति अमिजातमरहिमिव ठंचयति शारं केटकमिव परिद्रति दातारं इुःस्वभ्नमिव स्मरति विनीते पातकिनमिव नोपसपंति मनस्वि- नसुन्मत्तमिव रसति परस्परविरुदढं ईद्रजाल- मिव दशयन्ती प्रकट्याति जगति निजं चरितम्‌ तथाहि सततस्ुष्माणमारोपयन्त्यपिजाडचमुपज- नयति उत्नतिमादधानाऽपि नीचस्वभावतामावि- ष्करोति तोयराशिसंमबाऽपि तरष्णां संबद्धंयति

१५८ संस्कृतकविर्पघकः

ईश्वरतां दधानाप्यशिवप्रकृतित्वमातनोति बरोष- चयमाहुरत्यपि रकुधिमानमापादयति भमृतसरी- द्रापि कटुविपाका विग्रहवत्यपि अप्रत्यक्षदशंना पुरुषोत्तमरताऽपि खलजनप्रिया रेणुमयीव स्वच्छ- मपि कटुषीकरोति यथा यथा चेयं चपला दीप्य- ते तथा तथा दीपशिखेव कनलमलिनमेव कमं

केवलमुद्रमति चदार्पाडके दिग्िनियार्थं स्थित होनेपर उसक सेन्यकी पद- रन -उडा थी उसका वणेन नीचे उत किया नाता है-

शनैः शनैश्च वलसंक्षोभजन्मा क्षितेरनेकवणैतया चिजनीणेशफरकोडधूभ्ः क्रचित्‌ कमेरकसरा- सत्निभः कचित्‌ परिणतरषकरो मपछवमलिनः कचित्‌ पत्रोणंतंतुपांडरः कचिनरटमृणारदंडधः- वलः क्रचिजरतकपिकेशरकपिलः कचिद्धरृषभ- रो्मथफेनपिंडपांडुरः अिपथगामरवाह इव हरि. चरणप्रभवः कुपित इव सुंचन्‌ क्षमां आरण्परिहा- इव रधन्नयनानि तृषित इव पिवन्‌ कारिकरशी- करजटानि पक्षवानिवोत्पतच्‌ गगनतलं अलि- निवह इव चुबन्मदलेखां मृणपतिरिव रचयन्‌ करि. कुभस्थटीषु पदं उपा ्ताविजय इव गृह्णन्‌ पताकाः जरागम इव पांड्रीकुवेन्‌ शिरांसि सुद्रयाभिव प- ष्माभरसंस्थितो दि आजिभरत्निव मकरंदमधुविदु-

बाणभटर। १५९.

ल्यः कणोत्पखानि मदकलकरिकिणतालताडन- अस्त इवाविशन्‌ कणै्शखोद्रविवराणि पीयमान इव उन्मुखीभिरवनिपतिसुङटमणिमंगमकरिका- मिः भच्यैमान्‌ इव तुरगयुखविक्षेपविदयुतैः फेन- पटवकुसुमस्तबकेः अनुगम्यमान इवं मत्तगजघ- टाुभमित्तिसंभवेन धातुधरूलिवख्येन आिग्य- मानहव चलच्चामरकटापविषतेन पटवासपांशु- ना प्रोत्साह्यमान इव नरपतिशेखरसदसपार च्युतः कुसुमकेसररजोभिः उत्पातराहाव दिवस- कृरमडरमकांड एवं पिवन्‌ नृपप्रस्थानमंगलमरति- सरवल्यमाटिकासु गोरोचनाचू्णांयमानः ऊक- चकृतच॑दनक्षोदधूसरो रेणुसत्पपात अपरिमाणव- लसंघट्रसयुपचीयमानशशनैः शनैः संहरध्चिव विश्वमशेषं अकालकालमेघपटलमेदरो विस्तार मुपगंतुमारेमे उक्त वणनमधान संग्रहोको पट्‌ अपने कविकी वणन करनेकी शरी शेष उसेक्षा भभृति अछुकार चमत्कृति आदिकी कल्पना हमारे पाट-

केकि चित्तम बहुत कुछ आगयी होगी अब भिन्न भरकारके दो स- ग्रह भौर उद्धत कर इस छेखको शेष करते है

महाश्वेताके उक्त दुःखवृत्तांतको सुन कादंबरीने यह निश्चय करछिया था कि यावत्कारपरय्यत महाश्वेता पर्तिषिरदित रहेमी तावत्कारपर्यत भे विवाह कदापि करूगी उसके इस हठसे उसके चित्तको हटनेके छ्य उसके मातापिताने पराकाष्ठा की पर उसने एक सुनी अंतमे उन छोगेने

१६० सैस्कतंकविंप॑चक्‌

महश्वेताकेी यह संदेसा भेन भि तू.तौभी कुछ कहसुनकर उसे अनुकूर

कर उनकी आज्ञातुसौर उसने.जपनी सखी तरछिकाफर उसके पासःमेना

था सो उसके सदेसेका उसके साथ वहसे भाया हा वीणावादृकर केयुरक

कादंबरीका संदेशा कहता हैः- मन्तेदारिके मराशेते ! देवीं कादबरी. दटदत्तकं स्यहा त्वां विज्ञायति “यदियमागत्य मामवद्‌- तरलिका तत्कथय किमयं गुरुजनवचनारोधः। किमिदं मित्तपरीक्षणकि गरहनिवासापराधनिषु- णोपारंमः! कि प्रमविच्छेदाभिापः!फिं मक्तज- नपरित्यागोपायः! फिवा प्रकोपः ! जानास्येव मे सदजपरमनिर््यदनिभरं हदयम्‌ एवमतिनिष्टुरं संदि शन्ती कथमसि खनिता ! तथा मधुरभाषिणी केनासि शिक्षिता वकुमप्रियं परुषम भिधातुं वास्वि स्थोऽपि तावत्‌ कं इवं सद्दयः कनीयस्यवक्षनः विरसे कमेणीदशे मतिञ्ुपसपेयेत्‌ किसुतातिदः

, खाभिहतदछदयोऽस्मद्वियो जनः ! सुडहःखखेदिते हि मन॑सि कैवं सुखाशा ?केव निव्रेतिः {कीदशाः संमोगाः {कानि वा हसितानि ! येनेदशी दशसु पनीता पियसखी कथमतिदारुणं तमहं विष॑मिवा- प्रियकारिणं कामं सकामं स्याम्‌] दिवसकरास्त- मनविधुरासु नलिनीषु सहवए।८स4४यक्रवाक- य॒वतिरपि समागभङंखानि परित्यजति किञुतना-

बाणभट्ध १६१

य्यः! अपि यच भत्तेविरहविधुरा अपडतपरषु- रुषदशेना दिवानिशं निवसति पियसखी कथमिव तन्मम इदयमपरः प्रविशेननः१ यञ्च भचतृविरह- विधुरा तीत्रबतकशिर्तांगी प्रियसखी महत्‌ च्छूमनुभवति अाहमवगणय्येतत्‌ कथमात्मसु- खाधिनी पाणि माहयिष्यामि ! कर्थं वा मम सुखं भविष्यति! त्वत्परम्णा चास्मिन्‌ वस्तुनि मया कु- मारिकाजनविरद्ं स्वातज्यमारन्यांगीकरतमयशः समवधीरितो विनयः गुरुवचनमतिक्रमितं गणि- तो लोकापवादः षनिताजनस्य सहजमाभरणसु- त्सृष्णा खना सा कथय; कथमिव पुनर वत्तेते ! तदयर्मजलिरूपरचितः प्रणामोऽयं इर्दच पादग्ररणं अनुग्रहा मां वनमितो गतासि मे जीषितेन सहेति माङ्ृथाः स्वप्रऽपि पनरिमम्थं मनसि इत्यमि- धाय तुष्णीमभरूत्‌ उक्त संग्रहकमै स्वतंचरूपसे यहां पर प्रसा, करना अनावदयक यहांपर हमारे विने कथाकी नायिकाका पाटकोको किचित्‌ परिचय दे उसकी गंभीरता उदारता स्तरेदशीरुता चतुरता आदिं गुण भदरिंत

क्रि दै इन सवका पाठकके चित्तपर एेसा कुछ भरर संस्कार होताहै कि अगला वृत्तांत पदनेके खयि उनका मन अतीव उत्कठित हाता है उक्त समस्त संग्रह कादंबरीके पूरवादके दी है अथोव्‌ स्वयं बाण- फवि छ्खित है अव यह अंतिम मात्र तलुचहिसित रत्तरादधसे उद्धत करिया नातां है अकेरे इसको पट उसकी कवित्वशाक्ति मौर भूंद्धे पूर्णकरनेकी योग्यताका पाटकगण अनुमान करसकते है

१६२ संस्कुतकविपैचक्त

कथाफे आदिका तोता चंद्राषीडका पूर्ैनन्मका मित्र अथौत्‌ मेती शुकनासका पु वैशंपायन था। दिगिनया्थं निकी हई सेना चद्रापीडका पता रगात > नव महाश्वेताके आश्रमके पास पहुंची थी तम वहभी उसके साथमे था इसके अ्न॑तर एक बड़ी विटक्षण धरना हुई है वैसी बहुधा कहीभी नरीं हई होगी वैशपायन पूर्वेनन्मका ऋषिकुमार पडरीक था अतः पूर्वनन्ममे नापरं महश्वेतके साथ उसकी शरेगाररीटा. इरी वहीपर कम्मधम्म॑संयोगसे वह्‌ पुनः आगया उस समय एक दिनि एेसा इभा किः- अन्यस्मिन्नहनि आदतायां प्रयाणमेय्यौ सनीक्रि यमाणे साधने प्रातरेवास्मान्‌ वेशपायनोऽभ्यधात्‌। अतिपुण्यं तदच्छोदसरः पराणेश्रूयते तदस्मिन्‌ स्त्व प्रणम्य वास्येव तीरभाजि सिद्धायतने भग- वैतं भवामवप्रभं महेश्वरं शशांकशकशेखरं ब्रजामः दिन्यजनसेविता केन कदा पुनः स्वपर पि श्ूमिरियमालोक्ितेत्यमिधाय चरणाभ्यामेब्‌- च्छोदसरस्तीष्मयासीत्‌। तञ चातिरम्यतयेव सव तोदः संचरघ्रमरकामिनीश्रोरशिखरारोहण- प्रणयोचितेः तरंगानिखाहतिविलोलगृत्तिमिःकिस ल्यः अबिरख्करुसुममकरंदरोभपुंजितानां मत्त मधुलिहां मं्ना रिजितखेण दृरादाहरयतमिव मरकतमणिडयामया प्रमयाऽचलिपतमिव सर्म दश

परसा कारण स्पष्टो है कि पुररन्मका प्रतिपण्दन केवल दिदू धमे पाया सप फा नावति रोगों व्‌ कोई ®

य॒तेपखडढमें पैथा गोर्वियन लोको छोड इम मतको कोह नही मानते दक्षधर्मकी हद्‌

छागेकरि खथ एक जरमी विलक्षण समत पाथीजातीहे -वह मांसाशरनिपेधविषयकरै

बाणभट्‌ ९१६३

दिग्भागाच्‌ अदत्तदिवसकरकिरणप्वेशतया दिवा ऽप्यतर्िंशीथमिव बिभ्राणं चिरपारिचितेरपि मेघो- दरमाशंकया सुदयहरन्युक्तमधुरकेकारेः वनशि- खंडिभिरश्त्कंधेरेशवरोक्यमानं पदमिव जख्दकाक स्य प्रतिपक्षमिव सवंसंतापानां निजावासमिव जडिम्रः निगेममागेमिव सरमिमासस्य आश्रय- मिव मकरभ्वजस्य उत्कशविनोदस्थानमिव सेः आस्पदमिव सवेरपणीयानां अनवरतचछङ्ितसुर- भिशीतलाच्छदसरस्तरगमारुताभिवीजिताभ्यत- रशिलातलं अन्यतमं तटल्वामंडपमद्राक्षीत्‌ हषा तमतिचिरांतरितदशनं भ्रातरामिव तन- यमिव सुहृदमिव चानन्यदृष्टिः विस्पतनिमेषेण चक्षुषा विोकयन्‌ स्तंमित इव छिखितइव सुचि- रमृध्वंएव स्थित्वा अपारयधिवांगानि घारयितमा कम्थमाण इव मृच्छैयोन्सुच्यमानद्वेद्रियेञ्चरित्यु- न्सुतांगः समुपविश्य भूमो किमम्यतरात्मना स्मर- चिवायध्यायमिव निविकारहदयो गलितिरोचन- पयोधारासंतानस्तृष्णीमधोमुखस्तस्थो तथा- वस्थतं तमवलोक्षयास्माकसुदपादि चेतासेचिता येन केनचिदपष्धियंत एव रसिकडदयाः परिणाम- धीरमतयोऽपि किंपुनः फुतहलास्पदे प्रथमे वय-

१६४ सस्क्ृतकविर्षबकः

सिवत्तेमानाः 1 तस्माश्नियतमियमस्येमामतिमनो- हरां भूमिमालोक्य भावयतोहदयविकृतिरीदशी जातेति नचिराच तमेवमवदाम वयं दष्टा दशेनी- यानामवधिरेषा तदुत्तिष्ठ संमति निवेत्तयामःक्चान- विधि अतिमहती वेला जाता सनीमूतं साधनं भयाणामिसुखः सकटस्कधावारस्त्वांप्रतिपार्य ्रास्तेकिम्यापिविषितेनेतिसतवेवसुक्तोऽप्यस्मा- मिरशतास्मदालपदवजड इव मूकं इव अशिक्षितं इव चुं किचिदपि प्रत्युत्तरमदात्‌।तमेव केवलम- निमेषपक्ष्मणा निथलस्तन्धतारकेण संतताश्रुस- तसंलिखितेनेव चक्षुषा लतामंडपमालोकितवान्‌ उसे सहसा ( ेसी अनैरथौको प्ाप्र होते देख सैन्यके ठोग॒ आश्चस्यै-

चकिंत हो र्दे अनंतरं उन छोगोने वहसे निकलञनके छि उससे बहुत अनुरोध किया सबने उसकी मार्थना की ओर अंतमे निर्भ्सनाभी की तो भी वहसि उग्नेतकका उसे विचार हज अतम वह उन्हे कह तारै-- किमेतावदपि वेदि यद्रमनाय मां भव॑तः प्रति वोधर्यन्ति अपिच चद्रापीडेन विना क्षणमप्यद- मन्य पारयामि स्थातुं, एषेव मे गरीयसी पः सिोधना तथापि फि करोम्यनेनेव क्षणेन सवे- विगलितं मे प्रभुत्वम्‌ तथाहि स्मरद्वि कि-

बाणमष्टु। १६९

मपि मनोनान्यञ प्रवततेते पर्यंतीव किमपि ह- षिरन्यतोवलति आसक्तमिव क्रापि हदयं किमपि जानाति निगडिताविव अन्यत्र पदमपि दा- तुंचरणादुत्सहेते कीरितेव चास्मिन्नेव स्थाने तयः तदात्मना त्वहमसमथों यातुम्‌ ~ ~ ~`

मुहुतोदिव चोत्थाय तेषु तेषु रम्यतरेषु तरुतले- घु रतागृहेषु सरस्तीरेषु तस्मिश्च देवायतने किम- पि नष्मिबान्विष्यत्ननन्यदशिवंभ्राम भरांत्वा चिरमिव खिघ्रातरात्मा सनिषैदयुष्वैच निश्वस्या- न्यतरस्मिन्‌ लतागहनेपुनरूपविङ्य तस्थौ

उक्त रुताभवनका वर्णन कितना रमणीक है ! साथी वहांपर वैरोपाय- नके मनमे पूतैजन्मके विरहवृ्तांतका किचित्‌ स्मरण अस्पषटरूपसे उद्धूत # उसकी चित्तवरतेमे अचानक नो विकार उत्पन्न होगया उसका ओर उस समस्त घटनाका उक्त वर्णेन पटतीवार मन तद्धन हो उस्तकी वृत्ति कैसी विल- क्षण होनावी है! वर्तमान घटना कोई सामान्य नरी है। यहां पर समस्त कथा- नकका रुख फिरकर चिरकारुके अनंतर आदिकी कथाभागका यथार्थरूप किचित्‌ दष्टिगत होने रगता है।एतावता इसे बही चतुराईसे निबादृखेनाने-

* अनुमान रोता कि, ईस विविध घटनाकी करपनाक्रो व्राणमटने अ्नूतला से. - अनुकृत करिया उस नाटकके पाचवे कके पारंभ्ने एक मधुर गीत ` सुनकर विना- कारण रानाका अन्तःकरण ( उसके मत्तानुसार ) मत्यत्र विर्ोत्कसिति हआ यह क्या हे ेसा सदेह कर वह कहतहिः-- रम्याणि बींक्ष्य मधुराश्च निरम्य त्वन परत्सकीमवति यत्सुखितोऽपि ˆनतुः तदयेतसाः स्मरति, नूनमदोधपूव मारगरस्वरणि जननातरसैहकानि

१६६ संस्कःतक्ा्षिप॑चषफः

के यि मूलकविकी ही शक्ति अपेक्षित थी उत्तराद्धं रचयिताने वर्त॑मानं स्थानपर स्वैथा उसीको प्रगयित किया है

हम समक्षते हैँ किं, बाणभद्रके विषयमे छ्खिनेयोग्य अव ओर कोई वि- ेषबात शेष नदी रही। तौभी अपने कविसे विदाके माथिंत होनेके पूवं उस पर जआातासा देखपडने वारे एक महदोषारोपका यहांपर नि्ण॑यकर देना आवदयकं बोध होताहै।जिन विदेशीरेोरगोको संस्कृतकविताका अच्छासा परि- चय नही है ओर निन्द उसके प्राप्त करनकी इच्छा नहीं है वा शक्ते नी है- अथवा दोनो नही है, एेसे एतदेश्षीय अनन्यरारण संस्कृतज्ञराग उक्तयथा तैत बहतेरे वर्णनोको पद्‌ उन्हे बडे विरक्षण एवं विचित्र कहा सुना करते है परवे रोग यहु बात नही त्रिचारते कि, दा भिन्न नातियोके सपरदाय परस्परमे अत्यंत समता रखनेवारे कदापि नी पाये नाते;ओर उनका वैसा पायानाना संभवभी नहीं है-क्यो कि, मनोधर्मेकी विभिन्नता नैसी व्यक्ति गत दृष्टिपथे आती है वैसी ही उसकी स्थिति नातिमेभी अवद्य पायी नानी चाहिये एेसी अवस्थामे अत्यंत भिन्ननातीय अंगरेनादिखोगोके कान्यसम दायका संस्कृतके काग्यसंमदायसे सर्वैथा कैसे मेरु मिरसकता है ! अतः देश कारु ओर आचार विचारादिके अनुसार उभयरोगेको उचितंहै कि, प्रस्परके यथाथेरूपका योध पाप्रकरनेके देतु बद्धिमानी एवं निष्कपरपूरवक यल कर। एसा करनेमे कदाचित्‌ हम हारनांय ओर हमे नीचे देखनेकी वारी आनाय एेसी शका कदापि करनी चाहिये। यहांपर यह छ्खिनेको पर मोत्साह होतांहै कि, एतद्विषयमे इतना दृट्‌ विश्वासहोनेका कारण विराख्बु- द्वि एवं उदारता अग्रेनपंडितोके छिस हए रखी हए अस्तु; यह सब समस्त संस्छृतकाक्षयोकं विषयमे कहा गया।पर बाणकवि जैसे उपन्या स॒ केखकके पक्षम अभी ओरभी एक बात पाटकेोको सूचित करनेयोम्य है वृह यदह कि, उक्त थमे वस्तुतः. वस्तुस्थितिको. विरोध करनेवारी. अनेक-

बाणभदट्‌। १६७

रति वर्णित की गयी है-नैसे हसादिकोका कादेबरीके महटमे पारेचितेकी नाई रहना, उसके अन्यच चछेनानेपर तन्मुखसुगंध माप्य भ्रमरोका चष्ट करना, शबरोके सेनापतिका अनेकानेक पक्षियोका वधकर पटवासनासाग हो कमटरूताप्र्िमिति पाचदरा नट्पान करना, कमख्के गुध देटकोदी खाकर रहना इत्यादि पर इन सब कारणोके योगसे उक्त यथक सदोष निश्चित करनेके पूर्व, गुणदोषविवेचकोका अभिमान धारणकरनेवारोका सोचना चाहिये कि, बाणकविका उदरा इतिहास ङिखनेका था कितु कसिपित एवं अनोखी कथा छ्िसिनेका था; एतावता उसकी कर्पनानिम्मितं अपव सृष्टिको ससारकी व्यवहारिक घटनाभकी दृष्टिसे देखना, अरसिकता पराकाष्ठा ओर बाग्देवीका उपमर्द॑करनेके तुल्य सम्चा जायगा

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५.

कककात्रककातराका

सुबन्धु

कवीनामंगलद्पो नूनं वासवदत्तया

शक्त्येव पाटुपु्राणां गतया कणेगोचरम्‌ # हुषैचरित इस काविकी कीक्तिका आधारस्तम केवर तदचित "वासवदत्ता, नामक ग्रथ है। यदि उक्त भ्थमात्र हौ उपरुव्ध होता तौ इस कायिके विषयमे ओर अधिक परिचय कदाचित्‌ दिया ना सकता पर आनेदका विषय है कि, विद्यापरिय डाक्टर साहिबने अपनी शविन्छिओधिका इंडेका नामकी सुस्त ग्रथमाछिकामे वासवदत्ता को भकारित किया है। "वासवदत्ता, का उक्त सस्करण अव्यत परिश्रम एवं सावधानीपूर्वक स्तुत किया गया ओर उसमे सुबधु' काके जीवनकलादिका वृत्तातभी बहुत कुछ श्खा गयाहै अस्तु; हमारे आनके छेखको उक्त उक्टरसाहिवके प्रंथसे बहुत सहायता मिह एतदथ हम आपको कृतज्ञतापूरवेक साधुवाद दे मुख्य विषयनिरू- पणका प्रारभ करते है अथक समय निणौत करनेके दो मार्ग है-एक अन्तःपमाणका ओर दूसरा बहिःपमाणका अन्त.ममाण अर्थात्‌ जो परमाण उसी यथमे पये- नतह ओर बाह्य ममाण थीत्‌ उस यंय वा यथमणेताके विषयमे किसी दृसरेका विश्वासपात्र रेख अथवा कथनेपकथनपरेपरागत दतकथामभति वर्तमान यथके विषयमे उक्त दोने। मकारके भमाण उपरुब्ध होति है यह वात सवत्तोभाव सत्य कि, सुबधुने अपने छोगोके समदायानुपार तो अपन यथका सवत्‌ दी छ्खा ओर नामातिरिक्त आत्मपरिचयही

“५ भिस प्रकारसे इंदरमदत्त इक्तिके कर्णके निक्ट परहूचतेरी पाडवोक्रा अभिमान गलित हो.गया उसीप्रकारसे 'वालवदत्ता' के कणेकुहुरगत होतेही कविगणोक्रा मर्व प्रया चणे दो जता दै} १)

१७० संस्करतकविपंचक

दिया; तौ भी उसके भस्तावनाकी एक आर्या उसके समये विषयमे अन्तःभमाणस्वरूप मानी ना सकती है वह यह्‌ हैः-

सारसवत्ता ^ विहता नवकाश विलसन्ति नो ककः। सरसीव कौर्तिशेषं गतवति भुवि ककरिमादिप्ये

“^ विक्रमादित्य रानाकी कंतिंशेष ( स्वर्गवासी ) हो जाने पर संमति नूतन श्चुद॒रानाोग अपनी भरमृता भदित कररहे हँ; प्र वह पिर्टा तेन उसीके साथ चा गया; अब कोई किसीको नही मानता "'

सुबन्धुने उक्त आय्यमिं पचंड परतापी एवं विद्धानेका समाद्र करनेव विक्रमादित्य रानाके विषयमे विराप कर तदनतरके राना रोगोकी दु्बै- रता तथा उनके राज्यका अत्याचार वर्णित किया है। यह वर्णन इस बातको सपष्टरूपसे भरदशिंत करता है कि, सुवधु विक्रमादित्यके पीछे करई वेकि अनंतर हआ है ओर इसके व्यतिरेक वासवदत्ताकी कृञिमरचनाभी उक्त केटपनाकोही पृष्टकरतीहै

इस कविके जीवनकारके विषयमे बहिःपमाणभी वही बात निर्णीतं करते हैँ नो अभी उपर निथित हो चुकी है बाणभटने अपने ह्चरितके आदिमे पने पूर्वके अनेक कवि्योका वर्णन किया है उसमे वह सुबुके विषयमे छिखताहेः-

कृवीनामगलदर्पो वरून वासवदत्तया शक्त्येव पांड्पुत्राणां गतया कणेगोचरम्‌

कक्तं आर्य्यामिं विक्रमादित्य ओर सरोवरकी सटशता वित हे, भररसवत्ता भय प्नवकाः? पद चछिषट हे ! "रसवत्ता से पराक्रमशाङिता शरकिकत ) मी ध्वनित होती हे, ओर जलयुक्तता ! ओर "नवका-) से (नये (“क ) कुत्सार्थं भौर “न बका” ( वि- लसन्ति > अर्थाद्‌ बगले शोभाको प्राप्त नकष होते साराश शेषाथका आभिप्राय कि! से सशेवरके सूखजनिपर जल नर्ीसा हो जाता दे, बगर्लोकौ शोमा नष्ट हो मर विशालकाय चरचर णोटे सतुभोको खाने कूणते है, उसीप्रकारते राग्यकी दुभा हो गरे

खषंधु १७१

“निस पकारसे वासवदत्ता ईदपदत्त ) शक्तिके कणेके निकट पर्च- तेही पंडवोंका अभिमान गित हो गया; उसीभकारसे "वासवदत्ता! के कर्णगोचर ( श्रवणगत ) होतेदी कविगणोका ग्वे भायः चूण होना- ताह)"

उक्त भ्रशेसामधान पद्य इस बातको खषटतया रक्षित फराता है कि, सुवधु ई० सु० ६५० के कईं वषं पूर्वमे रहा होगा सुेधुके विषयमे कविराजनेभीशरः यही बात छ्खी है

सुर्वधुवोणमेह कपिराज इति चयः वकोक्तिमागेनिपुणषतुथौ वियते वा

^“ वक्ति अथीत्‌ शछेषादि चमत्कृतिकी रचना करनेकेथ्यि सुबेधु, बाणभट्र ओर कविरान यही सीन मात्र अधिकृत है-इनकीं समताका चौथा कोई स्यात्र होगा `"

यह पद्य तो मानां स्वयं कहै देतांहै कि, सुबधु कविरानके पूर्व हुज है जस्तु, उक्त भतिपादनद्वारा यह बात भदित हो चकी मानलेनेमे कोई आपत्ति नही है कि, जपने कविके जीवनकारुका बहत छख पता मिरुगया; अव उसके नामसे जो एकमात्र काव्य "वासवदत्ता भसिद्ध है उसके वि- षयमे विचार किया नाता है

अनुमानसे बोध होता दै कि, पुराकारके रोगोको वासवदत्ता नाम बहुत प्यारा था, जिन यथोकी नायिका्ओकिो यह्‌ नाम दिया गया है वह यथ आन दिनि भी बहुत पये नाते है ! भगवान्‌ पाणिनीके व्याकरणसूर्जोपर निन महष कात्यायनने वातिक रिस हँ उनने एक स्थानपर "वासवदत्ता, नामक एक पराचीन कथाको अनुरुक्षित कियांहै ! काटिदासने अपने भेषदूत मे

#"राघवपाडवोयः ग्रथपरणेताका यद उपनाम] सका प्रचलित नामं क्याया सेनक

याना वाता इस्‌ कान्यकी रचना पेषी शिष्ट हे कि, रामायण ओर मारतंकौ कथा एक्से पे[ द्वारा धी गयी ईे।

१७२ संस्कृतक वि्पचक

उञ्जयिनीका वणन करतीवार, भवभूतिने ( पूवोद्धिखित ) एक स्थानपर उशी भकारसे सोमदेवकृत कथासरित्सागर" संज्ञक बहत्कथासमूहमे त्कार मिद्ध वाक्षवदत्ता ओर वत्सरानकी कथा 'छिर्खीरि श्रीहषैकी 'रनाक्ही' मे भी रानीका नाम वासवदत्ता पाया नाता है; परन्तु इन उक्त कथार्भोका वत्तेमान "वासदत्तासे' ठेशमाभी संबंध नरी है; एक नाममात्र एकसा दै; ओर नानपडता है कि, वह ननमय हनेके कारण सुबेधुको भी भिय हभ हो इसके सिवाय अपर सब कथा मायः स्वयं उसीकी रची इई ज्ञात हाती

परंतु उक्त वातका यदि निर्णय करही -छिया नाय तभी उससे कु तादृश छभकी जदा नहि; क्योकि व्तेमान ्रथकी योग्यता भितनी व- हिःस्वरूपपर निर्भरह उतनी अन्तःस्वरूपपर नहीं है इस ग्रेथके प्रणयन करनेमे कविका अभिप्राय कादवरीकार केसा दर्थ था.अथौत्‌ र्वनाके चित्र विचित्र भेद सपादित कर॒ कथाके संविधानककोभी चिनत्ताकषैक करना, किंतु उसने अपना उदेश परस्तावनाके अंतमे स्पष्रूपसे रेखदियादै-

सरस्वतीदत्तवरपूसीद्‌-

करे सुवंधुः सुजनेकवधुः॥ परत्यक्षर्ेषमयप्रबंध- विन्यासवेद्ग्ध्यनिधिर्निवंधम्‌

८८ सुरस्वतीने अपना वरदहस्त जिसके माथेप्र रका है, ओर उसके मभावसे भत्येक अक्षरम शेषपूरित शब्दरचना करनेकी अपार चतुराई निसे भराप्ठहै, उस सन्ननेकि एकमात्र बेधु सुबेधुने अगरे निवंधकी रचना की

अपने उक्त उदेशकी सिद्धिमे सुबेधुको कितना यङ माप्त इजा सो भावी संग्रहोदाया पाठकोंपर विदित होनायगा संमति यहांपर कथाके संविधा-

( कथास ) की आरोचना की नातीहै

सबेषु १७३

इस उपन्यासका कथासूत्र पू्वरेखानुसार गौण हनेके कारण बहुतरी छोय है वहं सक्षिपमे नीचे छ्खा नाता हैः-पुराकारमे चितामणि नामका एक महान्‌ भतापी एवं पएण्यात्मा राना था, ओर मदनोपम्‌ स्वांगसुदर एवं अदोषगुणसपन्न कदर्षकेतु नामका उसका पुर था, इस राजपुत्ने एक दिन उत्तररातिके स्वपे एक कन्या देखी;उसका वयःकम अटारह वैसे किचिद्‌ न्यून था ओर वहं मानो सोदथेकी खदानही भी .अनंतर यह्‌ संक अनुपम खछावण्यामृत्तके नेजोदारा यथच्छ पान कररहाथा किनिद्ाने मानो सौतिया- हाहे मार उत्त सहका परित्यक्त कर दिया;साथरी वह मनोरम मूत्तिं उसके आरोकपथते दूर हो गयी तब उसके विरहशोकसे नितांत कातरहो निदाकी पुनरपि मापि होनेके अथं उसने चेष्ठा की,पर षह सय विफर हु्ई;अंतमे निराश- हो अपने शयनागारके समस्त दार वंद कर वह वहांही पड़ रहा ओर उसने किसीौकोभी भीतर अनि दिया ओर अन्न नर ग्रहण किया एेसीही भवस्थामे उसका वह्‌ सब दिन ओर रात बीत गयी पर तीभी रानपुत् की इच्छा पूर्णं नरी इडं इसके अनतर कदधपेकेतुका बारमिच् मकरंद अनेकानेक गुरुतर य्नदारा भीतर ना, उसे योध करनेटगा पर रसे अव- सरपर शिक्षाका ना फर्‌ होता है सो सवे कान्यविशारद पाटकोपर विदि- तरर अतमे हारकर उसे कंदर्केतुकी मणा (सखा) अगीकृत करनी पदी, वृह यह थी कि, हम दोनो गुप्रभावसे नगरके बाहर भाग

उक्त सकत्पानुसार दोनों पाथेक घन मागै क्रमण करने रगे; चरते चरते विध्याचटनिकटवत्तौ एक नंगरमे वे शाचिको ठहुर गये वहां फठ मूखादिदवारा क्था शांतकर तृणरतापतादिकी शय्यापर वह्‌ पड रहे पर कु कारके अनतर जिस जवूवक्षके नीचे वे पदे उसप्र एक शुकसा- रिकाके नोडेका करद रेते चेद्रकेतुको सुनपडा; उसे, सुन उसने मकरद- को जागृत किया ओर वे दोनो उस करहको घडे दन्तचित्तसे श्रव्‌- करनेख्मे

सारिकाने अक्ककर सुग्णेसे पु रे ठग ! आन अभीं तू कहां था ! नान पडता है किं आन तू किसी दूसरी सारेकके नारुमे फसा था! 'उत्तरभे

१७४ संस्कतक्षिपचक

तोतेने समम कहा “भिये ! आन भने बड़ी विचित्र कथा सुनी ओर भवयक् देखी) अतः आनेमे विर्व हुजा '' साकाके पुनः मश्च करनेपर तोतेने उसक। कथन करना आरंभ किया

ˆ“ जाहुवीके समीपही कुसुमपुर# नामकी एक विश्षार नगरी बहक राजाक नाम शगारदोखर ओर रानीका नाम अनेगवती है उन्दे इकटीती एकही कन्या है उसका नाम वासवदत्ता है 1

“यह्‌ कन्या उपवर होनेपरभी कर दिनों विवाहसे धृणा करती रही | पर अव इधर ऋतुरान वसंतके आगमनके योगस उसके मनमे अभिनव वृत्ति माटुभूत होनेके कारण उसके पिताने उसके स्वयंवरकी तयासी की थी उस समय चारों ओरके राजपुत्र वहांपर एकत्रित हुए थे, पर उनमेसे से कोरैभी पेद हभ, एतावता वह अपने मंचसे उठकर ची गयी

““प्र उसी गतक पूणेतया उसके ददयेदा बननेकी योग्यता रखनेवाे एक राजपुत्रने उसे स्वमरमे देन दिया, ओर उसे स्वम्मेही यह्‌ बात ज्ञात हो गयी किं, वह चितामाणि राजाका पत्र केदपकेतु है उस दिनसे वह बहत बेचैन रहा करती उसे भरसन्न करनके हेतु उसकी सखी नानामका- रके उपाय करती पर वे सब निष्फर होते अंतमे तमाटिका नामकी उसकी सखीने कहा कि, मे कंद्पैकेतुके निकट नाकर उसका संवाद खा तुञ्चे सुनाती हं एसा कहकर वह उधरको चीगयी भी उसके साथ हो गया ओर अब वह इसी पेडके नीचे है

इस वातके सुनतेही मकरंद तमारिकाके पास गया उसने भणामकर अपने स्वामिनीकी मेमपतरिका उसे दी उस प्रको पठतेही कंद्पकेतुने आनंदमप्र हो तमाल्काका आख्गिन किया ओर वासवदत्ताके विषयमे उससे उसने हनारों बाते पीं फिर दूसरे दिन वे रोग वहासि मस्थित हो कुछ रात बातनेपर कुसमपुरको पर्हैच गये राजाके बगीचेमें एक हाथीदांतका बनाहृजा

# कुसुमपुरका दूखरा पुराना नाम भारक! था चीनी्णेम उसे कुसुमेषु ओर सीकलोग "पीबोध” के नामसे पुकारते ये दसका वन्तैमान नाम "रना इं |

सुवं १७५

वगर वहीं कंदर्षकेतुसे वासवदत्ताकी भट हृ प्रथम तावे लेग परस्परको देखतेही मूच्छित होगये। फिर जव उनकी मूच्छी टूटी ओर वे सचेत हुए तब तमाछिकाने अपने स्वामिनीकी विरहव्यथा रानपुत्रसे निवेदन की ओर अभी थोडे समयके पूर्व नो अनर्थं नष्ट हमा था सोभी कह सुनाया ।वहं यह था कि, उपवर वासवदत्ताको अविवाहित देख सवंसाधा- रणमे जो ननापवाद्‌ फैट रहा था उसके निवारणाथे उसके पितान वियाध- रोके रानाके पुत्र पप्पकेतुके साथ दूसरे दिन उसका विवाह करदेना विचारा था\ वासवदत्ताने उसे सुन भतिज्ञा कर री थी कि, उस भसंगके उपस्थित होतेह मे आभिमे भरवेश करूगी, प्र इतनेमे अपने रोगो शक समयपर प्च जानेके कारण वह घोर संकट द्र हो गया

अनेतर मकरद्‌ ओर तमाछिकाको अपनी सामगरीकी रक्षा करनेके- स्यि वहीपर छोड कदर्पकेतु ओर वासवदत्ता यही दोनो मनानव नामके एकं दिव्याश्वपर आरूढ हो विष्याचर्के एक अरण्यम ना पहुचे वहां एकं ठततागृहमे ठहरकर उन रगोने वह रात बितायी अंतमे इतने दूर अनेके परिभरमके कारण दोनो एकाएक सो गय

दूसरे दिन मध्याह्ठके समय जागृत होनेपर कंदपं केतुने वासषदत्ताको वहां नही पाया तव उसके अचित्य विरहसे कातर हो उसने बहुत वि- राप किया अंतमे उस अरण्यसे निकर कर दक्षिणकी ओरको चरते चरते वह ठेट समुद्रकूरुपर ना पर्हैचा वहां पर्ुचतेही उसके नीमि यह यातं आयी कि,अव जीना व्यथं है अतः यहांही पाण विसजैन करना उत्तम है। एसा विचार कर उसने समुद्रमे स्नान किया.ओर उसमें बह देह त्याग करनेको ही था कि, इतनेमे आकाशवाणी इई कि, तू जात्महत्या मत कर, वासवदत्ता तुस्ने फिर मिटेगी

उक्त आकारावाणीको सुन बह पीठे रीर जआया,ओर बनमे उसने कई महीने पुनः उसी प्रकारसे काटे,वीचमें पावसकाभी भागमन हुआ पर वह आकार वाणी उसे मत्यक्ष नरी हुई शरदतुमे वह्‌ एक दिन अरण्यम योह इधर

९७द्‌ संस्कृतकषिपंचक

उधर पिर रहाथा.कि, एकं पाषाणकी मूत्तिं उसे देख पडी उसकी ओर ध्यानपूव्वंक निहारनेसे उसे एेसा जान पड़ा कि,इसका रूप, वासवदत्ता कैसा- ही है फिर उसके करका स्परहोतेही वह पाषाणमू्तिं पासवदत्ता हो गयी! “(तत्पश्चात्‌ वासवदत्ताने अपने पाषाणमृत्तिं होनानेका कारण. उसके पति कथनं किया, वह यह कि केद्पकेतु रुताभवनमें नव सो रहाथा तब वह्‌ नागृत्‌ इई, ओर वियोगदुःख एवं उपोषणके कारण उसकी वह दीन अवस्था देख उसने विचार किया किं, इसके जागृत ॒होतेही भोननोको देनेकेणिये कुक फर छाना चाहिये।' छानेकेलिय वह वमे पिर रहीथी कि,उसी समय उसने एक सेन्यको वहां रा डार्ते देखा।जओर वह भयभीत- हो मनोमन विचार करनेरुगी कि, स्यात्‌ यह सैन्य मेरे अथवा कंद्केतुके पिताका तो हो१ पर वह सेना किंसी वीसेरकीदी थी।इतनेमे उस सन्यके अधिनायकको उसका संवाद मिरु गया।उसके मिरतेदी वह उसकी रको टपका। उसी समय किरातोका एकं सेनापति वहां आखेट कर रहाथा वहभी उसे पकडनकेटिये वहां आगया। दोनों ओरसे एेसी घोर आपाते एकाएक उपस्थित होजानेके कारण वासवदत्ता घबराकर किकर्तव्य विमूढ हो गयी। प्र उसी अवसरपर उन दोनोको अपनेिये संग्राम करते देख बह वहांसे चंपतद आसन्नस्थित एक पर्णकु्ीमे ना पहची। पीछे इस पर्णकुटीकोभी उन छोगोने नष्ट.कर डाला। आगे दी्काटके पश्चात्‌ उस आश्वमके मुनि वहां आये। ओर वासवदत्ताको देखतेही वे नान गये कि,हमारे जश्रमकी इस दुदशाका कारण कदाचित्‌ यही है।अतः उसने उसे शाप दिया कि,तु पत्थरकौ होना। प्र उसके अपना वृत्तांतं निवेदनकर भार्थेना करनेपर मुनिने, उसे उच्छाप भदान. किया कि, तेरे पातिके करका स्प होतेरी तु पूंवव्‌ हो नायी यह कथा शेष हेनकोही थी कि, मकरंद वहां आपर्हृचा अनेतर सब रोग कंदपकेतुके पिताकी रानधानीको छट गये इसके पवात्‌ उन सवने अपने दिन अत्यंत आनेद ओर सुखपू्वक व्यतीत पिये यही 'बासवद्रत्ताका' संविधानक अथात्‌ कथासूत् है हमारे वेशे पाठकोको यरोपके, पाठकोकी नाई परमोत्तम॒उपन्यासोकौ मृता

ख्व॑घु ९७७

अयावधि पाप्र होनेके कारण वे अभीं उनके तादश मर्वेत्ता नरी हृए है यही कारण है किं, उक्त कथासूत्र उन्दे खटकतासा नरी जानपडता पर थोडासा विचार करनेसे यह बात तुरंतरी ज्ञात हेसक- तीहै किं, उसके नोडनेवाेने अधिकं पारेश्रम ओर चिताके भारको उग योरही'्येत केन भकारेण'' उसे परा कर दिया है पथम तो कथाके नायककी राजधानी कदां थी उसीका पतातक नदी दिया केवर इतनादी छ्खि दियाहि कि, कंदपकेतु अपने मित्र मकरंदके साथ कुस॒मपुरको गया ओर वहांसे अपने नगरको छट आया पर नानेके माग वा दिशाका उसने कुछभी पाश्चय नही दिया हां बीचमे पडनेवाटे विष्यपरैतका उसने अर्वते उष्ेख किया दै इस पर्वतसे दोनो ओरके अंतर दिये है, पर दोनो ओरके अतरमे आकारा पातारुका मेद है उपन्यासमे छिखा है किं, कद््पैकेतु सीविरहके योगसे वावा हो पिरते किते समुदरप्य॑त परैव गया था प्र यह समुद्र॒ कौनसाहि इसका निर्णय करना कठिन है

“उसने दक्षिण दिशासे यात्रा मारभ की' यह छिखकर उसने आगे छिखा हे कि, उसी समुदको नमेदा चंदना ओर करतोया नदी मिरतीै असतु; यह विषय किचित्‌ भूगोरकादी रै, प्र॒सुबधुने यदि वर्तमान ग्रथमे ओरभी काविताके प्रधान गुण प्रदतं कि होगे तौ इस दोषके स्थि समस्त पाठकगण ओर विरीषतः अगरेनपाठक & उसे निःसदेद्‌ ततक्षण क्षमा प्रदान करेगे सुवधुके कवित्वगुणकी आरोचना अगे चरुकर टिखिगे,-समति वत्तेमान ओख्यायिकाके अपर दोषोकी मीमांसा, करते है बास्तवमे संवाद तो इस उपन्यासमे बहुधा पायेही नहीं जाति ओर संवादके नामसे जो पये जाते है वे वर्णनस्वरूप

इमे जिन पाठकोका भगरेगीसे अच्छा्ता प्रारिचय नं उन्दं भषनी दस तकनाका कारण स्पष्टरूपसे स॒चित करदेना भावरयक जान पडता है वह्‌ यद हे कि, भगरेश कपिर्योके चडामाणि शेक्सपियरने अपने एकं नाटके बोहोमियाकै तीरपर जडान पंहचाया है] } भोरोमिपा' मूरोपखण्डके प्राय, वीच बाच होनेके कारंण समद्रसे बहता दर दे

१७८ संस्कुतक विषैचक

होनेके कारण उन्हे पाके कहनेकी अपेक्षा स्वयं कविकेदी कहना भधिक- तर उचित नान पड़ता है। कंद्पैकेतु ओर वासवदत्ताकी मथमतः पृष्पवा- यिकामं भेट हुई, ओर उसके अनैतर उन्दी दोनेनि विध्यादीके अरण्यांत- गैत एक छताकुनमें सब रात वितायी; पर दोनेबिर उन दोनेकी परसपर कुकभी बातचीत नरी हृई। दुसरे एक स्थानपर नहां किं, परस्परके आरा- पकी अत्येत बहार थी, र्खे किं-सवेरा होते वे दोनों एकाएक सोगये। यह स्थर तो अत्यं॑तही उपहासारहै दोनोंका गंधर्विवाह हो वे दोनों भथमही विष्याय्वी जेसे मन्य एवं मनेारम अरण्यमे चोदनीरातको एकांतस्थानमे रहे, पर उन दोरनोनि वह सब रात परस्परके अतिनिकय्वरती रहनेपरभी विना आछापके व्यतीतकरदी! ! बलिहारी इस विचिजधटनाकी! वासवदत्ताके मोनाबरुंबनका कारण उसकी खीस्वभावोचित छना अवय हे सकती है; पर नो नायक अभी केवर स्वपरदशनकेयोगसे इतना पाग हो गयाथा, ओर निसे अगे दिन शोकविमुक्तिके कारण मवचनपटुता पुनः भप्त होगयी थी, उसके एेसे समयपर मौन धारण करनेका एेसा उचित कारण क्या होगा सो नही नान पडता ! मारुतीमाधवके आवे अंककी घटना इस घटनासे पुष्कटांरामे मिती है वहांभी मारुती एक अधूरी बातसे जधिक ओर कुछ नदी बोरी; ओर माधवका आलापभी विस्तृत नही छ्ा- गया है।तैभी वहांपर जेतना छिखा गया है उतना नितांत उचित एवं हद- यग्राही है उसके योगसे उस नाटकके भधान रस श्रगारकी वहांपर पराकाष्ठा हो गई है यदौ कारण कि, वहांपर वह अत्यंत शोभामद्‌ बोष होता रै, यैसी बात यहां कुक्भी नदी है यहां तो एेसा नान प्ड़ताहै मानों वै दोनों कोई कुलाचार मनानेके छ्यि आये हो एसे परमरस्य वनमदेशमे यात्रा केकी सार्थकता यदि निद्ादेवीके गोदे विश्राम करेमेरी.थी ती राजपुत्र ओर रानकन्याका परिखा मासादौ क्या इर था { सारीरात

# इस प्रसगकी बहारं यरि देखनी हो तो मदतुवारति श्रणयीमाधव) नामक उपन्यासको कल्याणके लवैरवकटेश्वर छपिखानेसे गाकर अपनी कान्यममेनिङ्गासाको दृप्त कीनियेगा

सुवंधु १७९

योही नगकर अपनी हंसी करेनेमे जाने उन्हे क्या राभ हजा ? वे रातिको सीषरही क्यो नही सोगये ? एेसे परमोत्कृष्ट प्रातःकारके समय उन दोनोके युगपत्‌ निदित होनानेका कारण कुखभी नदी जाना जाता; इसका कारण स्यात्‌ इतने दूर अनेका पारेश्रम ओर धारो ! हमरे पाठकवगे उनके घोडेका नाम कदाचित्‌ भूरे हेग उसका नाम मनोनव, अथात्‌ मन- कैसा दुतगति था, एसे घोड़ेपर बैठकर कुसुमपुरसे विध्यारण्यको अनमं जाने कितना समय ओर परिश्रम हज होगा ! वैसेही क्चधाशांतिका उपाय क्या निद्रादेषीकी शरण के अतिरिक्त उन्दँं दूसरा ओर नदी जान पडा ! पर अपने कविकी रीतिही कुछ विचित्र उसे तो कविननसं- प्रदायानुस।र अपने काव्यम संभोग ओर विपरङभ इन दोनो भृगार्योको किसी पकार छाना अभी था, यही कारणंहै कि, उनकी संपादनीचताम मग्र हो हमरे कविने कथासूत्रकी उपेक्षा कीदै एेसा नानपडतारै संभोगरौगार्की पराकाष्ठा उपर दोही चुकी \ अब रही बात नायक नायिकाके , वियोगकी सो उस संघटित करनेकेथियि सुवेधुने उक्त विरक्षण आख्यायिका नोड दी है अत्युक्ति ओर असंभवताके उदाहरणभा इस ग्रंथमे कटी करी पये नाते हँ

नायक नायिकाकी मथम चार आंखे होतेही वे दोनो प्रमानेदकी उमंगमें मम्रहो संजञाशूल्य हो गये अनंतर उनकी मूच्छ टूटनेप्र वासवदत्ताकी सखी करावी केदपैकेतुमति निवेदन करती दैः-

““महारान मारी सखीको जो मदनन्यथा सहन करनी पडी उसका भँ संक्षपमे वणेन करतीं हं! यदि समुद्रकी दावात बनायी नाय, स्वयं चतुरानन रेखक वनै ओर शषनी वक्ताका कार्यं ग्रहण केर तो कदाचित्‌ सहखोयु- गरि वह विरहव्यथाकी कथा शेष होगी! एसी अ्युक्ते आनंद्‌ तो उपनाह नदी सकती बरन्‌ उसकी अनिर्वधतासे नी रकता उठताहै। उसी थकारसे अगरी दो षटनाएं असभव होनेके कारण वे सविधानकको दषितकरनेवारी इरे वासवदत्ताने स्वयंवरवाटी रात्रिकों स्वम देखा, परंतु उसने पुरा-

१८० संस्कृतकेषिर्षचकः

णप्रसिद्ध उषाकीनांई फैवर एक रानपुतरही स्वप्मे नही देखा कितु स्वे उसका नाम धाम भी जान छिया ओर अंतमे आत्मनिमित्त निन दो सेनन्योका युद्ध वासवदत्ताने कथित किया है उसमे वह कहतीहै कि, पर- स्परद्ारा उभय भेन्योका सवैनारा होगया; निदान रेसे ओरभी कई दोष इस छोरीसी कथाके संविधानकमे पाये नोति तौभी सुबेधुकी ओरसे यहांपर यह रछिखनेकोश्ये हम बाध्य होते हँ भि, इन दोषको देखकर यह्‌ सिद्धांत कदापि नरी किया ना सकता किं, सुवेधुर्म कट्पनादाक्तिका अभाव था)हां यह अवदय कहा ना सकोह कि, कथाको सर्वागसुदर बांधनेकी चेष्ठा उसने नहीं की,इससे उसकी उपेक्षा स्पष्ट बोध होती है-ओर एतदथ उसपर नो दोष आरोपित हो सो भछे दीदो-पर कटपनाशक्तिकी स्थितिही उसके मस्तिष्कमे थी यह कहनेकेलिये अन्यपरमाणोकी आक्तयकतांहै 'वासवदत्ता' उपन्यास कादंबरी" ओर "दरकुमारचारेते, की अक्षा बहुतरी छोय है, ओर डोक्टर हर सारिबके कथनानुसार उसमेसे वर्णना- दिकोकी सनावट यदि निकार दी नाय तो अभी उसका आकार नितना हे उसका दशांशमात्र शेष रह नायगा अथोत्‌ परि जो चार पांच पृष्ठे कथासूत्र छखा गया है वही रहनायगा संस्कृतके साहित्य्थोमे महाका- व्योका रक्षण यह पाया जाता है कि, उनमे भात, सूर्यास्त, पर्व॑त समुद्र ओर नगरादिकोका वणन किया नाना चाहिये तदनुसार सुवधुने उन्हे वर्तमान कथामे खनेकेदेतु चेष्ठा कीं है। पर बात यदह कि,वे सव अम- धान होनेपरभी हमारे वत्तैमान उपन्यासरुखकने उन्दे इस यरथमे स्वेथा मधा- नताका पद्‌ पदान करिया है इसउपन्यासको मननपूर्षैक विचारे तो यह वान रक्षित होती है कि, जैसे अपर उपन्यासटेखकोका रक्षय विदेषतः कथाकी ओर रहता है वैसा इसका नही पाया जाता, कितु यह भाते बोध होतीरै कि, मानो हमारे कवि कथाकी श्ं्ञटको किसी-

<५नगराणवश्चिलुचंदसूयीरिवणेनेः भलकृतम्‌)) असकषिप्त रसमावनिरतरम

न्मम" |

सखभ॑धु १८१

प्रकार निपया वर्णन सिखनेकी उत्कठा भरदशिंत कर रह रै मुख्य कथक निन भागोका वीचवीचमे उष्धिखित होना आवदयक था उन्दँ आपने इतने करीर शेष कर दिया है कि,उनके विषयमे चार पांच प॑क्तिसे अधिक कही कु रिखादी नदी ! पर जहां वर्णनका प्रारभ रोतांहै वहां हमारे कवि उसके विस्तारका अनुमान तकं नरी होने देते इसके उदाद्रणस्वरूपमे यह बात खिखी नाती है कि, अपने मित्रकी अस्वस्थताके समाचार सुन मकरंद कंद्‌- पैकेतुसे मिख्नेको गया, ओर कहनेरगा कि, मित्र! तुम्हारी रेस विषम- अवस्थाके संवादको सुन सजनरोग नितांत दुःखी हए है; ओर दुरात्मानन परम हृष्ट हए दै यहांपर खरोका संबेधमात्र आया! वस उसका सहारा मिरुतेदी हाथके विषयक खोड अ्वचीन संस्कृतकवियोके इस अभीष्टवि- षयका विस्तार किये विना हमारे कविसे रहा गया ! यथके आदिमे तीन चार आय्यओमे अपने भविष्यत्‌ दूषकोपर जक्षेपकर सतुष्ट नरी हए सो अगि उनका अणुमा्रभी संवेध होनेपर भी उनके आक्षिपमें आपने एक दो पृष्ठ रेगदिये हे ! ओर अतमे कथाको चुटकी बनात रेष कर दिया है इतनेमे मकरद आया, ओर सवबलोग मिलकर चितामाणि रानाके नगरको छोट गय।''यहांपर पिरे तो मकरंदका वहार अचानक आनानादी घडी विषै घटनाहै।कदपंकेतु अरण्यमे भ्रमण कर रहा था पर नाने उसका ठीक शक पता एकाएक उसेकैसे रग गया!भखा यह बात रहने दीनिये,पर चिरवियोगके अनतर्‌ भेर होनेपर कया उन प्रस्परकी कुछभी बातचीत हो- नी चाहिये थी!कदपंकेतु ओर वासवदत्ताने अभी निन अद्धुतघस्नाओको देखा था उन्द्‌ कदपेकेतु वा वासवदत्ताके वापके यहां नो वटना हुई उसका मकर दने कया परस्परको कोई समाचार कहना चाये थार इतने विस्तारका चरखा चवि कोन! दोने। सेन्योके युद्धका वणेन शष हुआ साथी कवि- काभी कायै संपूर्णं हो गया परेतु कथाको किंसी भकार दूष करनाही चादिये अतः अतम दो चार पक्ति उसे ओरभी छ्खिनी पडी निदानं सु्धुने उक्त भरकारपे कथाके मधान अंगोकी उपेक्षाकर अभधान अंगोकी ही

१८२ संस्छ्रतकषिषचकः

मोटता सर्वथा बदायी दै, रेसेही स्थानोपर उसका गथ सदोष उपहासका कारण हज है। प्रथमतो उसके पाचही इने गिने ह, पर तिस- प्रभी आपने उन्हें यथच्छ आप नहीं करने दिया। उम्हं यही काममा- अकेखिये उपस्थितकर अपनी कथाका वह स्वयं आपी मुख्यपात्र बनबेटारै। सारं जसे मंदारी अपने हाथकी सफाईंको सहायता देनेवाे योरेमेसे नाना मकारकी वस्तु निकारता नाता है, ओर सेके समस्त दकष करोगोका ध्यान भरधानतया उन पदार्थोपर नही रहता कितु ;उसीकी ओर रह तोरे,वेसेही हमरे कविने वत्तेमान संविधानकका उपक्षेप केवर पाटकोको अपनी शब्द(थचमत्कृति मदर्शिंत करनेवारी शैखी ज्ञात करानेकेअभिमायसेही किया है; ओर इस ग्रथके नायकादिपाोकी मुख्यताभी वेसीही नाममात्रकी है अपनीवक्रोक्तिपटता भद्िंतकर पाठकोसे परशंसाप्राप्करनेकी इसक- विको अनिवार्यं इच्छा होनेके कारण इसने अपने पा्नोंकी नो दुर्दशा की है सो रेखनशक्तिसे परे है।आपने अपने यंथके नायकनायिकाकोभी तादश बो- स्नेचारनेकी स्वतंत्रता नही दी है। एक स्थानपर तो उन्ह कटपुतलिर्योकी- नाई रातभर चुपचाप वैठरूरक्खा है;मकरंदको जो कटना चहिये था उसे छोडकर उससे तद्धिन्नेविषयपर सविस्तर वक्तता दिष्टाय है; वासवदत्ता समरभूमिसे यद्यपि दर ची गयीथी,ओर वेसा छोमहेषंण ट्य उसके पू उसने कभी देखाभी था.ओर खीननोचित भीरुतके कारण एेसी भीषणघ- टनाओंका स्मरणमात्र उसकोध्यि असह्य दुःखकी सामग्री थी, तौभी उससे हमारे काविने उन बनचररोगेकि उभयांतपारेणामी भयावने य॒द्धका यथे- च्छ वर्णन कराया है !

यहां छो वासवदत्ताकी स्चनाके विषयमे आटाचना की गयी अत्र उसके अंतस्थ विषयकी मीमांसा की नाती है सेदका विषय है कि, इस विषयमे भी यथार्थरसिकको यथेच्छ आनेददेनेवाटी वातं बहुत कम पायी नाती वीचबीचरमे कहीकरीं पर मनको आाश्ययेचकितकर- नेवाछी बतं पायी नाती हँ सही; पर कोई चहि किसी सविरतर उक्ष

स्वधु १८३

स्थलको उद्रत तो बह घात मायः नहीं हो सकती इसके सिवाय यह बात स्पषटही हे कि, इस उपम्यासका संबिधनाक नितांत डोय हेनेके- कारण किसी रसको पुष्टकरनेका अवकाश्ही उसमे नदी है स्थर इतना संकुषितहै तोभी हमारे कविने उसीमें सव रसेव) वासनी उताणे- की चेष्ठा की ै। श्ंगारकी उभय घना पीछे उा्टिसित हो ही सकी दैःतद्‌- कतिश नायकके विरापमे करुणा,उसके म्रतापवर्णनमे वीर, दोनो सेन्योकि युद्धवर्णनमे रौद, ओर भयानक, ओर पूरी कथामें अद्भुत, ओर बीचमे एक स्थानपर (कंद्केतुके वासबदत्ताको ठे मनोजवारूट हे विध्याटवीकी- ओर नाती वार ) मघंटाके वर्णनमे बीभत्स रस # छाया गया है सारांश देसी अधाधुधीमे एक रसभी यथोचित रीतिसे मतिपादित नदी हो सका ।अब्‌ रही बात हमारे कविके मिय विषय वर्णनादिविस्तारकी सो उसके विषयमे यह स॒क्तकंटसे कहा ना सकता कि,नो पाठकगण केवर नादटन्ध- हेति है अर्थात्‌ अ्थ॑चमत्कृतिकी अपेक्षा शब्दचमत्कृतिही जिन्हे अधिकतर प्यारी होती है उन दुविदग्ध पाठकोको उक्त वर्णेन मोहित करेगे इसमे तनिकभी सदेह नरी है यह भरी हो पर सजे रसिकका मनरंनितकर- नेकी सामयी उनमे बहुतथोड़ी पायी जाती है क्योफि मथमतो उनम नई उक्ति्यो बहुत कमह ओर इनके सिवाय रैरटीरपर ह्चिष्टता ओर अश्ीरुता परभृतिदोषभी दृष्टिगत्‌ रोते है इनदोषोके उदाहरण नीचे यथाक्रम उद्त- कयि नते है

ऋजामत्व रकन विने यह स्यानतो बहत मच्छ सोचा! नननि सरवे यह्‌ बात केसे

सधी किभअपने भधर्ेविवाहिवरितिको ेषकर कुगारोत्ष मनानिकैलिये विध्यारण्यको जाती बार शै डे यिकाको [अ (4 [क पी [1 मागमे उन्द(नायकनायिकाको)दमञ्ञानका देश्कन बद्र रसोरपक हेग! रसस्मी चदिय। क्षकाका

=

स्यल यह्‌ दे कि, पानम सूनारगानेको बिलेब मलेदी लगे पर कुसमपुरते विध्याटवीप;चनको मनोजबन्हो कदापि विलबन होत्ता.रेष्ठो भवस्पमें इम्गानके मित्र दड्योको देखनेकेलिये कद्प॑ेतुको भवकाड्च केसे मिलाजान परति हमारे कविको इस मधन रसकी ऊनता खद- कतो धो, अतः उसे किसी प्रकार म्रयमें छानारी चाहिये था। तौ भिर रेसी अवस्थां उविता- नुवित धटना की ओर कोन ध्यान वृकता ह! यपर हमारेरसज्ञपाठकोको मारत्तमाधव के सीमत्सरसवणेनका स्मरण टर्‌ विना रहेगा ] ष्का प्रसग कितनी उत्तमताके साय

छायागयाह मौर उच मगले सविधानककी श्रोमा बड़ानेकेशियि कितना उपयोभी इुमाद।

१८४ संस्कृर्तक्रविपचक

सुमधु इस प्रका पहिला भचड दोष यह है कि,उसके संविधानक ओर अपर अंगोमेसे देसे बहुतदी थोडे दँ नो स्वय सुबेधुकृत कहे नासके।पुराका- रीन संस्कृत कवियोके संपरदायको छोड़ तिभरभी इधर उधर हय्नेकेशियि उसने चेष्टा नीक देसी अवस्थामें यह कब संभव है कि, जो छोग भतपुवय परम माननाय छोगोकी कविताको देख चुके हँ उनकी इस अनुकृति (नकट) दारा मनस्तुष्टि हो ! यहीपर यह दोष शेष नहीं होता क्योकि सुबेधु यदि प्राचीनरोगोकौ दोरीमाजरको अनुकृत करता वैभी यह्‌ स्वतेत्र ग्रथ पाठकोद्वारा आदराहं होता पर इस ग्रथ वैसा कछभी नरी पाया- नाता भूतपृव्वै कवियोकी उक्तियां इस यथमे स्वीकृत हई टौरटौरपर टा गत होती है अब यह बात सच है कि, वे उक्तियां मूरकी अपेक्षा इसग्र थमे किचित्‌ सविस्तररूपसे देख पडती है; पर वे इतनी अधिक ओर इतने स्पष्टरूपसे अंगीकृत की गयी है कि मानो हमारे कविने उनके अनुष्ानको दूषितही नही माना है एसे स्थानोका प्रंथकमानुसार नीचे मिर्च किया नाता है

ङक्टर लटसादिबद्वारा भकाद्धित संस्करण-पृष्ठ ४१ ( कंद्पैकेतुके पराक्रमका वणेन )

-यस्य समरभुवि भुजदंडन कोदंडं कोदंडन श-

राः शरेररेशिरस्तनापिभूमंडरं तेन चानयत-

पव्वो नायको नायकेन कीततिः कीत्य सप्तसा-

गराः सागरैः कृतय॒गादिराजचरितस्मरणमनेन

स्थेय्यैमसुना प्रतिक्षणमाश्चय्यंमासादितम्‌। *

# सम्रीमांगणमागतेन भवता चपि समारोपिते देवाकर्णय थेन येन॒ सहसा यंधत्संमासादितम्‌

कोदडेन शराः शरिररिशिरस्तेनापि मूमदलं तेन स्वै मवता कीर्तिरतुला कीत्य लोकत्रयम्‌

खनु ` 8

पृष्ठ ६४ ( नायिकावर्णन ) -भास्वताऽखकरेण चद्रेण वदनमंडरन रोरितेना- ध्रपह्टवेन साम्येन गुरुणा नितबविवेन विकचेन नेखकमलेन शनेन्धरेण पादेन तमसा केशपाशन ग्रहमयीमिव संसारमित्तिचि्रेखामिव अलो क्यसोदय्यैसंकेतभूमिमिव -..-.कन्यकाम्टादश्‌- वषेदेशीयामपर्यत्‌ स्वप्रे * पृष्ठ ८० ( मकरंद खछोपर आक्षेप करनेके अनेतर नडपदारथकिीं मि- अताका वणेन करता ) तथाहि माधुथ्यंशेत्यशुचित्वसंतापशांतिभिः पयं पय इवेति मितायुपगतस्य दग्धस्य तत्संगसा- दरधितस्य क्राथेन ममेव परोयुक्तः क्षय इति विचि- त्येव वारिणापि क्षीयते पृष्ठ ९६६ ( वसतवणेने ) -वृत॒विनिगेतविचकिंलकलिकातले मंजु गजन्मधु- करो मकरकेतोशिथुनविजयप्रयाणरशखध्वनिमिव चकार -

# गुरणा स्तनभारेण मुखचद्रेण भास्वता

दानैश्रा्भ्यां पादाभ्या रेजे ग्रहमयोव सा ] भन्तहरि-श्गारक्षतक 1

§ क्षीरेणास्मगतोद्काय हि गुणा दृत्ता परा ते ऽखिटा

्षरे,तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानौ इतः

मतु पावकमुन्मनस्वद्मवहूष्टरा वु मित्रापद्‌

युक्त तेन गलेन उ्याम्यति सता भेत्र पुनस्त्वीरश!

नृहरि-नीतिशतक ~ मालतीम्‌कृ्ठ माति गुजन्मत्तमधुत्रत प्रपाणे प्चबाणस्य शखमापूरयन्निव

~ ----~--~--

१८६ स॑स्कृतकविपचक

पृष्ठ १५५८ स्वयंबरवारी रावरिको स्वममे कदरपकेतुको देख उसके विभ योगकं कारण वासवदत्ताकी जो अवस्था हुईं उसका वर्णन ) रुन्यकरणमरामे दये छिखितामिवोत्कीणेमिव प- त्युततमिवं कौकितमिव निगङ्तिमिव व्ररेपघ- टितमिव.... ` -आत्मानमधिष्ठितामिव कदपंकेतं मन्यमाना-# पृष्ठं २२१ ( वासवदत्ताके भवनका वर्णन )

चिदतिगभीरमुरजरवाहूतसानदनतितनीरकंठं पृष्ठ २९६ ( युद्धवणेन )

कृणोभ्यां _ उतपरपरिवादाभ्यां खलोदयसाधु विपत्तिसाक्िभ्यामक्षिभ्यां मूधा चास्थानेऽपि न- मता विशुक्तोऽहमिति हषादिव ननत्ते चिरं कबंधः!

= अ,

उक्त उदाहरण स्पष्टरूपसे साक्षी दे रहे हँ कि,हमारे कवि परोक्तयपहरणार्थ कोई संकोच नहीं मानते थ। यह कास्य जश्वाष्य भकही हो पर एत्र हमरे कविने सबरोर्गोपर एक बडा भारी उपकार किया है वह # लीनेव प्रतिनिबेतेव लिखितेवोत्कौर्णख्पेव प्र्युप्रव वजल्पधरटिते वातार्निखतिव सा नश्चताक्ि कीलितेव विरेखेश्चतोमुवः पचभिः चितासततिततुजालानिजिडस्यूतेव नम्रा प्रिया मालतीमाधव शू सानंद नदिहेस्ताइतमुरजरवाद्तकौमारर्हि- ( ब्रासान्नासाय्ररध विशति फणिपतौ मागस्कोचमानि | ) मालतीमाधव-नांदी {ल्डार्दमे एक मटुष्यका किर धसे अलग होनेपर दसा! वह क्यो हंसा! दत पर एक * कषिने उक्षा कीरै- कैघरा समपहाय धरां प्राप्य सयात जहास कस्यचित्‌ मा किंलानमयत; स्वपन्तये दुभरात्किमुदराद्भियो गतः;

खुवंधु १८७ भवभातके नीवितकारका पारेचयक्कहै अस्तु; यहां हम भपने पाठकको- यह बात सूचित कर देना आवदयक समञ्ञते हँ कि, पिले पृष्ठकी रिप्पणीमें र्खि हए छोकोमेसे तीनों शेकोका रचयिता भसिद्ध नदीं है,-निदान हमतो उसे अभीरों नहीनानते एतावता यहभी संभवे कि, सुबेधुकीरी उक्ति के मूलाथको रे किसी अनंतरके काविने उन्हे भणीत किया हो यदि यहं घात आगे पीछे कभी निथित हेनाय तो आनी हम अपने कविका मि- ध्या अभियुक्त करनेके देषके क्षमापार्था हो रहते है

दूसरा दोष नण्टिता वा दुरवोधता हे।इस दोषसे समूचा ग्रथ दूषित नरी कियाजा सकता क्योकि बहुतर स्थारनोपर बह बहुतकु सुबोधभी है पर नहां सुवधु अपने भ्यक्षरश्चेषमयमवंधविन्यासवेदग्धनिधित्वः विशेषरूपसे दिखुूनिको उद्यत होता है, वहां पर॒ भिन्न > अथीको स्पष्ट करतेकरते तत्का्यपटु येकाकारोके भी भाण सूखने ठगतरहँ ! नेसे

पृष्ठ १९२ ( स्वयंवराथैरायेहए अभागे रानपुत्रोका उपह।स- रूपणेन )

तच केचित्‌ करकरा इव॒ विजितनगरमंडना

अपरे पांडवा इव दिग्यचक्षुःकृष्णागुरुपरिमिकिता

अन्ये शरादिवसा इव सुद्र्रबृदयलाशा इतर व्याह

तुमुयता इव स्ववरापिनः केषिद्रयाधा इव शकु-

@ इसका आाजपर्यत गंकठोक पता नदीं लगा था] प्र उक्त दो सम्रहोको वास्रवदचामें देख उसके निश्चयम कोद सदेह नरी रहता 1 अत. पीछे मवभूतिके ब्र्रधमे हमने जै लिखा है कि+उसके कालका ठोकदीक पता नहीं लगता उसके स्थानें हमरे पाठकगण इस शोधको प्रयुक्त कर [ अव इस कालक्मानुसार यदे भ्रणिर्यो सिद्ध दुई-काटिदास- मवभूति-सुवधघु-वाण 1

इसके सिवाय एकं विचित्र नात इमार देखें भौरभी है उसका यहा स्पष्टतया उधिखित हो जाना भकतयक सान "पडता ह| यह है कि.हांकसादिने भप्ी भुमिकामे हषैचारितका जो सग्रह चदधत किया है उसर्मे."कालिदास भौर सुबधुका जैसा नामोशेख हृभा हे वैसा भवमूतिका नही देख पहता यृ बात्‌ जनि करयोकर है

१८८ संस्रतकविषचकः

नभ्रावकाः केचिदाखेटका इव षूपानुसारणवृत्ताः केचिलेमिनिमतातुसारिण इव तथागतमत््वंसि- नः केचित्‌ खंजना दव सांवत्सरफलदशिनः केचि- त्‌ सुमेरूपरिसिरा इव काततस्वरमयाः केचित्‌ विक- चकुमुदाकरा इव भास्वदशेननिमीरिताः केचि दात्तराघ्रा इव्‌ विश्वटपावलोकनजनितेदरजाटप्र त्ययाः केचिदात्मनिवारणबुद्धया वशरू्वतोऽपि सुवाहाः केचित्‌ पाणिग्रहणाथिनोऽप्यसुकरंमन्य- मानाः केचिदधरीभूता अपि स्थिराः केचित्‌ पा इपुता इवाक्षहदयज्ञानहतक्षमाः केचिद्बहत्कथा- ऽनुबंधिनो गणाटयाः केचित्‌ तिय्यग्गतयः- स॒गेघवाहाः केचित्‌ कोरवसोनिका इव दोणा शासृचकाः केचित्‌ कुयुदाकरा इवासोटश्चुरमासः स्थिता राजपुत्राः तानेकेकशः समवलोक्यं विरक्तद्टदयाऽसो कुमारिका तस्पात्कणवं शादवततार

पृष्ठु ९९५ ( चदोदयके अनंतर अभिसरिका नायिकागणदवारा निन वह्भोमति

मपित कई दूतियोकी शषोक्ति ) अ्ांतरेऽभिसारिकासाथप्ररितानां प्रियतमार्‌ प्रति- दूतीनां द्रवथः सेष्याः सप्पंचा विकारभय॒राः प्रवादा बभूबुः तथाहि

खरु १८९ अवस्चीकृतमात्मानं नाकलयसि तत्वतः कात प्र- स्तर इव ऋूरोऽसि चाकर्षकञुवकद्रावकेष्वेकोऽ- -सि भरामकोऽसि परं कितव धम्मोथोन्यंप्रयुक्तः कषेप- णिक इव मुधा वाहिततरवारिस्त्वमसि सखेद्‌- मिव मनसा चितयसि इभं जनं सत्वसारचरितो भयो रिपुमंडलामतो निवतिमुपेत्य तिष्टति खु वीरः प्रतिपक्षस्य यः संप्रहारतः कुजरान्‌ नयति धृतोरुकरवाटसंचयोऽपि परमकांड एव संपतन्‌ महापदं विप्रेण भते राजसेन रहित राजसे रहितो धुवं विशारदा विशारदाभरविशदा विश- दात्मनीनमहिमा महिमानरक्षणक्षमा क्षमातिरक- धीरता धीरता मनसि भूतता भतता वचसे साह- सेन साहसेन कमलाकमलापराजिता पराजिता सा त्वदपंणा दपणाकारविमलाशया शयान्नवि- निजितकिंसल्या सख्यांगृलिविश्रमेण विभ्रमेण प्रतिगवाक्षशलूकाविवरं विलोकर्यती विलोकयंती त्वया विना साविनासांयममुभवती इःखानि जी वनायक जीवनाय इह नाश्रयति सुभगाम्‌।अ- न्यास्तावदासतां दासतां पुरतोऽहमेव भजामि मेव्यतोऽमेन्यतोऽस्तु अजसारतः सारतः किमपि कद्पेकं देकं तनोषि .विशेषतोऽशेषतःस्थित-

१९० संस्कृतकःविष॑चकः

मेव मरणं शठ्थियां शोषन यशोधनपेमहा्याम- हायोशयोत्कराक्षैः कटाक्षेराविभूतदास्यास्तदा- स्याः परिजनाः कमखाकृतिनारीणां कमलकृति- नारीणां भवता सुखं मछिनितं विश्वस्य विड्व- स्य व्यवस्था समासाय समासाशमनककालसंगी- तसंगी तनुषे तयुषेकमनंगमनेगपुष्पेषु पुष्पेषु रुजा तरसा जातरसा मन्दाक्षमन्दा क्षणं भ्रमन्ती अुद्यति कामधुराधरेण का मधुराधरेण सुक्तारजोराशिवि- शेषकेण विशेषकेण सुखेदना तव इदि या मर दिमाकरेण करेण स्वेद्विहुपयो धरेण पयोधरेण वक्षःफलकांचनेन जितानाविलकांचनेन काम- दारुणमदारुणनेजा स्मरमयं रमयन्तं त्वामद्यं दमयन्ती परमकमितारं परमकमितारं वांछति हारिणा हारिणा स्तनकुंभेन हारिणाक्षिरुचिहा- रिणा रुचिहारिणा चक्चुषा हारिणा निदान एेतेदी ओरभी एकं स्थानपर सुबेधुने शषौ खुब रेपे करदी हे,पर सेदका विषय हे कि, स्थानसकोचवश वह पूरा सप्रह यापर उद्धत नी किया ना सकता आधुनिक छोगोमि श@ेषोके रसिक मथम तो वसे कोई हई नदी है ओर जो इनेगिने होगे उनको हम समञ्षते हँ उक्त दोही संग्रह आवदयकसे अधिक हग भरकृत थका तीसरा दोष अश्रुता है वास्तवे यह महान्‌ मंचड दोषै पर नजाने क्यो यह विषय हमारे कविको बडा मिय जान पड़ता था। वसंते वर्ण॑नमे ( पृष्ट १३२ ) आप छिसते दहै

ख्वधु १९१

प्रतिदिशम्छीलप्रायगीयमानमीतश्रवणेस्सुकरिवं

गजनप्रारग्धचयैरीगीताकणेनय॒द्यमानानेकपयथि-

कशतः।

वसंततुमे चाये ओर अश्चीरुताप्रित ठेसा करगान श्रवणगत होतार कि सेकडो पथिकगण अपनी चाना भूल टुन्धहोकर वही ठहसत है ) वैसेरी ( पृष्ठ १६९ ) संध्याकारूके वर्णनमे

कामुकजनायुबध्यमानदासीजनविविधाश्चीरवच- नश्चुतिविरसोकृतरसंध्यावंदनोपविष्ेषु शिष्टेषु दासियोके पीर दौडतेहृए काम निनोकी गेश्वीर बाते सुनकर संध्यावद्‌ नाथेनेटेहुए शिष्टननोकी संध्या विरस होती है)उक्त दोनोसमरहेको पट अनुमान होता है कि,सबेधुके समयमे छोगोके आचार विचार पूरवेकी अपेक्षा बहुत भ्रष्ट हो गये हेगे।निस कविने प्रत्येक वसंतका सुतरा पत्यक सेष्याकाठका इस चावके साथ वर्णनकि्योहि स्वय उसीके यथम वेसीअश्वखता र्यो नरहनी चाहिये {- पृष्ठ २० ( चितामाणिराजाकी राञ्यरीतिका वणन ) -शूलभंगो युवतिप्रसवे- प्र ५२. ( मभातकारीनखीचारेतका वणन ) -आसत्नमरणास्विव जीवितेशपुराभिुखीपु. प्रियेरालिम्यमानाञ्चं कामिनीषु ... ... -.*

पृष्ट ७७ ( खलोपर आक्षेप ). -रतकीरइव जघन्यकम्मेटयः हेपयतिसाधून-

कः सनको उद्वि्रकरणेवाना पष शठेषस्वयं सुवधुका है वा नी दस्मे वड़ा संदेद पडता द| उक्त शेष भगलेश्छोकसे लया गयासता जानपड़ता देः राममन्मथरेरेण ताडिता दुःसहेन दये निशाचरी गघवद्रुधिरचदनोक्सिता "जीवितेशवसतिं" जगाम सा रधुवंश ११

१९२ संस्कत विपचक प्र ११५ ( ङुषुमपुरकीवाखनिताजका वणेन } -जरोकसेव रक्ताकृषशिनिपुणेन -.“ वेश्याजनेनाधि- छितं कुञमपरं नाम नगरम्‌ पृष्ठ १२८ ( वासवदत्ताके पिताकी राज्यरीति

-वृषहानिनिधुवनखीलासु पेरेष-

पृष्ठ ९८७ ( रजनीमुखवणन )

-तामिः ( तारकाभिः) भिभितमिव षियदशोमत- पृष्ठ २६९ ( नरधिवणैन )

फेने

-सापस्मारमिव फेनः ...... जलनिधिमपर्यत्‌

कहना नही होगा कि,उक्त तीनो दोप नितांत रसापकरषक है, ओौर यही- कारण जान पडतेहँ कि, जिनके योगस यगभ रसिकपिय नही हभ ओर इन्दीके योगसे सुबेधुका नामभी ताद मिद्ध नही हो पाया

अब इस विषयकी आरोचना की नातीै किं सुबधुकावियोकी किस भ्र णीमे परिगणित हो सकता है।व्त॑मान कथाकों विचारनेसे यह बात स्पष्टतया बोध होती है कि, वहः पूर्वोक्त पीन कवियोकी कक्षामे कदापि स्थान नही पा सकता।उपर करे हए तीनद षौदारा सुधुके मनकी भिन्नरतीन छया भगर- होती है पदिरादारा मनकी अगभीरता, दूसरीदारा अरसिकता ओर तीसरोद्वारा ग्रामीणता।इनमंसे दसर ओर तीसरीकै साथ सत्कवित्वका प्राकृ- तिकविगोधहोनेके कारण,कीतिंमदिरके परमोचाशिखरसे अधःपतित करनके स्यि उनमेसे एकी अरम्‌ है ¦ ओर अकेला परिखा दोष यद्यपि दूसरे ओर तीस्रेकैसा समथ नहहै तथापि उनकी सान्नेकटताके कारण वह पुनः समथ- हो जाता है।यहांपर यह बात अव्य मानी ना सकती है कि, सुबेधुके समयमे यथाथकवित्वका सहास हाना प्रारभ होनानेके कारण रक्त विषयमे वह काट नितना दूषणीय कहा ना सकता हे उतना दोप स्वयं सुमुका नरी दिया नास- कता; कयाकि किंसीको आत्मकारीन टोगोकी अपक्षा समज्ञ ओर अभिरु- चिमे भ्रष्ठ नदेख उसे नाम रखना अनुचित बोधहोतांहै। पर यह बात सा- मान्यजनोके विषयमे ही कही जा सकतीहै नो रोग निसर्गतः उदारवेता होते वे पकपकजन्यायानुसार निन समयके दूषणोसे दृरही रहते हमरे कविको यह्‌ स्वभावोत्रति यदि रात होती तो अपने भूतपूव भवभूति

१९४ संस्कृतकविषपचक

जवक्यमेव सन्मानार “दशकुमारचरित ओर विशेषतः “कादंबरी कि रसानुभव छेतीवार पाठकोको उचित है कि तदर्थं वे सुवधुके उपकाोक्रो विस्मृत कर ओर दूसरी बात यह है कि वासवदत्ता को पद यदि रसिकपाठकेकी सवेथा तृषि नही होती, तौ एतदथ ओर पटनके व्यथ परि- श्रमा्थं वे रोग सुबेधुको दोषभाक्‌ कदापि नरी कह सकते क्योकि वत्त- मान भर्वेधके पठनद्वारा पाठकोको किस प्रकारकी तुष्टि पप्र होमी सो बात हमारे कविने य्ंथके आदिमे रपष्टरूपसे नता दीहै बह बात यहीहै कि परत्येकअक्षरमे छ@षचमलत्कृति मतिपादितकर' चिविचित्रगयरचनादारा मनको चकित करना हमारे किकी इस आभिराषाको रसिकरोग अत्यत विचित्र किबहुना छ्डकपनकी भेदी कह छे, पर उन्दैँ यह बात रषष्टरूपसे अंगीङृत करना होगी कि उसने अपनी अभिराषाकी पूर्ति पूणं सफरता भप्त की यरी सब कारण किं जिनके योगसे यह मथ उत्तम्‌ का्वयोकी कृक्षामें गौरवका पद नही पा सकता.पर तथापि जब कुक काम हो तव निनके मनोरंननाथे यदि उसका अवरोकन किया जाय तों वह्‌ बहुत उत्त- मतया हो सकता है। 'वासवदत्ता' के तार समाहत एवे रसिकननमिय होनेका तीसरा कारण यहभी कहा नाताहै किं अगले दो ग्र॑थो ओर विदेषतः उनमेसे एकके कारण तो वह सवैथा टु ही हो गयी तो इनग्रथोके कारण ( कि जो वासवदत्ताकी शैछपर छिपिवद्ध क्रये गये हँ ) निगोडे दुभौगकश अथवा यथाथेमे सोभाम्यवरा क्योकि वैसे समुज्वट मवोधोका जदिहतु होना कुछ न्यून गौरवकी बात नदीं है) उसकी नो दुरदञा इहै उसीको प्रधानता पदानकर उसकी योग्यता उन मानना स्रैथेव अनुचित दै इसके सिवाय सुबेधुके समय ओर उसके स्वभावके साथ कीषित इई श्रमविमुखताका यदि विचार किया नाय तो इसमे अणुमाजभी संदेह नदी दै कि उसकी ृर्तमान दूषणता बहुतही न्यून रक्षित होगी

निदान उक्त भकारसे वर्तमान कविके पक्षम कई बति सूचित की गर्यी प॒र इस कथनसे यह नदी समञ्चलेना चाहिये कि सुबधुकी बड़ी भारी योग्यता इतनी ही है कि उसके दोष क्षमाके योग्य दै अभी उसके क्रई ुर्णोक

सुबन्धु १९५

उदेव होनेकोही. है, ओर उनके पीरेसे उद्धिखित करनेकाः कारण इतनाहीः हे कि पूर्वोक्त मच दोष जेसे सहनदी दृष्टिपथे सकते वैसे वे नरी सकते! सुवेधुका ससे परिखा गुण तो यह है कि भाषा उसके आधीन थी, इसे भमाणित करनेकेख्ियि भायः यथभरमे नो शेषरचना पायी नातीहै सो दी अरम्‌ रै 1 इसके अतिरिक्त शब्दोकी रचनाभी मोद एवं मधुर है ।! ओर कीकहीके वणनभी चमत्कारननक

ये बति तो सब हई पर सुबेधुके यथाथ कवित्वका स्वरूप ॒वत्त॑मान मथके उपांगो अथात्‌ प्रस्तावना ओर बीच बीचमे भयुक्त किये इए वर्णन- रूप पद्योमेही-दग्गोचर होता है हमे चट विश्वास है कि रसिक एवं सह- दय पाटकोको इन पद्योसे नो प्रथम आनेदानुभव होता ह। ओर अगेकेखियि मथमतः नो आशा होती है सो सब अगे ज्यो ल्यों ग्रंथ पठते नाव व्यर्थ एवं विफर होते जाती है इन उपांमोके इतने उत्कृष्ट भतिपादित होनेका कारण स्पष्ट है वह ग्रही है कि कत्पना ओर रचनाके संबंधसे यथ- भरमे नो कृतिमता हठात्‌ छायी गयी है, वह उभय स्थानम इन उपागेमिं तिरूमात्रभी नही हे उनकी रचना नितांत सरै ओर उनमे उन्दी मनो- वृत्तियोका वर्णन किया मया है नो कविको पत्यक्ष एव अनुभूत हृई ३। इस कथनके उदाह्रण स्वरूपम उस आ्याका नामोद्धेव किया जा सकतांहै कि जिसमे कविन महान्‌ पराकमी एवं विदार्नोका खान करनेवारे विक्रमादित्यके समयमे अपने जन्म महण करने तथा राजाके साथ चरे गये हुए उसके विरा- रा्षमवके देतु सोक वर्णित कियहि।यहांपर हम यह्‌ पश्र करते फि,स्या कोई सहद्य पाठक इस बातको साहस वैक कह सकताहै क्या उक्त आर्य्या- तगेत करुणारपकी समानताअथके नायकका शोक,यदि वह दश॒ गुणितभी करदिया नाय तो,कर सकेगा! वेसेही यस्तावनाकी प्रथम

१९६ सस्पृतकवि्पचक

ठ्खि गये वे सब उन दो श्रोकोदाा कि, नो ि्यारण्यके सिंहके वणंनमे टित गये, तिरस्कृत हरसे नान पठते ह। सारांश हमारे फविकी बाणी, यदि अपने मकृतिसुरुभ सौदर््यकी, योग्यताको भटीमांति नान केव अरसिक मनस्तु्िकेदेतु एक मुहको छोड़ अपने समस्त मातको अथ- योनक सनावरसे छिपा छती, तौ जन वह कभीकी अपनी समारत सलि- योकी समकक्षिणी हेनिका सौभाग्य माप कर चुकती; ओर संमति जो वह भत्येक गुणदोषविवेचक समालोचककी तीव आरोचनाका क्षय बन पददारि- हो अपनी अपबुद्धताका चिरकारीन भायश्चित्त भोग रही है वही थोडा चतुरिके योगसे अपनी जेठी बहिनकी नाई नगरिरोधास्य बन वरती

यह सवते हुआ पर विवेकी पाठकगण अभी यहां यह्‌ मश्च कर सकते कि, ऊपर जा छ्खा गया है सो सब सच है परंतु बाण काविने सुब॑धुकी नो इतनी मरदांसा की है उसकी क्या गति चितनीयरहै ओर यह शंकाभी कोई एसी वसी सामान्य शका नहीहै, भ्योकि नो संस्कृतके गयकाव्यरेखकोमि मथम माना नाता है,ओर निसके प्रमोत्तम गर॑थकी भशंसा वरषर फैक गयी, ओर इस फैठावके कारण मरार्दीमे समस्त ग्यकान्य उसीके नामसे पुका- रे नति है, उस महान्‌ गरंथपणेताका वचन यदि भमाणित एवं विश्वासपा् माना नाय तो फिर माना नाय किंसका! यह सब सच रैपर उक्त स्तु- तिको एकदेशीय ही मानना चाहिये-अर्थात्‌ उक्त स्त॒तिद्वारा बाणभट्रका यही अभिपरेताथे यहण करना चाहिये कि, सुवेधुने शब्दनार्चमलत्कृति मदत करनेमे परा काष्टा करद है इस अभिमायको बाणमभद्रने निज 'कादेबरीमेः ओरभी स्पष्ट कर दिया है-“उत्कृष्टकविगद्यमिव विविधवर्णश्रेणीमरतिपा- द्यमानानेकामिनवाथंसंचयम्‌' # उत्कृष्ट कविके गद्यकीनांई निसकी भिन्न वणेपेक्तिसे अनेकाथ निकरुते ) यहांपर यह बात स्पष्ट है फ, उक्त उत्कृष्टकवि' शब्दमधानतया सुवंधुका बोधक है, बाण कविके उक्त शब्दोका यह अथ हमीने नही बैठायांहै। तो इसका निर्णय कादेव-

उक्त वर्णन चद्रापीडके राजभवनप्रवेशके समयका है उसका दुसरा भ्॑भी स्प- टी “जिसपर भिन्न जाविके लोग वारवार धनराश्निको लाकर ढार्ते ई"\

सुबन्धु १९७

य्ंथसेही होता है "कादैवरी' ओर "वासवदत्ता को जो छोग ध्यानप्‌- वैक पटेगे उन्हे यह बात तुरंतदी ज्ञात हो जायगी कि "कादबरी प्रणीत करती बार वाणमद्रका क्ष्य "वासवदत्ताकी' ओर किस भकारसे था 1 संविधानककी कतिपय घटनाएं टैरणैरके सूर्य, चं, ऋतु ओर पर्वेतादि- केकि वर्णन, र्चनाकी ेरीप्रभृति सबको बाणभने सुबन्धुके गंथसे अनु- कृत कियाद सो स्पष्ट बोध दाता है। पर अधिक जाश्व्यकी बात ते यह हरै किं, आनपर्य्यत॒चारोओर अनुकृतिकीही ख्याति विस्तृत हो रदी है ओर मूलकृतिको कोई पूकतातके नही; इसका कारणभी गूढ नरी ह। वह यही किं, बाणभद्रने वासवदत्ता, से केवर प्रोट एवं सुकोमर वर्णरचना, करी कटके विचित्र शेष ओर समासही अनुकृत किये है, पर जहां सुवंधुकी अत्यंत अरसिकता रक्षित होती है, वैसी पूर्वोदाहत निरंतर परासरचनाकी, किं जो अनौचित्य एवं नटिरुतादि ओपन्यासिक दोषग्रसितरै,उसने सर्वथा उपेक्षाही की ह।.कादेवरी' भरमे वसी सदोष सचना नाममाजको करी नरी पायी ना- ती सारांश, वाणभट्रने वासवदन्ताके अरोषगुणोका स्वीकार कर उसके समस्त दोष परित्यक्त कर दिये, इस भतिपादनद्वारा सुबधुकी पूर्वोद्धिखित भर॒सा- तगत उसके मनका वास्तविक अथ स्पष्टरूपसे बोध होता है तात्पस्यं इस उक्तिको अंशतः सत्य ओर अंशतः कृतज्ञता एवे उपचारदेतुकदी मानना चाहिये

अव आगे वासवदत्ता ओर कादवरीकी परस्पर तुरुना की नाती है ! इस समतादारा सुबधुकी कीतिं के बाधक सब दोष अत्यत व्यक्त होनार्यैगे पिछ- रे प्रतिपादनको पटकर हमारे काव्यम्मेषटु पाटक इसबातको तो नानही- गये होगे कि, संविधानक ओर रसपोषकतादिगुणोमे वासवदत्ता कादेवी की अणुमात्रभी समानता नही कर सकती

हां यह अवद्य माना ना सकताहै कि, एेसी रचना दोरनेकेो अभीष्ट थी प्र साथही कानके अगोपांगोके विषयमे दोनोका मतभेद स्पष्ट देख पडता- हे सुर्व॑धु कथाको गोण मान रचनाकोही काव्यसैस्व मानता उसके पीछे उसने संविधानक, रस ओर भसादादिको तिरांनरि दे अश्वीकतादि दोषों

१९८ सस्कृतकविपचक्‌ 1

को भी अपने रथम स्थान प्रदान कियाहै सुधुका एतदिषयं गाटानुरागे गरथमे टरटौरपर स्लरकता है। पस्तावनाका अंतिम श्रोक तो पीठे एक स्थानप्र उष्टिखित होदी चका है,उसमे आपने छिखही दिया किं भगवती सरस्व्का परमोत्कृष्ट वरदान जो हमें भाप हृजा है सो अक्षरमति ेषवांधनेकी चतुरा है-यह कवि महाशय मानौ इसीको वाग्देवीका निधिसर्ैस्व मानते है! उसी परकारसे संध्यासमयके वणेनमं एक स्थानपर (पृष्ट १५८४) रिख है-'“दीर्षो- च्छरासर्वनाकुङ सुश्धेषवक्तवटनापटु सत्कविक्चनमिव चक्रवाकमिथुनमती- वाखियत') चकवाचकरैका नोडा, सत्कविकी वाणीकी नाई दीषेसमास- पूरितरचना करनेमे व्यस्त हो श्षोक्तिषटनामे निपुणकरहोनेपरभी तीव्र विरह दुःखको अनुभूत कणे रगा; इन दानेसि यह्‌ बात भत्यक्ष होतीरै #- ` छवे चौडे समास ओर शेषकादी-कि जिन दोनोका महाककियोकि यथोम मायः अभावी रहताहै, ओर जिन्हे स्वतंयस्वरूपसे कुछभी योग्यता प्रा नरीह प्र परसंगविरोषपर प्रयुक्त करनेसे शोभाप्रद होतेहै-अपने कवि+सत्कान्यका जीवनसु्वसख मानते थे

अव बाण कविके मतकी आोचना की नाती है। श्चिष्टपदर्चनाकी ओर इनकी यदपि इतनी चित्तवृत्ति आकृष्ट इई देख पड़ती है पर तोभी उसके मेमं मुग्ध हो षाण कविने अपनी कथाके किसी अगको छेशमातभी न्यून

अ्चक्रवाकके विषयमे यह्‌ इलषार्थं लेना चाचि कि, यहं युग्म प्रस्परका पारिरंमण कर+चुवनलेनेमें प्रम निपुण हनेपरभी विरहदुःखले कातर हा निर्वास पैक दुःखी इनिलगा।

+मनकी कुशलतानुरूप शालीनताका सु॑धु्मे अमाव देख पडत्ताहै। भगी दरपोततदवार)

यहे वात स्पष्टरूपतते जामी जाती कि सत्कवियकी श्रेणी स्थान पानक सुबधको सुद भा- शाथी। वस्ततकालकै वर्णने ( ष्ठ १३४ ) आपने लिखा है-'सत्कविकाव्य इवावर्बद्धतु- हिनः! उसी प्रकारसे प्रस्तावनार्भे- “भविदितगुणाऽपि सत्कविभांणतिः कर्णेषु वमति मधधाराम अनि गतपरिमलाऽपिरि इरति दृश मालतीमाङा `

इनके भिक्लाकर अनुमान चार उदाहरण भिले हँ किं भिनमें अपने कविने सत्काग्य- विषयक निजका आभिप्राय व्यक्त किया है। पर सवम कविताके बिग भथीत्‌ पदस्ना- की हो विशेष प्रशंसा देख, पडती हे विवेकी पाठकगण इस ॐोदोसी'बातसेमीं गभीर तात्य

निकाल सक्ते द|,

सुबन्धु १९९

वा सदोष नहीं हेन दियाहै।यह रचना जहां शोभाप्रद्‌ हो सकती है वही पयुक्त की ननेकेकारण तो वह मथसे विटगसी ही नान पड़ती है ओर उसमे किसी मकारकी अतिही रक्षित होतीरै एतद्विषयक वाणकी उक्ति एकदेशीयताके व्यानसे पे उद्िसित हो चुकी है ओर दूसरी "कादबरी, की मस्तावनाम्‌ भी दृष्टिगत होती है, उसमे उसक। दचर्थौ उददय स्पष्रूपसे बोध होतहैः- ( कथाकी प्रशसा ) स्फुरत्कलखारापविलासकोमला करोति रागं हदि कोतुकाधिकम्‌ रसन शय्या स्वयमभ्युपागता कृथा जनस्याभिनवा वधूरिव ह्रंति कं नोज्जवरुदीपकोपमे- नवैः पदार्थैरुपपादिताः कथाः निरंतरशेषचनाः संजातयो महासजशथंपकङुदरेरि

मदनविवशा नव वधृके स्वयं शस्यापर आनेसे, उसके अव्यक्तम मधुर एवं कोमर आरपद्वाया मोहित हो रोगोको जैसे कौतुक जान पडताहैःओर हृदय भेमातिशय भरित होनाताै, वेसेही निन कथाओकी पद्रचना उक्त आङपकी नाई मधुर एवं कोमङ होती वे सवके मनमें कौतूहरु उप- जा रसद्वारा उनके अतःकरण को तद्रत कर डारुती है #

उन्वरु ज्योतिकी नाई सुद्र पदो तथा आशयो दास जोडी है, कथाए- कि जिनमे टीरटीरपर शेषोकी रेख्पेर की गई है, षडे हारोके समान कि जिनमे वौचवीचमे चपकी कयां सघनतया गुंफित की गयी है-किसका चित्त हरण नरी करती ?

2 % इसे पटु पृल्वोंहिखित एक भाम्योका स्मरण दमारे चतुर पाठकोको भवरयमेव होगा ( देखो ) काण्लिदात 1

२०० संस्कुतकविर्यक

उक्त उभय कवियोके गुणदोषोके प्रिचयाथे उनके गरथोसे एक एक भह नीचे उद्भृत, किया नाता है भरोसा है कि केवरु तद्वारा दोनोके नरणेनकी परिपाटी मार्मिक पाठकोको छक्षित हौ नायगी

"वासवदत्ता का प्रारभ-{( चितामणिराजाका वर्णन ) अभूद्भूतप्वःसव्बोव्ीपितिचक्रचारुचूडामणि्र णीशाणकोणकपषणनिर्मटीकृतचरणनखमणिने- सिंह इव दशितदिरण्यूकाशिपुकषेबदानविस्सूयः क- ष्ण इव कृतवसुदेवतपंणो नारायण इव सोकय्यै- समासादितधरणिमंडलः कैसारातिरिव जनितयशो- दानदसमृद्धिरानकर्ददुमिरि कृतकान्याद्रः सा- गरशायीवानतमोगिचरूडामणिमरीषचिरंजितपादप- द्यो वरुण इवाशांतरक्षणोऽगस्त्य इवं दक्षिणाशा प्रसाधको जलनिधिरिव वाहिनीशतनायकः सम कृरप्र॑चार्च हर इव महासेना्चगतो निवत्तितमार- शच मेर्रिव विद्कषालयो विश्वकम्मश्रयश्च राषारव क्षणदानप्रियः छयासन्तापहर्च कुसुमकेतुरिव जनितानिरुद्संपद्रतिसुखप्रदश्च विद्याधिरोऽपि सुमना ध्रत्रष्टोऽपि य॒ण्रियः क्षमाठगतोऽपि सु धम्मौभ्ितो ब्रह्रखामुभावोऽप्य॑तःसरलो मदिषी- संभवोऽपि वषोत्पादी अतरखोऽपि महानायको राजा चितामणिनाम्‌

कादबरीका आरभ-( जन्मांतगैत नायकका वणेन )

( कथामुखम्‌ ) आसीदशेषनरपतिशिरःसमभ्यचितशासनः पा

सुबर्धु २०९

कशासन इवापरश्वतुरुदधिमारखमेखलाया यवो भत्तौ प्रतापाब॒रागावनतसमस्तसामंतचक्रः चक व्तिरक्षणोपेतः चक्रघर इव करकमलोपलक््यमा णशंखचक्रखांछनः हर इव जितमन्मथः अह्‌ इवापरतिहतशकषिः कमलयोनिरि विमानीकृत- राजहंसमंडलः जलधि लक््मीप्रसूतिः गंगा प्रवाह इव मगीरथपथप्रवृत्तः रविरिव प्रतिदिव्‌ सोपजायमानोदयः मेरुरिव सकलयवनतरोपजी व्यमानपादच्छायः दिग्गज इवानवरतप्वृत्तदाना दीकृतकरः कत्ता मदाश्च्योणां आदत्त ऊतूनां आदशैः सर्व॑शाच्लाणाम्‌ उत्पत्तिः कलानां कमव नं गुणानां आगमः काभ्यामृतरसानां उदयशेलो मिर्मडलस्य उत्पातकेतुरहितजनस्य-प्रवत्तेयि ता गेष्ठीव॑धानां आश्रयो रसिकानां प्रत्यादेशो धनुष्मतां धौरेयः साहसिकानाम्‌ अग्रणीर्विद्ग्धा नां वेनतेय इव विनतानंदजननः वैण्यं इव चाप-

कोटिससुत्सारितसकलारातिकुलाचलो राजा श्रु- द्रको नाम।

चितामाभिराजाकी राज्यरीतिका वर्णन- यत्र शासति धरणिमंडलं छनिम्रहप्रयोगो वादेषु नास्तिकता चावोकेषु कैटकयोगो नियोगे षु परिवादो बाणास खलसयोगः शारिषु द्रिजिह

२०२ संस्कतकवि्पचकः

संगृहीतिरादितंडिकेषु करच्छेदः ह्ुप्तकरयदणेषु द्रिजराजविरुता पकजानां साव्वैमं दिग्गजस्यापित॒लाशुद्धिः सुवणा नां सूचीभेदो मणीनां शूलभेगो युवतिप्रसवे इःशा सनदशेनं भारते करपदारणं जक्जानाम्‌ यस्म शूदककी राज्यरीतिका वणेन-

राजानि जितजगति प्रिपाख्यति महीं चि्रकम्मेसु वणेसंकराः रतेषु केशग्रहाः काम्येषु ददवंधाः शाचेषु चिताः स्वमेष विप्रंमाः छवेषु कृनकदंडाः ष्वजेषु प्रकपाः गीतेषु रागविखसिता- नि करिषु मद्विकाराःचापेषु गणच्छेदाः गवाक्षेषु जालमागौः शशिकृपाणकवचेषु कठंकाः रतिक- लेषु दृतसंप्रषणान सायक्षेषु यन्यग्रदाः प्रजाना- मासन्‌ यस्य परलोकाद्धयम्‌ अंतःपुरिकार्रषु भगः वरपुरेषु सुखरता विवाहेषु करणम्‌ अनव- रतमखायिधूमेनाश्चुपातः त्रगषु कशामिघातः

मकरध्वज चापध्वनिरभत्‌ चितामणिरानाको किसी भृतपर्वैरानाकी उपमा शोभा नही देती इस

अभिपायसे सुबेधु छखते दै- महावराहो गोघोद्धरणप्रवृत्तोऽपि गोत्रोदखनमक- रोत्‌ राघवः परिदरघ्नपि जनकथुवं जनकथुवा सह वनं विवेश्‌। रतो रामे दरितभक्तिरपि रा- ज्ये विराममकरोत्‌ नलस्य दम्य॑त्या मिलि तस्यापि -पनभपरियहो जातः परथुरप्रि गो्रसयु-

सुबन्धु २०द्‌

त्सारणविस्तारितमभूमंडलः इत्थं नास्ति वाग- वसरः पूवंतरराजेषु

बाणने शूदकके निषयमे छ्खिा हैः- | नाम्नेव यो निभिन्नारातिद्टदयो विरचितनरसिर्‌- ूपाडंबरम्‌ एकविकरमाकातसकलञुवनतलो

विक्रम्रयायासितभुवनयं जहासेव वासुदेवम्‌

उक्त संग्रह वास्तवमे है तो दाही पर उभय कवियोकी वर्णन हैटीका परस्पर परिचय पाप्तहो इस अमिपायस उनके भिन्न अंवयवं अलग >, दिखला दिये गये है।उन्हे पट श्रष् कौन है इस बातका निश्चय रसिक सस्ृत- ज्ञ पाठकगण तो बहुतही शीघ्र करेगे! पर तौभी अपर पाटकेकि हेतु उनका यहांपर थोडासा विस्तार कर दिया नाताहै। उक्त संग्ररोदारा उभय कवियो- मे एक महान्‌ भेद्‌ यह ॒टृिगत होता है कि सुबधने अपने वरपसादके भरोसे विना यत्किचित्परिश्रम कयि दरेषोकी एकसी भरमार करदी है बहुतेरोकी-बडेवडोकी सम्मति है कि बुद्धिकी विरता ओर परिश्रम निसगतयाही परस्परके विरोधी है ।क्योकि वे रोग समञ्च करते कि उनके हाथसे यदि कोई काम सहसा हो सका तै उनकी विरेषतारी क्या क- हाई!इस मूसेताग्भिंत भावनाके हेतु वे छोग एेसा सोचा करते है किं मचंड श्रमकांडको उठा किसी क।स्यैका उक्कृष्टतया संपादित करनेकी अपेक्षा उसे यो- ही रेषकरनेमे कुछ षिटक्षण श्रेष्ठता है।नान पडता है यदी बात सुवेधुके मनम समागयी ,होगी ! उसका अनथ उक्त छोटेसे संग्रहमेभी स्ञरकता हे सुबे- धुके कवित्वका परवाह इतना उच्छरुखट था किं सरस एवं चमत्कृतिसंपत्र शच ष,रसङुद्धि, व्याकरणशुद्धि भमृति मतिपादित होते पर्य्यत उसकी गतिं श्करी नही सकती थी।उक्त शचेषोमेसे कई तो इतने तुच्छं किं कोई मृखंशिरोमणिभी वैसे हनारो बांध देगा रसभेगके उदाहरणभी कोई योरी क्षुद नही हैः- “मदिषैतेभवोऽपि*वृषोत्पादी) बिदारी है इस रानमान्य श्ेषकी #शरूरुभगो

इसीके मेलका एक छेष पृष्ठ १५दम पयाजातहि-

'ुधेवेडममी मदष्यप्यजातुरामिणी बमूब

२० सस्कतकविर्पचक।

युवतिमसवे'पर चचा पीछे होदी चुकी है। उसी थकारका व्याकरणभंगदोष- “कृतवसुदेवतपेणः' श्षणदानप्रियः'-पर हमारे कविको यहां तादश भय नही है। क्योकि शेषरचनामा्का भार उसने अपने सिर छिया रै, उसका अर रुगानेवरे काकार बडे बेड पड़ हैँ सो अर्थं रुगाते रहैगे विचारे छप्पन कोष भाष्य महाभाष्य मभूति अपने महाकविके शछेषधटक पदोका निषेध भरेही किया करर, पर वे रोग उनका अथै बेटयि विना कदापि स्केगे।अस्तु.अंतिम संग्रहकी @षरचना बहुत कुछ अच्छी बन गयी हैपर बह शब्दनारमा्मधान हानेके कारण हमें बाण काविके अगे छेष, कि जो अर्थवििष्ट है, अधिक अभीष्ट जान पडते है

सुवेधु ओर बाण कविके शेषम ओरभी यह भेदं सदा पाया नाता है कि सुवेधुके शेष केव शष्द्‌ चमत्कृति उपनानेके अभिपायसे बांधे गयेसे नान पड- तेः पर बाण कविके वैसे नहीं है कितु उनमेसे प्रत्येकमें वणैनीय विषयमे भित्र २अथेभी ग्रथित क्रि हए पाये नाते है यही कारणहै किं बाणके सबके सब शेष मिरुकर किसी एक व्ण वर्णनको पूरा करते पर यह बात सुवधुके मबधमें नही पायी नाती क्योंकि उसके यदि करं शेष प्र करदिये नोय तौभी वणनमं कोई उनता नही रक्षित होती। इसके सिवाय सुबंधुके इशचेषार्थांधनेके कोई निथितसथानभी नरीरै; वे जहां हाथ रुगनँय वरी वह उन्हे बद्ध कर केता दै। व्याकरण न्याय ओर वैयकादिश्ाख्च तथा अथकार्योके नामञदि सब वास- वदत्त में छेषधांधनेके काममें छाये गये पर कादेबरी की बात वसी नही हे उसमे नगकी स्भसिद्ध- वा पुराणम्रसिद्ध मुख्यतः वही घटना ओर व्याकरणादिकोंका संबेध यच तत छाया गया है कि निसे सवेसाधारण सहनहीमें समस ूञ्ञ सकते हैं

अब वासवदन्ताके उपारितन कथित उत्कृष्ट स्थ भदरिंत करना मात्र शष रह गया है;इसका निर्देशकरनेमें हमें अत्यंत आनंद होता है जगल संग्रह यथर्भमे तो थोडेही पर हम आशा करते हैः किं वे हमारे सदृदय पाठकोको

अधिकतर मिय गंगे ^ सुखंधु आमि भगवती सरस्वती देवीको नमस्कार कर कविरयोकी महिमाका

वर्णन रखतेैः-

सुबन्धु ४२०५

कृरवद्रसदशमखिटं मुवनतङ यत्प्रसादतः कवय्‌ः। परयन्ति शृष्ष्ममतयः सा जयति सरवस्ती देवी उत्कृष्ट पद्रचनाकी रमणीयता-

अविदितयुणाऽपि सत्कविभिणितिः कंणैषु वमाति मधुधाराम्‌। अनधिगतपरिमटखाऽपि टि इरति दशं मालतीमाला

'वासवदत्तामे' यह काव्यगुण चारो ओर पाया जाता है पर निग्नोदधुत

मल्यार्मृवर्णनमे वह्‌ विदेषतया दृष्टिगत हता है- कन्दुपैकेलिसंपटपरलरीकलारतटघम्मिहटमलन- मिलितपरिमलसमृद्धमथूरिमराणः कामकरकला- पकुशलचारुकणांटघ॒न्द्रीस्तनकलशष्ठसणधरूलि- परिमलमोदवाही करणरसिककांतुन्तलीकु- तलोहछासनसंकांतपरिमलमिरिताहिमाखमघुर- तरद्यंकाररवभुखारितनमस्तरोनवयोवनरागतरल- केरकीकपोपािप्चावलीपारिचयचतुरः चतुःप- शिकिलाकलापविरदग्धमुग्धमाल्वनिरतविनीनितंब्‌- विवसंवाहनढुशलः सुरतश्रमपरवशांप्रीनीरप्रपी- नपयोघरभारनिदाघजलककणनिकरशिशिरितो म- छयानिरो ववो नायिकाकी मदनावस्थाः-

अनन्तरं परिजनप्रयत्नेच्छासितजीविता सती क्षणमतिशिशिरवनसाररसनिभ्नगागूलपलिने श्च- णमतितुहिनमल्यजरससरित्परिसरे क्षणमरवि- द्काननपरिवारितसरस्तदविटपिच्छायासु क्ष

२०६ संस्कुतकविर्पन्यक

णमनिरोष्टासितदरेषु कदटीकाननेषु क्षणं फुखमशय्यासु क्षणं नलिनीदलसंस्तरेषु प्र॑ख्यका ोदितद्रादशरषिकिरणकलापतीवविरदायिदह्य- मानामतिकृशां विप्राणामिव तलं विभ्रती प्रचलद- मन्द्मन्दरांदोलितद्ग्धसिन्धुतररतरंगच्छटधवल हासच्छुरिताधरपदवं तन्मुखारविन्दं द्विजकुलमि- व्‌ श्रुतिश्रणयि तदीक्षणय॒गलं सहजसुरमिसुख- परिमलमाघ्रातुकामेव सुद्रविनिगेता सा नासा- वंशारक्ष्मीः कटकमुक्तेदकलाकोमला पीयुष- फेनपटलपांडरा सा द्विजपंक्तिः तददष्टचरमनं- गमतिशयानं रूपं घन्यानि तानि स्थानानि तेच जनपदाः पुण्यानि नामाक्षराणि तानि सुकृत भामि यान्यसुना परिष्करृतानीति सुहयेहः परिभा- वयंती दिक्षु विदिश्चु लिखितमिव नभस्य॒त्कीणे मिव विलोचनं प्रतिषिवितामिव चिरफरके छि- खित्वा पुरोदर्शितमिवितस्ततो विलोकयन्ती व्य-

तिष्ठत संस्कृत कविता निस समय उन्नतिके परम उच आसनपर आसीनं.थी उस समयके अनंतर अपने नन्मय्रहणकरनेपर सुबंधुने जो सेद मरद्ित किया है उसे पट ठेसा कौन है जिसका -हद्य उवित नदी हो नाता !

सा रसवत्ता विहताभनवका विसंति चरति नोकंकः।

इन शर्व्दोका ( अथोत्‌ रसवत्ताहानिका ) परमोष्ट उदाहरण।यह मेराही प्रथ समङ्गा जायगा यह बात विचारे सुवधुके मनम स्वप्रभेमी आयी होगी।वास्तंवमें स्वाभिमान देसी ही युरो चीन है कि जिससे मनुष्य बडा धोखा खा नेता ह|

खबन्धु

सरसीव कीरसिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये इस आ्य्याफो इतनी विचित्र दद्यदावकता किंस कारण प्राप्त हई है सो स्वयं हमारीदी समञ्च मे शकं नही आता जाने उसकी इस विरोषताका कारण भ्य छंदकी मनोहरता है वा ॒पदोकी कोमलस्वना है वा समूचे पद्यका करुणस्वर है वा सरोवरकी सरस उपमा है वा, अलप प्रिश्रमनिनद्धश्चेष है वा अनेक घटनाओके कारण जनमिय हए उस शक सचाख्कके नामका पर्यातस्थ नामेष्टेख है, वा] उसके पश्चात्‌ हए राजार्जो- के अत्याचारका समास वर्णन है इस विषयम हमारी तो यही सम्मति है मि कवि ओर पाठकवरभकी यापर नितनी एकात्मता पूर्णतया दृष्टिपथमे आती हैः उतनी अन्यच करहीभी हो सकेगी सजनप्रशसाः- यं मवति सुभगत्वमधिकं, | विस्तारितपरगुणस्य सुजनस्य बहति विकापितङकखदो, _ .. द्विगुणरुचि दिमकरोद्योतः खछमिंदाः-

अतिमलिने कन्तेव्ये मवति खलानामतीवनिपणाधीः। तिमिरे दि कोशिकानां रूपं प्रतिपद्यते चक्षुः विष्व्स्तपरगुणानां भवति खलानामतीव मिनत्वम्‌। अतरितशशिरुचामपिसटिलसुचांमलिनिमाभ्यधिकः॥ दस्त इवभूतिमटिनोयथायथारंघयतिखलः सुजनम्‌। द्पेणमिव तं कुरुते तथा तथा निमरच्छायम्‌

१उक्त तया अगरलो भय्योत्गेत अथैको पोप कविने किचित्‌ मिन्नदृष्टातद्वारा वितत किया [फण फा] 70617) 05 118 81246 [पाह ; # एप [71६6 80४0, [70९88 {06 8इप्06६८०९€ प्र पठ - १0 शार1€त छा, 1116 801 व्ल]1[8€, 1268 [00 णणृन्ड& ०५8 &7088्€३, 70 118 0, ञ्‌ ०) कपध्रलंडप,

खबन्धु

सरसीव कीरसिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये इस आ्य्याफो इतनी विचित्र दद्यदावकता किंस कारण प्राप्त हई है सो स्वयं हमारीदी समञ्च मे शकं नही आता जाने उसकी इस विरोषताका कारण भ्य छंदकी मनोहरता है वा ॒पदोकी कोमलस्वना है वा समूचे पद्यका करुणस्वर है वा सरोवरकी सरस उपमा है वा, अलप प्रिश्रमनिनद्धश्चेष है वा अनेक घटनाओके कारण जनमिय हए उस शक सचाख्कके नामका पर्यातस्थ नामेष्टेख है, वा] उसके पश्चात्‌ हए राजार्जो- के अत्याचारका समास वर्णन है इस विषयम हमारी तो यही सम्मति है मि कवि ओर पाठकवरभकी यापर नितनी एकात्मता पूर्णतया दृष्टिपथमे आती हैः उतनी अन्यच करहीभी हो सकेगी सजनप्रशसाः- यं मवति सुभगत्वमधिकं, | विस्तारितपरगुणस्य सुजनस्य बहति विकापितङकखदो, _ .. द्विगुणरुचि दिमकरोद्योतः खछमिंदाः-

अतिमलिने कन्तेव्ये मवति खलानामतीवनिपणाधीः। तिमिरे दि कोशिकानां रूपं प्रतिपद्यते चक्षुः विष्व्स्तपरगुणानां भवति खलानामतीव मिनत्वम्‌। अतरितशशिरुचामपिसटिलसुचांमलिनिमाभ्यधिकः॥ दस्त इवभूतिमटिनोयथायथारंघयतिखलः सुजनम्‌। द्पेणमिव तं कुरुते तथा तथा निमरच्छायम्‌

१उक्त तया अगरलो भय्योत्गेत अथैको पोप कविने किचित्‌ मिन्नदृष्टातद्वारा वितत किया [फण फा] 70617) 05 118 81246 [पाह ; # एप [71६6 80४0, [70९88 {06 8इप्06६८०९€ प्र पठ - १0 शार1€त छा, 1116 801 व्ल]1[8€, 1268 [00 णणृन्ड& ०५8 &7088्€३, 70 118 0, ञ्‌ ०) कपध्रलंडप,

बन्धु २०९

का पयोग किया गया ह, वैसेदी यहां शद्रस वर्यं होनेके कारण सुबु कठोर वर्णौका प्रयोग किया है अब पाठकोके अलम्‌ कहनेके परवह हम ओर सेग्ररोका उद्धुत करना शेष कर देतेह। इतने संग्रह उद्धूत किये ना सके यही बड़े भागकी बात समक्षनी चाहिये, नोचेत्‌ यदि स्व॑भु काछ्िदासकी नाई भूमिकाके नामसे कुकभी र्खिता तौ उसके कवित्वके यथाथ एव उत्कृष्ट स्वरूपका आनदिन्‌ पता तक रुगता, ओर रसिकोको आनंदं देनेयोग्य उसके ग्रथमे मायः कुछभी पाया जाता ईसाबकी कथासेग्रहके सामरकी नाई उसकी परीक्षामे रोग धोखा खा नाते। जिस कृत्रिम पद्रचनापर वह इतना अभिमान करता था, ओर निस पधानतादं कथाके रेष अगोकी उसने सवथा उपेक्षाकी। वही आन उसके ग्रथके लुप हो ननेका कारण हर होती, ओर जिस मरतावनाको (भूमिकाकों ) ओर मध्यस्थश्कोको उसने विना विेषवाक्चातुयेके ्योही सर रीतिसे छिखा- किजो केव बहिरंग है-अतमे वही उसे प्रमोपयोगी इए।भस्त्‌, जो हानि हो गयी सो तो अब किसी प्रकारसे पूरणं हेही नदी सकती; एतावता जो रसिक वासवदत्ताको पटे ओर विचारे उसे समुचित है किं वह केवर ग्रथकोरी देख भारकर सुवेधुके कवित्वकी योग्यता निश्चित करे, किन्तु उसे स्थिर करनेके पूर्वै वह उक्त वाह्य गोकोभी विरोष रूपसे अपने विचारक अर्मे वे, वैसा केसे उसे भरोसा हो नायगा सबधु यदि जपने भूतपूर्व कवियोके समयमे पेदा हज होता तो उसकी कवित्वराक्तिको उत्तमता मराप्र हो वह्‌ अपने वत्तैमान रूपकी अपेक्षा अत्यतही भिच्ररूयसे पग इई हाती ! अव अन्तमे डाक्टर हार साहिबने ऽस यंथका जो सस्करण मस्तत किया उसके विषयमे कुक ङ्खिना अभीष्ट नान पडता है इस छेखके छिखनमे हमे उक्त ग्रथसे नो सहायता मिरी है उसका परिचय उभय यरथोका अवलोकन करनेवारेको सह नहीमे माप दो सकताहै। कहना नदी होगा किं अपनी विगार- विद्वत्ता तथा तीव्र बुद्धिकी सहायतासे सुबधुके नीवनकारको निश्चितकर उक्त साहिव हम सव रोगोके विदेष कृतज्ञताभानन हए वासवदत्ता) के निन अनेक दोर्घोका उपर उद्धेख किया गया है उन्दे उक्त साहिब महादयने अपने उक्त संस्करणकी भरूमिकामे मदरितकर ठरटीरपर उनपर बडे मनो-

२१९ संस्छृतकाविरपैधक

हर एवं विनोदभयुक्त आक्षेप किये हँ वह आक्षेप केवल सुचधुके विषयमे बहुतांशमें शक जनान पडते हँ ।पर उक्त साहिब बहादुर इतनेमे ही संतुष्ट नहो तदार समस्त संसृत कविवद्‌, संपृणभारतके आस्येखोग, सुतरां आधि ए- शिया मह देशके छोगोको दूषित करनेकेियि चेष्टा करना चाहते है ।यह साहि- बहादुर यद्यपि भारतमें बहुत दिनखें रहे ओर संस्कृतके व्यतिरेक अपर देदाभाषाओका भी स्यात्‌ आपने बहुत कुछ ज्ञान पराप्त कर छियाथा,ती भी हिदू- लोगेकि विषयमे उनके हदयमे अधिक प्रेम अंकुरित हासा नही देख पडता। भोफेसर विरुसन्‌ साहिब तथा व्तेमान पडितमरवर मोक्षमूलरकेसे डक्टर ह- टसाहिब करीं हिदृलोगोके वैसे कुछ पक्षपाती तो थे पर केवर सामान्य मकारसेरी दिद्रोगेके विषयमे यथार्थं उष्ठेख करना भी उन्हें अनभीष्ट नान- पड़ासा बोध होता है।मिष्ट साहिबने, कि जिन्हे भारतकी किंसी एक भाषे अक्षरतकका परिचय था चार हनार कोसकी दूरीपर बैठकर उनकी अपेक्षा भारतका अधिकतर पराचीन इतिदास छिखतीबार, नो मत गट किये हैर जैसे मकारे साहिब स्वयं भारतवषमे आकार भी उसके विषयमे यहांसे बिखायतको वहा बार सम्मतियां छे गये कि नो बास्यावस्थामें पादडीरोगोेः म॑थावटोकनद्वारा उनके मनम समा गयी थी.टीक वैसीही सम्मतियां वत्तेमा- येथमकाङकने भी अपनी आवृत्तिमें कही कटी भकादित की हे तौभी उक्त- साहिवके पक्षम एक बडी भारी मात कहनेके योग्य है वह यहीहै कि निस समय उक्त थका संस्करण परकारित किया गया था उस समय किसी शति- स्वभाव मनुष्यका भी जौ हिदओसे हट गया होता।यह बात भारतके गत वि- दोहकी है उस रोमहर्षण विपत्कारमें हर साहिबभी आपत्तिय्रसित हए थे, ओर निन स्थानसे भागकर आपको सागरके दुगैमे छिपकर दिन काटने पडे- ये।इसके सिवाय विद्रादियोने इाहाबादमे कागनपत्र नखा दिये थ।उसमे भी उन्हे कुर हानि सहनी पड़ी थी अभिमाय यह कि उक्त सव घटनाओंको जिचारनेपर उक्त यंथके माक्कथनमे नो तीव आक्षेप छिसिगयेदै, उनका कि- सीको वैसा कुछ विदोष आश्वय्यं नरी जान पडता

खबर २११

“वासवदत्ता के अंतर्मत श्वेगारके भकरणको देख हार साहिब छ्खिते हँ कि आर्यरोगोको शुद्ध दौगार रसका अणुमाजभी परिचय नदीं है उसी भकारे उक्त ग्रमे नो पकृतिदेवीके वर्णन पाये नाते है उन्हे बिचार कर ओप स्पष्ट- रूपसे छखिते हँ कि भारतवमे इतना अपार शृष्टिविभव होनेपरभी वह उसमें किसी कारमे कदापि रममाण नही हजा,सारांश उसका होना होना एकसारी इन दोनोबातोका विधानमाज कर उन्हे निःसदेह सिद्ध इईसी- मान उक्त साहिब बहादुर विना सकोच हिदुजोकीगणना यनचशेमे करते रै। उक्त उभय दोष वास्तवम महान्‌ पचंड हे,ओर यदि वे परमाणितहो नार्यै तो आपफ्रिकाके ब्रीगोलोगोके वर्ममे मविष्हए विना हमारेखियि उपायांतरही शेष रहेगा ।यहांपर अपने रोगोके पक्षमे ओरभी सावस्तर लिखना हमे अभीष्ट नरी नान पड़ता,क्योकि उक्त उभय देषाकी मीमांसा हम पीछे पृथक्‌ पृथक्‌ करी चुके ६, उनसे अधिक यहांपर छ्खिनेयोग्य ओर कुर नही है। पर उक्त दोनो दाषोके अतिरिक्त एक तीसरी बातकेखियि उक्त यथ प्रकारके आ्यरोगोका बहुत उपहास किया ३ै,उसके विषयमे कु थोडासा छिखिना आवद्यक जान पडता है।खीका पतिके साथ सरन रहना उक्त उक्टरसा- हिवको मानवी स्वभावका विरोधी बोध होता है, ओर आप यह ॒छ्खिनेमे तनिकभी हिचकतेसे नरीं देखपडते कि यह्‌ चार सम नगसे विरुग एवं अन्यथा ओर सिश॑पनकी योरोपके सुधारसंपन्न रीतिभांतिके मेमी हमारे साहिब घहादुरको नव किं हमारी रीति भांति उपहासार जान पडी तब तो उ- नके विषयमे कुछ कहना सुननारी देष नदी रहा पर यदि उक्त साहिबि- बहादुरकी अनुमति हो तो हम अपने देश॒की अनुषित एक दोबातोका ओरभीं नदशेन कर सकते ह।पर उनका उद्ेषकरनेका हमे साहस नरीहो- ता-वह दोषश्ाकभोनपियता तथा मद्यपान निषेध है

सुबधुके विषयमे हीरु सादिवने जो मत प्रकाशित कयि दै उनमे एक महान्‌ दोष यह भी उपरुन्ध होता कि वह सव एक पक्षके ह! उनकी

&@ कालिदास-पृष्ट ५-९ मपमूति पृष्ठ ८७-८९ भवमूति १०९-११२

२१२ संस्कतकविर्षचकः

दृष्ट छिद्रान्वेषणकेल्यि जेसी सूक्ष्म देख पडती भैसी वह गुणमका- साथं नही पायी नाती सुवंधुके देोपींकी रोचना साहिने अत्यन्त आनंद्पू्ैकं सविस्तर छ्खिी है कवित्व ओर भृगो परिज्ञा नका नित्य सम्बन्ध नदी है, इस विषयमे शेकसपियर कविके पक्षपाती रोग अद्यावधि विवाद्‌ कियाही करते दहै, तौभी तदज्ञाना्थं बापुरे सुवेधुका उपटास करनेके अवसरको उक्त सािव बहादुर व्यम नही जाने दिया यहां एक स्थानपर तो विचारेकी विना कारणदही सी की है। नहा प्र केदपेकेतु ओर वासवदत्ताकी भथम भेट हई है, वरहो सुबेधुने कवि संमाद्‌यानमेदित वासवदत्ताका नखसे सिख वर्णन किया है। इस व्णनके विषयमे हारसाहिब रिप्पणीमे छिखितेँ पाठकवग ! स्मरण रस्ये कि वासवदत्ताको देख कैद््पकेतुका मन पथम उसके नखचरणादेके दशनसे मोहित हज वा : !”› प्र॒सुबेधुकी भशंसामे एक दो शब्द्‌ उक्त साहिबने जो करीं रछिख दिये वद सब यदि एकन्नितक्यि नोय तो तीन चार्‌ पक्ति यड़ी कटठीनाईसे पणं होसकेगी। सुवंधुके पक्षमे हम नो कई बाते पीठे अये उन्हे उक्त साहिब बहादुसने निन विचारकषे्में आनेतक नदी दियाहै। आपने सु्बधुकी यदि कुछ ्ररंसा की है तो केवर सिहव्णेन विषयक उक्त दो छकोकेलियही उसकी प्रशसा की है।अन्य वर्णनोकोश्य सुबेधुसर्सीस अ- म्रयोननीय कविकी मदोसाकरनमे उन्हे बडा सकोच पड़ासा देखडता है रेसी अवस्थामें बाह्य रघनाको तों बातदी दूर है इसके सिवाय शेष, अनुरास ओर यमकादि तो सर्वथा निदनीयहीर पर पद रचनाके मधुरतादि गुणोमे भी हमारे साहिब बहाद्रको कोई प्योजमीय बात दृष्िगत नही इड। सारांदा, उक्त संस्करण भकारितकरनेमे उक्त साहिष बहादुरका मधान अभिभाय यी रक्षित हाता है कि तद्वारा उक्तग्रथकी दुर्दशाकर की्तिसंपाद नकरना ओर अपने स्वदेश्लीय पाठकोंको विनोद्ममुख मनरुगावकेदधिये एक भथ भेँट कना

अस्तु; अब हम इस ठेखको शेष के रै; ओर उक्त ठोकटर सादिवको शङामकर अपने कविसे बिदा मांगते ' .

दंडी कविरदण्डी कविदैण्डी काषिदण्डी संशर्यः।

इस कविके नामसे दो भथ ॒भसिद्ध हैः-एक "दशकुमारचरित, ओर दसरा काव्याद काव्यादौ, एक कछोटसा, यंय है कि, निसमे सहित्यका विषय वर्णिते अयावधि उसका फैखाव अधिकतर होनेके कारण उस- का हमे विशेष परिचय नरी है; अतः उसके विषयमे यहां हम सविस्तर नरी छिख सकते निःसंदेह यह ब्रात सत्त है कि इस यंथका- वसैमान कान्य- विवेचक मवसे वैसा कुछ विरोष घनिष्ट संबेध नरी है, तौभी हम समक्चते- है कि, दंडके कारका निर्णय करनेकेरेतु ओर उसके कवित्वं गुणका पार्विय विेषरूपसे ' सपष्ट -करनेके हेतु वह बहुत कुक उपयोगी हमा होता अस्तु; अब "दशकुमारचारित' की ही आलोचना 'की नाती

अनुमान पचास वषैके पूवे इस येथके अंगेरनी सस्करणको मोफेसर वि- रुसन्‌ साहिबने भकाशित किया था पदी कटी छभ्यमान है उसके उपोद्घातमे उस विद्वान्‌ “पंडितने ग्रथकत्तीके समयादिके विषयमे बहुत घाते -ङिखी हे; पर बे उक्त डक्टर हार साहिवकी नाई सावधानीपून्वैक शती गयीसी नरी देखपडती यह बात हमारे अगर विबरणसे ओर भी खष्ट हेनायगी 1 तौ भी उक्त परिभ्रमा्थं उपरितन कथित साहिबकी हम सोगोको कृतज्ञता अवेद्य माननी "चाहिये

वास्तवमें ददीका यथार्थं वृत्तांत उतनाही पाप्यहै नितना कि काछिदा- सका रुभ्यमान है सारांश इन दोनोके नामातिरिक्त ओर दूसरी बात वि- शवासुपुवंक भाप नहीं हौ सकती पर दैतकथाओमे दंडीका नाम कालिदासः ओर भवभूतिके साथ पाया नाताहै; निदान इससे इतनी बात तो अवदयदी निद्धौरिति होती है किं, यह कवि अत्यंत ननमान्य हा होगा। 'कविचाश्ठ'

कविहैवौ एक दीहो हे, कविषै तौ एक दीदी, कविडहैतौ एकं दडीहो दै, शसम अणुमापरमी सदेह न्ह

२१४ संस्कृतकविपंचक

इन कविर्योकी दो तीन वर्ति खी हँ फ, नो पंडितननेमिं सुमसिद्ध उनमेसे दो विष चमत्कारिक रँ, अतः नीचे छिसी नाती है

एक समय सरस्वती मनोहर युवतीका रूप धारणकृर एक मधान मागै- पर कंदुककीडा करती इडं भकट हं उसकी उस अनुटी छविको देख ई-

रा~- एकोऽपि अयं इव माति कंडुकोऽयं कांतायाः कर- तरूरागरक्षरक्तः भूमो त्चरणनखांश्गोरगोरः स्वस्थः सुत्नयनमरीचिनीलनीरः

“यह गेंद यथाथमे है एकी प्र तीन स्थानोके साथ संयोग हेनेसे तीनमकारकी भाषित होती है-नब करफे निश्ट अवींहै तव उसकी छाल भामे अत्यंत रक्त, ओर जब भूमिपर आतींहै तव उसके नखकी पाड भभामें नितांत गौर, ओर नब मध्यवर्ती रहतीहै तब उसके नेओंकी भभाके कारण अतीव नीर देख पडती है !

भवभूतिने कहाः-

विदितं ननु कंदुक ते इदयं ्रपदाधरसंगमटुग्ध इव वनिताकरतामरसाभिहतः पितः पतितः पुनरुत्पतसे

9 भेजप्रवध-ङ्खा हे कि, यह शोकं वररुचिका षनाया हमा है, इसी प्रकारसे दस ग्रथ ओ।र कविचरित्र' भगङेदो शोर्कोकी कर ताके सबधपे भी नामका देर फेर देख पडता दै दतकथाओमिं प्राप: देतसेदी बेजोड बाते पायी जाती

तीनों शछोकोकी भक्षा यह शोक परमोत्तम है यह उत्तमता सही ध्यानम भनि योग्य नहीं है, एतावता वह्‌ स्पष्ट कर दी जाती है ¡ पदका भर्थं उघ्ठके उच्वारणके सायही मनको ज्ञात हो जाया करे एतदर्थं कविगण प्रण विशेषप्र बडी निपुणता दिखाया करते है] दस विषयमे पोप कविने खा है-

(718 7०६ वलपटट ०० 08181683 1ए९8 0087168, "€ §0पात्‌. 171 §€ला॥ 8 €९]10 {0 {11€ 8686. 85 011 (ाव्लाऽपा,

वर्णौकी कटोरताके कारण कविताको क्णैकटुता प्राप्त होने प्रवि इतनीही साव-

भ्ानी भनम्‌ नहीं हे, कितु उक्षकी रचना देसी होनी चाये कि, पृदोँके उचारणके साय

दंडी २१५.

“कटुक! तेरे अभिमायको भने भीभांति नान छया है इस वनिताके करकमरुद्ार॒वार॑वार मचे पका जानेपरभी तू उसके अधरोषटसगमकी ( चुम्बनकी ) रारसासे पुनः पुनः उपरको उछ्र्ता है |

तदनतर कालिदासने कहा- पयोधराकारधरो दि कैकः करेण रोषादभिदेन्यते मुहुः इतीव नेनचाकृति भीतथत्पटं सियः प्रसा- दाय पपात पादयोः

““इसु गेद्ने इसके स्तनोका आकार धारण किया है अतः यह्‌ उसे सक्रोध सीवचिको पटकती है; ओर इसी कारण (शिरस्य ) कमर्‌ भी-क नि- सने नेत्रोकी दोभा अपहत की है ओंर तदथे अत्यत भयभीत हो रहा है- मानो उसके पांव पड़ रहार "1

उक्त तीनो शोक महाकवियेके कवित्वको कल्पनाशक्ति ओर रचनाक सबधसे मनोरमता देने योग्य है। पर एसे अवसरपर नो एक विशेषता उन- मे ओरभी दीख पडनी चाहिये थी सो नरी देख पड़ती वह यही कि, प्रत्येक प्यमे उसके रचयिताका कवित्वं विरेषगुण स्परूपसे व्याक होना चाहिये था

दूसरी एक आख्यायिका यह भी सुनी नाती रै कि, एक समय दंडी

ओर कार्दिसकी सधौ होजानेके कारण देषीने मादुरभूत होकर कहा "कविदेडी कविदेडी कविदडी सशयः। ' तव काछिदासके श्ुञ्ञखाकर पृनः पुञनेपर देवीने कह्‌। (त्वमेवाह संशयः' (तृ तौ भेदी अथव तूञओरमदोनरीहै)। -ही साय उनका भये पररि्वनित्त हता चला जाय। इत निवमका रक्त पव तङ उदाहरण हे कदुकक्ीढा वण्य होनेके कारण वर्च॑मान प्र्गपर्‌ तोरक पृत्तका प्रयोगं बहुतदी समुचित हुभा दै प्यमाश्रकै, कथनद्वारा उत्त क्रीडाका भामास होता रे जर चरम चरणमें कठोर वणोकी अधिकतके कारण प्रत्येक यतिके अतम मनको देता गता दै कदुकं पट्‌ पट्‌ पटका जानक कारण दीय निःन्वास प्रयुक्त करता हो |

छोड़ दिये हुए शब्दको यष्टा ल्खिनेमे तो वदत लन्ना लगती है, प्र विसप्र भी श्रे देते है ( भह रडे मह रे!" )

२९६ संस्कतकवि्षचक

इसी घातके विषयमे हम पीडे र्खि आये है कि यह अत्येत गा- मौण हे प्रतु इस्तका अथं गंभीरता एवं विलक्षणता पूरित होनेके' कारण वह यपर पुनःउद्धिखित की गयी हं उक्त श@ोककी रचनादारा यह भाद , रपष्टतया अनुमित होती है कि, भगवती सखरस्वतीका वरमसादं शेष हा उसके साथी साथ मनके सुकोमरुतादिगुण नब इस देशमे रप्र हए उसी समय उक्त छोकका मादुभौव हभ होगा अब यह बात सच है कि, उसमें अभैगौरव बहुत है, पर॒ तदथै उसके कर्तको समाहत करनेकी अपेक्षा अपने भागकीही सराहना करना हमे आधिक उचित बोध होतार !

इस॒बरातका यहांपर उष्टेख केकी कोई आवदयकता नदीं बोध होती कि, उक्त उभय कथा केव रमणीक हेनिके कारणही ' पुनरपि ङी ग्थी सारांश बहिःपमाणके एक अंगका-अर्थात्‌ देतकथारभोका- तौ निपटेर हही उका; किं उनकी सहायतासे दंडीके जीवनकारुका अनु- मान नं हे प्षकता | उसी प्रकारसे दूसरे अग अर्थात्‌ अपर मथकोंराके टेखादि भी वत्तेमान प्रसंगके अनुकर नहीं हो सकते तौ अबे अपने कविके समयका अनुसेधान करनेकेलिये केव एक अतः भमाणही साधन शेष रहगयहै इस पमाणको विरुसन्‌ साहिबने दो बातोदार स्वीकृत करिया है उन्मसे पहिरी बात तो यह ₹ै- कि, वर्तमान कथाम यवनोकौ ( मुसरमां्नोका ›) संबंध केवर ` देखो मवमूति ष्ठ ५७।

भ्यवन' शन्दका अर्ये उपर जो धनुषाकार्‌ चिन्मे लिखा गया है वही एक नर्ही दै वह भं विदछसन्‌ सादिवके अनुमानको अनुकल दहोनेके कारण उनेने उसका स्वीकार किया है माषातत्त्ववेत्ता रोग प्यवन? शब्दकी उत्पत्ति [0111911 (टे.ओनियन्‌) , शन्दसे बताते है लो हो, इसमे तो कोई सदेषदी नदी कि, यवनोका उष्ेख भाय्यं लोमक म्रपोमे अत्यत प्राचीन कार्ते पाया जातादहै। महामारतके युद्ध प्रतगमे जिखा कि, यवन दुर्योधनके प्यारे योद्धा थे, उ्तके सिवाय दस वातक तो समी जानते है कि, पडर्वोके लाश्चागमे दगध करके पुरोचन नामका यवन नियत किया गया था सिकदर बादशाशटके समयक्कौ घटना जिर नाटकका भवलवनस्वरूम इदं हे शुद्धा;

्षघ्च' नाटकं तो उनका सब भ।रमी स्पष्टठया पाया जाता इन सबकी विचा- रनवे यह बात लक्षित होती है किं, यद शव्द ग्रीक लागीकि ल्थिमी प्रयुक्त किया णाता

ददी २१७

एक दौ ,स्थानोपर किचिन्मात्र आया है; उससे यह अनुमान हेता है कि तत्काटीन हिद्लोग उर व्यापारी वा समुदी क्‌ सम्षतेथे) उसी मकारसे व्तेमान कथादास हिदृरोगोकी निस चार चरन रहन सहन ओर राज्य रोतिभदिका पारवय मिक्ता है, उससेभ यदी बात अनुमित होती दै किं 'द्राकुमारवरित' मसरुमान रोर्गोका आधिकार इस देरामे भास होनेके सागके अथात्‌ ° स° ९००० के पूर्वरी छिखा गया होगा ओर दूसरी बात यह्‌ है इस यंथके अंतिम उच्छास ( ज्व ) मे भोजवशके विषयमे उद्धे कया गया है 1 उक्त उद्धेखपर विरुसन्‌ साहिब तकंना करते हैँ कि भोनरानाका समय दशवे श॒तकका उत्तराद्धं होनेके कारण वनत्तेमान ग्रथ उक्त काखके अनेतर छिखा गया होगासा जान पडताहै निदान उक्त दोनो आधायोको उपस्थित कर यह साहिब बहादुर यह निय करते हैँ कि "दशकं मारचारेत' ग्यारहवी शताक्के अत भा बारहीके आदिमे छिखा गया होगा ेसा माननेमे कोई आपत्ति नरी है

वत्तेमान्‌ कविके समयको निथित करनेके हेतु उपर नो भमाण दिख- ङाये गये है बे शका ओर विवादनारमे मक्त नरी दै उनसे यदि कोई वात निद्धोरित दोह सक्ती दै तो बहु यहीहो सकतीदैकि, यह्‌ रथ मुसरमानोके भारतमे अनेके पूर्व-अ्थौत्‌ अनमान ई० स॒°

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होगा रेसी भवस्थामे यवनञ्जव्दके उदलेखसे (दश्षकुमारचारेत)के समयक अनुमान कर (दकु मार्चारेतः के समयते प्यवन' अद्धके अथेका निश्चय करना मिकतर सुगम बोध रोता 1 पाठे तो मुखलमानोका ठदयदी दसवीं सनकी स्रात्वी श्षताद्धीमे द्मा है तो मब इधर इख देशम (यवन^के नामे वही लोग प्रासेद्ध हे सो अकररि।ओर सायक यह सातमी स्ट हो जती हे कि पूर्वके-भर्थाद. सातवीं आवी सतान्रीके पूरके पर्थोभ वह अर्य मुक्तिसमत नदं क्षत दोता! एतावता मारो यद्‌ सम्मति किभसे कारिदासके“पपुवञ्च मे पारसीक ( पारसी ) इन ( (विप08 £ ) आदि म्टेच्छनतियोका उद्लेख पाया जाता रै, भोर "काद्र" मे यह शिखि हे कि, पारसी रोगोके राजाने दद्रायु नामका घोडा भेट दिया था, उदी प्रकरारसे उक्त प्यके "यवन, क्षब्दको केवल मुसलमानोका न्यंजक मान उक्तजाति वा तत्सम भपर जातिरयोका बोधक मानना चाहिये यह बात दृडःके जोषित ऋालनिणोयक भगे लेखद्वारा बौर भी स्पष्ट दजाथगी १०

२१८ संस्करतकवि्थचके 1

१००० वर्पकरे परयै छ्खागयाहोगा प्र इससे ददी अमुकही दाताद्रीमे जन्मा था कहनेकेखियि क्या भमाण है? विलसन्‌ साहिवने अपनी तर्कनाको पृष्ट करनेकेथिये पूर्व्वोक्त भोनवराके उद्धे खको उपस्थित किया पर भोनरानके कवट नामस क्या हो सकता ! फयोकिं उस नामक प्रसिद्ध राजागण अनेक हो गयं है एसा कई अ्रथो- द्वारा नाना नाता है #। महाभारतमे भी एक भोनवंडकी कथा अत्यंत म- सिद्धै; पांडवोक। मा कवी उसी वंशकीं वेध शी एेसी अवस्थामे यह कह नेकेशिये क्या ममाण है कै, देतकथापसिद्ध भोनरनाही उक्त भोनरानाै। इसके सिवाय इस भोनरनाकी जीवनरताद्रको सनिश्रयं कोन वना सक- ताह! विरसन्‌ सादिवने यह हदताप्व्व॑क टिखा है कि वह ग्यारहवी शता- दधीमे जन्मा शरा, पर जपन अपने टेखकी पोपकतामे विनश्वासपात्र ममाण कुमी नदी भदित किया, उसक व्यतिरेक उक्तसाहिवकी उक्त तर्वैनाका आधारस्तंभ यनोका उद्व रै इसके विषयमे हम अभी पिष्टे पष्ठकी “प्पणीमे सविस्तर छिखदी चुक हे उससे पष्ट दीख पडता कि तद्रारा कई विश्रासपाज ब्रात स्थिर नहीं हो सकती हमारे भूतपृ्व्वं महपिगिण भारतके आसन्रवासी पारसीक तथा ग्रीक प्रभृति रोगोके ल्य यवन" शब्द्‌ व्यवहत किया करते ५, अतः वह्‌ शब्दं यदि मुसरुमानोका बोधक माना नाय ती कोई गुरुतर वाधा उपस्थित होगी निदान इस रकारसे उक्त दोनो भमाण दुर्मैठ स्थिर रोते भखा यदि यह मानभी छखिया जाय कि, ठंडी भोनरानाकाही समकाठीन था तो इसकेखियि क्या ममाण है ? केवछ एक भोनमवेध ! इस येथको एतिहासिक मान इसके रेखोढारा संस्कृत कवरियोकि जीवनकालके विषयमे अनुमान करनेका साहस करना ठीक वैसा- ही कहा नायमा जैसे कोई 'सहस्ररननीचाशे्र' की कथाओको भमाणस्व- रूप मान इतिहास छिखिनेकी चेष्टा करे इस गंथके कत्तौका वहार मिश्र नाम ओर उसकी रेखमणारीढाया बोध होताहे कि, वह बहुत पुराना र-

देखो टोक्टर शर साहिवप्रकाशित 'वासषदत्ता'कीा आदृत्ति-मगरेभी उपोद्घात) षष्ठ प्रथम रिष्पणी

ददी २१९

खक था! नान पडता कि बहुतसी सुनीहुईं कथाओको एकातित कर उसने उक्त भथ छिपिबद्ध किया है अत्यंत माचीनकारुसे भारतम नो परसिद्ध २कवि हुएहै उन सबको आपने जोड बटोरके अपने ग्रंथमे एकतित कर दिया है काकिदास, भवभूति,सुवु, बाण, बाणतनय, दंडी,माध ओर भारविजादिको एकी मािकामे गूफित करनेके अतिरिक्त बह्वारमिश्रने मदन, विनायक ओर क्रोकिलआदि सचे वा घटे कवियोको भी अपने पवेधरमे गुंफित करछि- यार, एते ग्रथ केवर मनबहलावके भमिमायसे दी टिखि नातेहं,उनमे यथा- थता टूटना अत्यंत व्यथे है एतावता विरसन्‌ साहिव नेसे चतुरब्रूडामणि पडितके वैसे छेखोको भमाणित मानते देख मन अत्यंत विस्मित होता

इस थकारसे विलसन्‌ साहिवके निर्भेयको दुष करनेवारे अनेकं आक्षपोका उदे कर अब दडीके नीवनकारके विषयममे निनका मत मकट करते हु

उपर हम छिखदी चके है कि, दडीका जीवनकाट स्थिर करनेकेलियि केवरु अंतःपमाण दी एक साधन प्राप रो सकता है यह अतःभमाण यथेष्ट भटदी मिरसके पर दंडीके जीवनंकारुका उससे बहुत कुछ पता अवद्य मिरु सकता है पीर दो कवियोके वर्णनोमे हम यह कई वेर रिख चके हे कि, दंडी उन्दीका समव था।पर अव हमें समञ्ञ पडाहै कि हमारा वह रख भसे शिखा गयांहै संस्कृतभाषरमे गद्यकाव्यके मंथ- (कादबरी, ' वासवत्ता ओर ' दशकुमारचरित यह्‌ तीन ही हेनिके कारण, यह्‌ तीनो कवि काकु, ओर कवित्वादिगुणेमि समसमानदी हेगि एेसा स्वभावतः भ्रम होता है यह मथम दोनो विषयमे अछ्वत्ते सच जान पडता, पर दडः वर्तमान गरथकी पद्रचनाको नब हम विचा- रते है तौ यह कहनेकोश्ये साहस कदापि नदी होता किं वह सुबधु ओर बाणका समकारीन था दूसरे दोनोके यथोम लेसे दीष समास सर एवं विरोधाभासात्मक ओर बणमूदुतादि इतिमताकी सामग्री इठाव्‌ प्रयुक्त की गई है, वैसी पादरेके भेथमें नाममा्रको भी नरी पायी' नाती,

२२० संस्ङृतकविषश्चक

कितु उसके गर॑थमेँ कालिदासके समकक्षी काकयिकी नाई भाव अर पदरचनामे मायः सरता दृष्टिगत होवीहै साथी यहभी कदा नाताहै कि वतमान यंथकेलिये पिरे दोनोके समान कान्यसंज्ञाी सर्वैथा चरितां होसकेगी हां यह बात सच है उसकी अर्थरचना पदपद्पर कषिता केसी है; पर उसके स्वयिताका उदे सुव॑धु ओर बाणकी नाई ग्यकान्य (रखनेका सर्वथैव था, तै उसका अभिमाय केवर इतना! द्‌।ख पडता है किं पदलारित्यसंपन्रे गदपरबधका एक उत्कृष्ट ददं ( नमूना ) मात दिख ला दिया नाय # इसके सिवाय उक्त दोनो ग्रंथोके समान दशकुमारच †रेत" गणना उपन्यासमेभ नदी हो सकती। क्योकते इसम्‌ एक तो कणं समच कहानी नही है, केवट बहुतसी कथा एकत्रित करदी गयी हँ, आर्‌ दूसरे किसी रसको मधानता दे उसके पुष्टि पूणैरूपसे नरी की गयी हे सारांश वत्तेमान यथका उपरितन कथित उपन्यासद्ययकीं ्रेणीकांतगेत कह कर॒ उसे प॑चतंज ओर हितोपदेशादि ग्ंथोकाही समककषी मानना यक्तिसंगत बोध होता रै इसमे इतना भेद अव्य है कि उ- क्त दोनों मय जैसे वारकोके मनोरंननार्थं टिसे नानेके कारण उनके] स्वना वारुबोध एवं निम्नश्रणीकी रखी गई है वैसी ' दरशकमारचार्त नरी रखी गई कितु उसकी रचना भगत्भै। तौ एसी अवस्थामं किं नव वत्तेमान भयम पर्वोक्त दौ कवियोके अथोकी अपेक्षा नाना मकारकी भिन्नता पायी नाती रै यह्‌ कैसे सभव हे सकतादे फि यह गरेथ उन६।१ समयमे र्वा गयाह। तासस्यं उसकी कृिमस्चना इस बातको मानो ममागित कयि देती है कि वहं उक्त कवियोक परवह टिखा गया होगा स्वयं विकसन्‌ साहिबनेभी अपनी भूमिकां एक स्थानपर इसी भकारका अभिमाय मदिति किया आप छिसते है “सच तो यह था कि, इस प्रथमे नो देशविभाग ओर सर्वसाधारणकी रीतिमांतिका उद्धे किया गया इह॒ आदि दिदुगोकी

वहार यह्‌ चात स्पष्ट करदेन चाहिपे के) पिला ( देखो वाणमद्र-एृष्ट१२६-१२७) खद्धेख दडीमा्के विषयमे यथाथेतया खघटित नही हे सकता

दंडी २२१

रीतिभपिके समान होनेके कारण, ओर इसकी पदरचनाभी भवभूतिकी अपेक्षा अधिक कृनिम होनेके कारण, दीका नो कार निदिं किय। गया है ई. स. १९०० ) उससे वह बहुत न्यूनभी माना गया होता तो कोई क्षति हई होती पर इस तर्वनाका दतकथासे मे मही मिरुता। "' निदान मेथपरणयनमणारीद्धास जो बाते स्पष्टरूपते उपर्ब्ध हो सकती उन्हे उपेक्षित कर ॒दैतकथाओके प्रायः शुष्क एवं निर्म भमाणोको विरोष निशित माननेकेलियि साहिब बहादुरका अत्यंत आग्रह देख पडता ह! प्र देतकथा ओर तदाधार अनुमान कहांखो विश्वासपात्र माने जा सक्ते है सो षे उद्धिखित हो ही चुका रै अस्तु; ददी, सुर्व॑धु ओर बाणके बहुत पर्वैकारमे जन्मा होगा रेसा मानना हमें विशेष ुक्तिसगत बोध होता ६।

पर इनके सिवाय "दशकुमारचरिते ओर भी एेसी कंडं बति दृष्टिप- थमे आती है निनसे यहौ अनुमान होताहै कि ददी भवभूतिके समयमे, कि- वहुना उसकेभी पूर्वं इञ होगा इस ॒ग्रथमे बहुतेरे स्थरोपर बोद्धोका उदे पाया जाता है वैसा तो पिरे कवि कारिदासादिकीकेदी प्रंथोमे देख पडता है ओर अगरे कवि सुमधु ओर बाणकेदी यर्थोमि उपरृन्प हाता है हां पुषेष्िानुसार भवभूतिके एक ग्रथ ( मारतीमाधवमे ) वह अवदय देख पताह यह्‌ उद्टेखभी दडी ओर बाणकी समकारीनताका एक प्रमाण कहा ना सकता है ! ओर दसरा ममाण कामदकी ओर चाणक्य- दिद्ारा उपदिष्ट कुट्किनीतिका सावैतिक प्रचार है वर्तमान कथक बहुतेरे रानपुत्रोने इस कुटिरनीतिका # अनुधावन कियांहै उनकी

% शठो शव्तपूर्वको पराभितत करना नोत्यनुमोदित कार्यं कडातादै, स्व॑स्राधार- णके हितां असदुषायोका अनुष्ठान करनामो निय मक्ष माना जाता, यह सम्मति अभीला सुधारसपन् लोगोकी पाय जाती थी दके उदाहरणस्वरूपमे, रामायणम वालि तथा मारतम कणे दुर्योधनादिके चथ मुद्राराक्षसे निजकेहिताप चाणक्य तया रक्षसद्धारा किये इए नाना प्रकारके मारणप्रयोग, दइपिहासमे अफजल्खानका धात वथा श्राषटुकी चघीके साय नानासादिव पेश्चषाकी नीचता + + + प्रमृतिका उद्टेख किया जा सकता है युरो- पमे म्याकिवे नामक एक इटालियन्‌ मच्रीने एते र्तोकों अ्रथस्यरूपमे टिपिवद्ध किया था, जीर अपने यहा पुराकालमे चाणक्यने किया या निजकी कुटिरूवाके कारण यह कौटिल्यके नामसे मी पुकारा जाता था

ररेर' संस्कृतकवि्प॑चकः

शिक्षाका नो विस्तृत वर्णन छिखा गयांहै स्वयं उसीमें चौ्यौदि कर्म्मविहित कहे गये « उदारचेता मनुष्य निसर्गतः आर्जव अर्थात्‌ ऋलताका भरेमी होताहै। उसका कैसाही महान्‌ स्वां क्यों सिद्ध होता हो पर वह तद्‌- थे कुरिरनीतिका अवंछवन सहसा कदापि करेगा पर बडे आश्््यकी यात है कि, वर्तमान कथाम कुमारको अरोषगुणसंपन्न तथा आविर विद्यानिधान दिखाकर तद्रारा चोरो तथा वाधेकोकी जघन्य रीराएभी करवायी हँ, तिसपरभीःठुसौ यह है कि,इन पोर घटनार्भको निय एवं अश्वा- ध्य कहकर उन राजपुर्वोकी प्रशसाका वह कारण परदरिंत की गयी ह! इसी भकारकी कुक घटनाएँ मालर्तीमाधवमें भी पायी नाती है हमारे इस कथनका आक्षेप माधवदारा अघोरषंटके वधपर नही है क्योकि वह्‌ घटना गुप्भाव्से नदी की गयी है कितु उस नरापिशाच दु्रतमाकों उसके जघरच्य संकटपके निमित्त उवित दंड दिया गया है परंतु काम- दकीने नेदनको मतारेत करनेकोश्ये जो युक्ति भयुक्त की है वह वास्तवमे मर्नुस्वभाव-मनुष्यानुमोदित कदापि नही हौ सकती उस कुरिर नीति- की शरण ठे करविने नाटकके नायक ओर नापिकाका समागम करवायाहै, यह घात सब पाठकोको यथार्थमे अरोचक गती होगी यह नीति उसं कालका रूप स्पष्टतया मदरशिंत करती है एतावता यहभी दंडी ओर भवभूतिकी समकाटीनता बहुतांशमें भमाणित करसकती है भला यह्‌ तो सब हु, प्र यहां अपने पूर्ववणिंतं उदारचेता एवं कोमछृहदय काविकी पुनःएक वातकेखियि सराहना कयि बिना हमारी टेखिमी आगेको संचारित नहीं होती ! वह इस बातक्रोथ्यि कि, हमारे कविने अपने "मारुतीमाधवभें अपने समयकी दशा इतनी पटुताके साथ मरतिविबित की है कि, मनको उदवित्र करनेवाङी बते उसके परमोत्तम परवेधकी छायाका स्परौतक नरी करपायी यह बात "दरकुमार्चंरित' ओर 'मारुतीमाधव' की परस्पर तुरना कैरनेवा-

> विछसन्सादिवकी भवति पठ १६--१७ कादबरोरमेभी -रानपु्रकी ि्षाक वर्णन, पाया जाता है ( सवत्र. १९०६ की आवृत्ति ण्ठ ६७ दंडी नौर बाणम समका- कोन नये इका एक प्रमाण यह मेद मी कहा सक्तौ 1. १. +

दडी। २२३

छेको तुरतरीं रक्षित हो सकती है। उक्त नाटकके माधवको दंडी यदि अपने कुमाररोकी श्रेणीमे रेकेता तो कोई अनोचित्य देख पडता, र्योकि दोनोके प्राकम ओर चातुयादिगुण दिखाकर दोनोका "मृगार वणित किया गया हे दोनेकि हाथसे परबध इञा है पर दंडके फुमारोकी वधरीखा पट- कर रानवाहनकी # नाई उनकी भसा करना तो दर रहेगा कितु समस्त सदृदय पाठक उनकी रोमहषण रखा एवं मिटुरतापर धृणा प्रद्िंत करेगे ! प्र क्या कोई यद्‌ कह सकता है कि, अघोरघट एवं माधवके युद्धव्णनको पट्‌ चित्तम उक्त विकार उत्यन्न होते हँ वह प्रसंगी कुछ ठेसी विक्षणताके साथ संघटित किया गयाहै कि, उस चमत्कारेक मसंग प्र माधवके हदयमे नो कोधकारुण्यादिवृत्ति एकाएक प्रादुभैत इइं वही सत्टदयपारकेके चित्तमेभी उत्पन्न हो आती ह+ क्या कोर यह कह सकतहि फ, असभ्यता के व्यतिरेक कोई गुण इन कुमारोमे पाये नाते रै धर्म्मकी श्रद्धा किंस चिडियाका नाम थासो इन कुमारोने कभी स्वपरं भीनाना दो सो नरी देख पडता गणनायक जीर देवी- मरभृति दोवों प्र॒ धर्मभीरु रोगोका विश्वास रहोनेके कारण उन ोरगोको उनके नामसे इन रन्कुमार्योने करई बेर पतापत किया है धमकी एेसी अश्रद्धा भवभूतिके प्रथमे नाममा्को करी नरी देख पडती 'दशकुमारचरित'मे बैद्धधम्मकी खिणेदाय दूति- यका काम कराया है; यह भी उस कारका समीचीन सूचकं 'मारती- माधवम भी इस कार्ययेके संपादनाथं बौद्ध धमकी खियां नियुक्तं की गयी रै, मपर रागकमारनि अपना वृत राजवादनके मति निवेदन विया {जिसे सुन उसने मपने प्रत्यकं मित्रकी सराहना की है उपदहारवम्मकि स्तुत्यकायके सुन परितुष्ट हो ईसकर राजवाहन उसे कता हैः- “देखो, सारकम्म तथा कुटितक्छनाके अनृष्ानद्वाराभी घमथिकोदी प्रापि इद!-स्योकि उन्हीं का्योकौ सहायतासे इसने अपने बधुभा माता- पिताको बेषनमुक्त क्रिया, दुरात्मा क्ष्ुका सवनाक्च किया भर अमे राज्य प्राप्त किया, सराराञ्च बुद्धिमान ोगोके समी काम श्षोभा पति दें ! क्या इमे पठ्कोमेसे भी कोई राजवाह्नके मिका उक्त प्रमपरपूरित शब्दोद्ायर प्यार कृर सकता है ] देखो भवभूति पुष्ठ

र्र्शे संस्कतकविषवक

पर उनका स्वभाव बहुतही उक्कृष्ट दिखाया गया! कामंदकी ,#अवलो- किता ओर बुद्धिरक्षितादिकोके गुण कितनी उत्तमताके साथ परदरिंत कयि गेय रँ कामंदकीकी परोपकारिता, चतुरता ओर दयाटुता विरेष सराहनेयोग्य भदशिंत की गयी है अस्तु; अब उक्तं मतिपाद्य विषयको पृष्ट करनेके हेतु एक तीसरा प्रमाण दिया नाता है; वह उक्त दोनोकी अपेक्षा अधिकतर निश्चायक है वर्तमान प्र॑थके, सातवे उच्छरासमे म॑ गुप्रका चरित वर्णित किया गया है उसका सारांश यों हैः-वह रानवा- हनसे कथन करता है “भें करिग दशको पर्वा ओर वहां भने एक सरोवरके तीरपर आराम किया वहां वृक्ष बहुत सघन थे ओर उनके वगल्मे स्मदानमूमि थी मञ्चे तीद्‌ ख्गगयी थी, पर निकटवक्तौ दो पिशाचकी बातचीतके कारण मे जागृत हो गया वे उस मरधयामे रहनेवारे एक सिद्धके विषयमे बातचीत करते थे; अनंतर उस रहस्यको जाननेके भभिमायसे मे उनके षे हो छियातोभेन देखा किं कपारमाराकरित सर्वागभस्मचर्चित वह सिद्ध अग्रिमे तिखाहृति दे रहाहै फिर उसकी.आज्ञानुसार उसके रिष्योने कलग रानाकी कन्या कणंरेखा- को छा उपस्थित किया वह बिलबिखाते वहां खडी थी ओर वह उसपर आक्रमण करनेके घातहीमे था किं, मेने अगे बट्के उस सिद्धका बध किया "› इसे पद्‌ एेसा कोन सारन्ञ पाठक है कि निसे मारूतीमाधवके पांचवे अंकांतगैत, स्मान, पिराच, अघोरघंट, मारुती ओर माधवका स्मरण नरी होता !

निदान इस भकारसे दंडीके नीवनकाख्के विषयमे नो वाते हमारे आलोकपथमें आर्थ वे सब उ्िसित की गयी उक्त तीनों अतःपमाणोदारा ` जान प्ता कि, कामदकीक्ञक मतिकारके नामको अनुकृत कर किन उसका यह नाम रक्खा है उसने देवरात ओर मूरिवसुके साय नीतिश्चाखकी वक्षा पायौ थी भौर देवरातने माधवकोमी उस आासके अध्ययनाय पृद्नावती नगरोको भेजा था इन घटना-

मकि कारण यह तर्कना हेती है कि, भवमूतिके समयमे नौतिश्चाञ्च विदविषरूपसे भधीत- किया जाता था। दृंडीके जीवनकाटविषयक उक्त प्रमाणक यह बातभी पृष्ट कर

सकती

दंडी २२९

यह माननेमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती कि, दंडी भवभूतिंके किचित्‌ पूवे न्मा होगा वा उसका समकारीन हज होगा अब इस मतकी विरोध करनेवारी केवर यही बात पायी नाती है कि, बाणभट्रकरत (दर्षच- ।एत' के पूर्वोक्त संग्रहे दडीका नामेष्टेख नदी पाया नाता उसी भकारसे भवभूतिके विषय॑भी उद्धे नरी पाया नाता सो पीछे रिखरी जये परंतु इस विरोधका महत्वभी वैसा कुछ माननीय नदी है

यहांखे दंडीके जीवनकारके विषयमे बिचार किया गया अच उसके अत्यत्‌ प्रसिद्ध मथ दशकुमारचरितके विषयमे छिखा जाता है

वत्त॑मान यंथकी आटोचना रिखनेके पूरवे दडीके नामके विषयमे नो तकं वितकं एवे बादविवाद पाये नाते हँ उनके विषयमे यहां कुछ र्खिना आवद्यक बोध होता है विरुसन्‌ साहिब अपने ग्रंथकी भूमिकमे छख ते हैँ कि वत्तैमानकविका नामभी उसके जीवनकारुका ज्ञापक माना नास कतादै वर्‌ इस भकारसे दंडी शब्दका अथं दंड धारणकरनेवा- खा है, इस असे यह्‌ अनुमान होता है कि, हमारा कवि शंकराचारस्यके संपदायका कोई यति हेगा ओर उस अपने चित्त विनोदाथं ये कथां वाध होगी शेकराचास्यैका समय आय्वीं शताब्दी कहा नाता है तात्पय्ये यह बातमी उक्त समयकी ( स० १९१०० ) पोषकता कर- तीरै।

उक्त बातको निश्चित ममाणके रूपसे उक्त साहियने नरी स्सिाहै; तौ उसके सूचित कररखनेमे सादिवका यदी उदेश नान पडता ि,कदाचित्‌ व्ह वत्तेमान कविका जीवनकार निर्णीत करनेमे उपयोगी हो पर उसमे यथार्थता अणुमाजभी नही देख पडती, क्योकि मथम तो आजपर्मृत (दंडी, व्यक्तिवाचक संज्ञा समद्धी जाती है, ठेसी अवस्था रोगेंकी यह समश्च सहसा शट नरीं हो सकती; ओर व्यक्तियोे नाम तथा उपनाम एसे सहर्ता पाये नतह जो द्वो सुतं निरर्थक रहा करते हैःतात्प् दंहिके

~ >< रसे निश्धित सबतको षिकन्‌ साहिव नाने किच प्रमाणके मलपर उदस्थित करते

२२६ सस्कतकविर्पचकः

नामको वैसा व्यर्थ माननम कोई आश्य नही है # 1 भरा यदि एेसा मानलियानाय कि, पहिठे वह केवर संज्ञाही रहीहोभी प्र॒ अनंतर व्यक्तिवाचक संज्ञा होगयी, तौ पिरे यदह बात उसका विरोध करती है कि, यदि वैसाही होता तौ दडकि नामके साथ केव श्रीः विदेषणही नोडा नाता बरन्‌, श्रोमत्परमहंस' "पारेानकाचाय्यै' आदिर्मेसे कोई ओर विशोषण अवश्य उसके नामक साथ नोडा गया होता पर यह सब वाते कहां हैँ इसके सिवाय यह बातमी युक्तिसंगत नही प्रोष होती कि निस पुरुषने विरक्त हा चतुथाश्रमका स्वीकार किया, वह ॒वेदांतादि शाख तथा पराणादैकोके विषयोको छोड वतैमान जैसे गार वृत्तात वा मारपीटकी बाते ङ्खिते बेटे सारांश, उक्त साहिबने दंडीके नामका बडे परिश्रमसे जो अथं रुगाया है उसके साधक ममाण कोई भी नीं पाये नाते ओर यह्‌ मंड प्रयतनकांड आपने नेसकेोश्यि किया उस देडीका जीवनकार अचाय्यैके अनिश्चित जीवनकाठपर सवंथा षेय होनेके कारण उसपर भी अनिशितता आती है

(दशकुमारचरित मे कौनसा विषय वणिंतहै सो उसके नामसे ही व्यक्त हौताहै। इस यथके सामान्य स्वरूप, तद॑तगैतकथादिके विषयमे उपर 'नो कुछ छखा गया है उससे इस ग्रथके विषयर्मे पाठकोके चित्तम कुछ कटपना हो हौ आयी होगी, ओर उससे अधिक निरूपण उचितं स्थट- पर आगे कियादी नायगा पर उसके पृ इस भथके संबेधसे नो विरक्षण घटनाए्‌ हई हँ उनका यहां पर छ्खा जाना अभीष्टजान पडता है \

पीके ाणभट्रके विषयमे छिखतीवार तदचित ' का्देवरी ) की

हमारे पाणिनि तथा यास्क मुनिने रेस जगन्मान्य न्याकरणग्रय लिखि प्र निके नामकी व्युत्पत्ति स्वय उनकोगोने मी विचार थी वा नही सों नरह जान पडता भव शध रके दृक्षिणी ठे गोके गोखले” “पराजयेः भादि उपनामोंके अर्थं कौन वता सकता है! वेत री भग्रेनीके @120800€ भादि उपनामोकी व्युत्पत्ति किस प्रकार की नाः

सकती हे? |

ददी २२७

परिप्तिविषयक विरक्षणताका उच्ेख किया गयाहै. वह हमारे पाठकेको कदाचित्‌ क्स्मिति इञा होगा परंतु द्कुमारच- स्तिकी स्वतामे तौ उससे करीं वद्के चमत्कार संषयित हृए दहै यह कादंबरीकौ नाई केवल अपृणेही नही रह्‌ गया। था, वरन इसका आरभदी नकि इजा था !1! पिरे उच्छरासका अवरो- केन करो तो विना पूरवसंदर्भके एकाएक एक खी पुरुष एकांतमे प्रणया- राप करते हए पये नतेै। वे कनै, कहके, उनका पूर्ववृत्तंत क्या है, दिका पाटकको कुकभी परिचय नहीं मिरु सकता! भर! यदि यह आसा की जाय किं नाटकपमथाके अनुसार आगे चरके उसका संदभे मिरु नायगा सोभी नही मिरुता उक्त कथनसे यह्‌ प्रतिपादित होता है किं यह मर्वध आदिरहित एव अंसबद्ध था प्र रसिक पाटकोके सौभाग्यवरा यह उन- ता संमति पूणं हई देख पडती हे इस पीरेसे नोडे हए आदिभागको 'पूरपीटि- का' संज्ञा दी गयी है इसमे पांच उच्छास है ओर विरुसन साहिषके संस्कर- णमे यह ४८ पृष्ठोमे शेष हए है ! पर इन्दे किसने छ्िखा सो अद्यावधि निश्वयपुद्ैक नरी ज्ञात हा कोड कते है उन स्वयं ददीने, दी छ्खा- होगा; दूसरे रोग कहते हँ वह उसकी स्वना नही है, कदाचित्‌ उसके किसी रिष्यने उन्दं छा होगा सारांश इस प्रकारसे इस पूर्ैपीटिकाका करत्वं बाद्यसित है इसके विषयमे हमारी निनकी जो सम्मति है सो अब पाटर्कोकों विदित की नाती ₹।

विरुसन्‌. साहिवने उक्त विवादको अपने यथकी भूमिकामे अनिश्ितही छोड दिया है आयने केवर दोनो मत मदर्शत कर दिये है प्रतु पूर्वापर विचारकरनेपर हमे जान पडता है यह पूतरैपीटिका' स्वय दडीकी छि- खी इई नरी है इसका मुख्य कारण यह नान पडता है कि यदि रेसादी हा होता तो सका एेसा उख्य पुर्या विभाग कवि क्यो करता! 'द्श- कुमारचारतः अथात्‌ दस राजपुतोकी कहानी ती ईस नामके अनुसार उक्तगरेथमे कुमारोका जन्म, उनकी रिक्षामभृतिका सपू्णं वृत्तां भंथपण- यनमथानुसार उत्तरोत्तर छ्खा जाना चाहिये था विना कारण वीचहीमे

२२८ सस्कतकवि्पचक

कथाके विच्छेद्‌ करनेका क्या मरयोनन था ! भटा यह कहो कि जहां यह कथा तोड़ी गयी है वहां उसके वैसा करनेके छ्ि कुछ कारण हो, सोभा नहह मुख्य कुमारकी नायिकासे भट कराकर कथाकेो शेष कर दिया है उनका- आदाप अगे भागम अर्था मुख्य यथे आया है उसी मकारसे पूर्वपीिका के अंतिम ओर भधान यंथके आदिको सुक््मतया नो विचाेगा ओर परस्प- रकी तुरना करेगा उसे ततक्षण ज्ञात हो नायगा दोनेमि आकाश पाता- रुका अंतर है बहुतेरे शब्दोकी दिशुक्ति हई हे। ानपडता है पूर्वपीठिका- के रचयिताने दोनौको एकंचित करनेके अभिभायसे इन राब्दोक्रो अंतमे ङ्ख रखा है वैसे स्वयं विरुसन्‌ साहिषके कथनानुसार पूर्वपीठिका" ओर मुख्य मेथके कतिपय स्थर्छोपर विरोध रक्षित होता है ओर करी कटीपर वही वही बाते कही गयी हैँ यह्‌ सब बातें मानों स्पषटरूपसे ममाणित कयि देतीहै कि दोनेका क्तौ एकही कविन होगा इसके सिवाय मुख्य भ्रंथको विचारनेपरभी यही तकना ॒चिनत्तमे आती है मूर यंथकी भाषा जेसी इतने वदे नामी कविको शोभा देनेके योग्य परौट, सरस ओर दंडिनः पदार्त्थ ` इस सर्वतो सुमसिद्धिको भूषित करनेवारी है वैसी ' पूपीटेका की भाषाहमें नरी ज्ञातं होती अवद्य वह संस्कृत कवियोके साधारण संप्रदायानुसार ख्खिी गयी है, पर रसिक पाठकोंके चित्तको हटात्‌ भसन्न करनेका सामथ्यं उसमें नौ पायानाता मू कविकी दैटी यद्यपि बहुतरा अनुकृत की गयी है, तथापि हम समङ्गते हँ कि दोनोके भेदका आभास चतुर पाठकोको होदी नाता है एक स्थानपर अनुभासोको परस्परम गुफितकर बहुत कुछ रुंबीमाछा बनायी गयी है # एसी कृतिम सचना मुख्य यरंथमे करीभी दृष्टिगत नहीं होती एतद्रारा पूष्पीटिका' भणेताकी रसिकता व्यक्त होती है ओर साथही यह बात ओरभी रपष्ट हो जाती है फि वह द॑ंडीसे कोई परथक होगा इसके सिवाय दोनोके कहानी बांधनेमेभी अत्यंत वि-

[क णिग तं % पृष्ठ १८ ^ कुमारा मारामिरामा रामाखपोरुषा रुषा भस्मीकृतास्यो रथोपहसितष- भरणा रणामेयानेन यानेन तेना्थुदयाश्चस राजानमकाषः »

दंडी २२९

भिन्नता देख पडती हे मुख्य ग्रंभकी कहानी जितनी चतुराईसे नोदी इई पायी नाती है उतनी ' पूर्वपीठिका ` की नही पायी नती हां इतना अवद्य कहा ना सकता है कि, मूख ग्रथ मेर मिनेकेखिये वे यरी नोडदौगयी है वास्तवमे उनमे विरक्षणता कुछभी नही

निदान इस प्रकारसे हमे पूर्णं विश्वास किं ` पूर्ैपीटिका देडीकी र्षी इई नही रै पर वह इतनी सावधानीसे सी गयी है कि मूरु ग्रेथसे उसकी भिन्नता सहसा रग्गोचर नरी होने पाती एतावता जान पडता कि उसका रचयिता दडीके रिष्योमेसे ही कोई होगा इस तक॑नाका हम स्वीकार करते है ओर साथी इस बातको भी अंगीकृत करते है कि दंडीका यह्‌ ग्रथ भादिरहित क्र्योकर निम्मित हमा, वा वीचहीमे कथाका आरभ करने अथवा उसे अधृडी छोडनेमे कविका क्या अभिपाय होगा सो हमारी समक्में नरी आता ! एसी विलक्षण वटनाए्‌ संसारमे बहुतरी थोडी पांयी नाती है

“द्शाङ्मारचरित" अधूडा है यह अभी पीठे उ्ठिखित रोही चुका है उसे किसी ओरहीने पणं किया है # इस उत्तर भागके रचयिताने उसे “उत्तररामचरितदेषके नामसे परिचित किया है इसकी करतता 'पुेषीटिका 'के सदृशा वाद््सित नही है उसके पठनद्वारा यह स्पष्टतया विदित होता है किं चकपाणे दीक्षित नामके किसी दक्षिणी पडते उसे छखिा टै पर उसकी रचना मूढ गरंथके मेरकी नहोनेके कारण विरुसनसाहिवने उसे निन पकाशित संस्करणसे वरहिष्छरत कर दिया है अतः उनकी आवृत्तिम यह भथ अपृ दही पाया नाता है।

निदान अपने कविके यथमे उसकी रचनाके संबंधसे जो चमत्कार

# दख प्रकारकी पूर्ति एक नारकभे भी पायी जाती है | 'मृच्छकटिकर्मे सृब अक दस उनम नव अंक ओर दस्वेका येोष्धासा पृरमाग स्वय कविका { शूद्रककाक्ष >) छिखा इभा है प्रर तिम माग नीढकेठ संकतक किसपंडितका जोडा इभा यह घट- नाभी रक्त केसीदी विलक्षणतागर्भित्त है अत. यहा लिख दी गवी हे

२३० संस्कतकवि्पचक्‌।

पूरित घटना श्रवणगत होती है उसका निरूपण किया गया अव उसकी कह्‌नियोका विचार करत हैँ

पीठे हम र्सी चुके कि रोगः साधारणतः सथरम दन कुमारचरित को "वासवदत्ता ओर कादंबरीकी श्रेणीमें परिणत करते टै; पर॒ यथार्थे वर्तैमान य्रंथकी समता पचतं" ओरं “हितोपदेश से जेसी मिरुती वैसी वह उक्त थंथेसि नही मिती कंयोंकि इस यथम तो कोई संपूरणं एक कथाही है ओर कविने उसका सेविधानक ( कथामत ) रचनेकी चतुराई रिखानेकेलिि वैसा कुछ मयत ही किया है; कान्यसंमदायानुरूप भिन्नररसोदारा शरंगारादिको यथाक्रम पष्ठी किया है, ओर वीचर्बीचमें देरकालादिकोके वर्णनरी खि हैः-सारांश इस ग्रंथ उपन्यासके कोईभी रक्षण नही पाये नाते गरथके अभिधानानुसार परस्पासंबद्ध कथामा पायी नाती दै. इससे नान पड़ता है कि दंडीका अभिभाय गथकान्य छ्खिनेका था; वा यह मान छया नासकता है कि उसके समयमे उसकी मथाही भचकित नरी हुई थी; यह बात पिच्ले रेखदारा स्ष्टदी होचुकी है यही कारण कि सविधानक, रसंवैचिच्य ओर वर्णनादिर्कोकी विलक्षणता उसने वत्तेमान म्रथमें योही करीं करी पदशिंत की दंडके इस रेखमवेधद्वारा नान नाता है किं इसे छिपिबद्धकरनेमे उसका प्रधान अभिमाय इतनाही था कि तद्दारा अपने समयकी दश्चाका पाटकोको परिचय प्राप्रहो ओर साथी संस्कृत पाठकोको रोचक कथाओके मिषसे परमोक्कृष्ट गयकाव्यका आदश प्राप्तो सारांश इस गंथका विवरण पिरे दो गर्थोकी नाह विस्तृत होनेकेध्ये अणुमाचभी अवकराञ्च नही है

ऊपर यह कथित हरी चुकाहै कि "दशकुमारचारेतमें शंखराबद्ध एकदी कहानी नरी रैःकिंलु भत्येक कुमार की कहानी भिन्नरहे।अततः इस थका मारंभ किस भकारसे किया गया है सो छिखकर इसकी कथा्जंका सामान्यतः अनुमान होनेके उदेशसे केवर एक कथाका निरूमण नीचे किया नाता

"दंडी २३१

मगधक्रदेश्ातीत पुष्पपुरी नामकी नगरमे राजंस नामक एक महा पतापी एवं पुण्यदीर राजा शासन करता था) मारुवनरेख मानसारके साथ किसी कारणव इसने घोर युद्ध किया“उस युद्धमे राजरदसकी गीत इड ओर मानसार इसका बंधुजा बना यागया पर उदारचेता रानहंसने उसे मुक्त कर पुनः उसे उसका राज्य सप दिया ! इसको विस्मरत कर मानसार रानह- ससे युद्धकरनेके हेतु पुनः समरांगणमे उपस्थित इंआ। राजा बहुत छ्डा। प्र अतम महाकरेश्वरकी आराधना कर मानसारने जो गदा प्रप्त कीथी उसके भभावसे उसकी हार हई इसके गदामहारकरतेदी सारथी गतप्राण हो गया ओर राना भूरछित हो गिर पड़ा षोडे एेसे विषके कि मूच्छितरा- जाके साथ रथको एक जंगम सीच छे गये अगि सौीभाग्यव उस जंगरमें रानी तथः माघन मंत्रीकी रानासे भट हुईं इधर शतन पुष्यपुरीको अपने अधिकारमें कर छया ओर वह उसका राना बन बैठाइस प्रकारसे निराधारदी वह्‌ रानमेडरी उस बनमे अपने दिन काटने र्गी } कुछ कारके अनंतर उसी अरण्यम आकाशवाणीके अनुसार रानाकी रानी वसुमतीको। सुमुदहूतैपर एक रडका पैदा हआ उसका नाम रानवाहन रक्खा गया यही रान- बाहन वर्तमान कथाका नायक है इसीके साथ राजाके तीन मंनियोके यामी उसी अरण्यमें तीन र्डके पैदा हुए निदान वह गना इनचार कुमारोका पालन पोषण करने रगा कुछ कारके अनेतर तपस्वी आदि अनेकछोगेनि भिन्न समयप्र ओर भी छःकुमार छा रानाके आधीन किये;

शततेमान विदहार्तिका दक्षिणमाग मगधदेश कहा जाता था, पुष्पपुरका दूसरानाम पाट हिमुत्रथा जिसे भाजकल लोग पटना कहते, ग्रौकलोगेकि योम इसनगरका अपश्रष्टनाम (ालिबोभरा पाया जाता यड्‌ वातत पृस विदित थी।प्र जवसे रेवया साहिवने सोन (सोण) नकीकी राका पता छगाया तबे यह भस्मी दृट्‌ हो गई है मालव अर्यो. वर्ैमान मालवाको हमर पाठक आानतेह 1

न्"वासवदत्तो ओर "कादबरी समयमे दश्षतुमारवरित नदी शिखा गया सुपु माणस्वकूपमें इख दुरे भ्रंथके मारमका नामेष्टेख किया जा सकता है, यद यादे चक्त दो यथो के समयरभे वा उनके प्मात्रकिखा गया होता तौ उसम आाजदिन राजा भोर नगरका जो चणन पाया जाता है वह वरचमानकी भिक्षा वह्ृतही मिनन प्रकारका पाया नाद }

२३२ सस्कृतकवि्पचकः

उनमेसे चार उसीके मंत्रियोके पुज थे विदेरावासी होनेके कारण नाना- भकारकी य॑जणाओके रक्षय होते होते कर्मधर्मसंयोगवरा वे छ्डके अतमे सपने स्वामीके निकट अआगये ओर दसरे दो रानहंसके मित्र राना मिथिलाधिप महार वम्माकः पुत्र थे वेभी अपने सरे दिनं कार्ते हए उसके पास पहुव गये अस्तु; इस भरकारसे इन दशो कमारोकी रानाने रक्षा की ओर उन्हे उत्तम मकारकी शिक्षा दायी विद्यामे परणं हो जब यह्‌ कुमारगण युवावस्थाको राप हए तब वामदेव संज्ञक एकं ब्राह्मणने रानाको सृचित किया किं राजन्‌ ! यह सव कुमार अब विद्यामे निपुण हो- गये अब इन्हे दिग्िनयके अथं भेनियेगा उक्त ब्राह्मणके मत्रणा अनुसार एक शुभ मुहूतैपर रानाने उनछोगोको दिग्िनय मप्र करनेके हेतु भेना अनंतर उन दश्ञोकुमारोने वहसे भस्थित हो विष्यारवीमें ना डेरा दिया इस भकारसे उनके यारा करते करते एक बेर सा हज कि एक ब्राह्मण रान- वाहुनकी अपने साथ गुप्तभावसे पातारमे ठे गया। वहां रानबाहुनके अतु पराकमसे उसे संपूण राज्य आप इभा; ओर वहाके रानाकी कन्याका उसने पाणिग्रहण किया 1 इधर रानवाहनको देख उसके नव मित्र भयभीत हो उसके शोधाथं जिसे नहां मागं मिटा वहां वह चे गये उनके चछेनानेके पश्चात्‌ रानवाहन उपर आया; प्र अपने साधि्योको उसने वहकि पाया अगि कछ कारके बीतनेपर एकके पश्चात्‌ दूसरा ओर दुसरे पश्चात्‌ तीसरा इस भकारे वे सब उसे आमेठे ओर मत्येकने अपना वृत्तांतं राजवाहनके भति निवेदन किया; यही इस थक कानी है अव॒" दृशकुमारचरित कथाएं किंस भकारकी दँ सो विरेष स्पष्ट करनेकेरेतु नमुनेके स्यि उन्मेस एक कहानी निचे छख नाती है उपहार वम्मीं पुत्रके ( राजवाहनके ) भति अपना चारे कथन करता हैः “प्न तेरी येह रगाता हा विदेह देशको गया वहां प्ंचनेपर राजधानी मिभिामे मै नही गया किंतु नगरके बाहर एक ममेह डरा दिये रहावहां एक वृद्ध तापधीने मुङ्ञे तस्थ राजा महारवम्मा (उपहासवम्मौका पताका

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ददी २३३

वृत्तात कि जिसे हुए बहत दिन बीतिथे कह सुनाया। उस वृत्तांतो सुनतेही मे नान गया कि वह तापसी मेरी दाई है ओर उसने नो का- था कि राजाका पुत्र बनमेखो गयासोभैरही मेने तुरतही यह सव बात उसे विदित कौ इस बाते नानतेहौ उसका कैट गद्रद्‌ हो गया ओर उसने बडे मेमसे म॒ञ्ञे अपने ददयमे रुगा छया अर्नेतर विकट- वर्मोकाग्वधकर्‌ वंधुभा कर रखेहुए अपने मातापिताको वंधनमुक्तकसनका अपना निश्वय भेन उसपर गट किया उसने भी मुदे सहायता देना स्वीकृत किया व्ह इस भरकारसे उसकी छ्डकी विकट बम्माकी रानीकी दासी थी; तौ उसने यह मंसूवा बांधा तद्वारा रानीको अपने बरा करके रानासे वदला ठेना बारिये यह काम वेसा कुछ दुःसाध्य था।क्योकि विकट वमौके कुरूप कुठुदि तथा दुष्टात्मा होनेके कारण रानी उसे विरुकुरु नरी चाहती थी ! यह बात निशित होनानेपर उस दाईकी पुने उसे भतिपादित किया अर्थाव्‌ एक गुप्त मासे टेनाकर मुञ्ञे उस रानीसे मिराया ओर भरे विषयमे उसके ददयमे प्रेमांकरित करा दिया पर विकटवमौ मेरा सगा चचेरा भाई है, उसके साथ भे रेस पापकम्मको क्यो कर करू, इस भकारकी गहरी चित्तामें मे मग्र इञ प्र गणनायक गणपतिने दृष्टांतदाय मेरी बह गंभीर चिता द्र की 1 किर उपहाखम्म ! तू मेराह ञंश हे! ओर यह्‌ खी मन्मस्तकस्थ गंगाहै। ओर शापदोषके कारण यह धरतीपर अवतीण हुई है। एतावता तुम्दारा संयोग निय नरी ₹।''इस- भकारसे नब मेरा सदेह दूर हो गया तब भे उसके साथ निःश्षंक रममाण हआ कुछ दिनरो योदी काम चस्ते रहाफिर राजाका मतिकार करनेके- छ्य मेने आगरी युक्ति मयुक्त की ! रानीने रानाको एकं सुद्र तस्वीर दि- खाई ओर कहा कि यदि आपकी अनुमतिहो तो ेसा सुदर शूप प्राप करनेकी

मैः विकर वम्मो महार वम्मौके माका लढका आर्याव्‌ उसका तीना था प्रहार वर्मा तथा उसके रानीको बैधुमा बना यह भप्हौ राजा वन वेढा ! वर्भमानकया करनेवाले उपहार वम्मीने अपने माता पिताके इःखदृ्ातको सुन अपने पितरन्यभ्राताघ्े उसका बदला लिना निश्चित किया

२३४ सस्करतकविर्धचक

नो म॑त्सिद्धि मेने अभी माप्त कीहै तद्वारा आपका रूप भी एसा सोहावना एवं दिव्य केर दूगी विकट वम्म बुद्धिहीन तो था ही, उसने वह्‌ भात ततक्षणही स्वीकृत कर री इसके अनंतर यह सब जश्वर्य॑भरी रीरा कनेके स्यि उ- सने वाटिकामे तयारी करायी होमकुंड पस्तुत करा नाको धोखा देनेके- सि मेने बहुतक्रुक मंचतं्ोका चराया अंतमे मुञ्चे एक निकटवतती रताभवनमे जहौ छिपा रखा था वुहांसे कुंडके पास आनेकेलिये उसने मुञ्चे ईगित किया तब संकेतानुसार मेँ तुरेतदी आगे बदा ओर करसे मेने वैकटवमोके दौ खंड कर चट उस कुंडकी अग्निम डारु दिये इस भकारसे मधान अमिप्रायके सिद्ध होनेपर भने तुरंतदी अपने मातापिताको बंधनमुक्त कर उन्हे पूर्ववत्‌ पनः राज्यारूट कराया

उक्त कथाको पद्‌ हमारे कवितापट॒ पाटकगण 'दर्कुमार्चरित' की अपर केथाओंकि स्वरूपको विचार छे सकेगे उपहार वम्मकी नेसी खीला उपर वर्णित की गयी है भायः वैसीदी सबकुमारोकी पायी नाती निःसंदेह उन्दं पट एेसा विराही पाठक होगा जिसे उनसे धृणा होगी यह कथा इस बातको अव्द्रय पतिपादित करती है कि निस समय एेसी भयावह अधमघटनाए एवं धम्मच्युति चार्यो ओंर आरोकपथमे आती थी वह समय निःसेदेह बडा कठिन होगा ! निदान उक्त कथाको प्ट हमारे पाटकगण वर्तमान अंथकी कहानी वांधनेमे किंस भकारकी विलक्षणता पायी नाती है सो सहनी नान सकते हँ। अंमिपाय यह है कि उपन्या- सक! प्रधान अग नो उक्त गुण तदर्थे यह यथ समाहत नदीं हो सकता सो स्पष्ट है

उक्त शाघ्यचरितका वणन तत्कत्तीके मुखसे सुन वट राजवाइनको केसा प्याया ल्गा- था सो पीछे उद्धिखित होदी चका है उसके स्मरण माघ्द्धारा वर्तमान कविके नामका खदेह तःक्षण निवृत्त होजायगा यह मत यद्यपि राजवाहनद्वाय का गया है तथापि उत्ते स्वय डका माननेमे कोई अनैचित्य नही बोध होता पे अवस्थामें ददौ यारे याति होता तौ यदह कब सभव था [क वह से जारकम्म॑को पुरस्कृतं करता ? मर गणपति देवी प्रमति देवताभोका सबध उनकी विडननाके अथे लिखता

दडी। २३५

पीछे यह वात उदछछिधित होदी चुकी है कि "दशकुमारचरित आदिसे अतपर्य्यत कोई एक कहानी होनेके कारण उस यथम किसी रसका परि- पाक पूर्णैरूपसे सिद्ध नही रोने पाया समस्त कुमारक चरितमे दो रस मुख्य पायेनति हँ! वे रस बीर ओर शगार हँ प्र वेभी उप्र किति इए उपहार वम्मौकी कथके समान होनेके कारण भथमतो बह पृणदी नरी ने पाये; ओर इसके व्यतिरेक उनका स्वरूप दुष्ट होनेके कारण उनके योगसे मन पसंन्न नदी होता भव्युत उद्विग्न हो नातरै। कुमारो वृत्तात एवं साहसकार्यफलापमे अद्भत ओर भयानक रसोका अभाव नही है, पर चात यह है कि वेभी उक्त रसोकी नाई अपू्णदी है। कादवरी'की कहानी जेसी उत्कृष्ट बंधी गयी है, वा “सहखरननीचरि) की सब कथाएं जसी अदधत रसपूरित है, वैसी इनमेस एकभी नदी हं केवर एक दो कुठ अच्छीह ओर शेष योही साधारण योग्यताकी है सार इस यथकी रसविविचत्ता उक्त पकारकी ₹है। जव वणैनोको विचारतेहे तौ रक्षित होतार कि भवभूतिके नाटक वा कादंवरीमे निस पकारके सृष्टिविभवके वर्णेन दे- पडते है उस पकारके इसमे नाममाज्कोभी नही है।खी तथा वारिका दि- कोके वणैन कीकौ अवद्य है पर वेभी संस्कृत कवियोकी अनादिसिद्धर- कीरफे फकीर बनेहुए संमदायके अनुयायी हनेकरे कारण मनको तादृशा चकि~ ते नरी कर सकते 1 कहनेका अभिप्राय यहहै कि मनःपमोदाथ नो रसिकं द॑ंडीकी इस सम्पूणं कविताका अवलोकन करेगा हम नही समते कि बह उसे पटनके अंतमे यथेष्ट रूपमे पाप कर सकेगा कही कटी उसे वह अव-

इय रोचक रुगेगी; पर पूरे यंथका पुनरवोकेन करनेकेखि्यि उसका जी कदापि उत्साहित रोगा

-द्शकुमारचरितःविषयक हमारी उक्त सम्मतिको पट हमारे पाठकगण कदाचित्‌ महदाश्वयिते होगे, क्योकि यह गथ इसदेशमे पू्वहीसे अत्येत रसि- द्ध है ओर इसके सिवाय उसके गुणोपर मोहित हो विरुसनसाहिबने नयसे उसे अपने यूरोपनिवासी पाठकोको भेट किया तवते वह॒ उधरभी

२३६ संस्करतकवि्पचक

उसी परकारसे परसिद्ध हो रहा है एतदेशीय पैडितमंडीमे इस येथके कारण दंडी किस भकार समादतक्रिया नाताहै सो निभ्नर्खित श्वोकदारा ओीरभी स्पष्ट हो नाता है-

उपमा काठिदासस्य्‌ भाखेरथंगोरवम्‌ दडिनःपदललित्यं माघे सन्ति चयो गुणाः

“उपमा देते बनी है तो एक मातर कारिदासहीसे दते बनी है काव्यको अरथै- गोरवयुक्त यदि किंसीने किया है तौ एक मात्र भारवीने ही क्या है,पदल- छित्यकी असीम शोभा केवल दंडीनेही परददित की है।ओंर इन तीनों गुणोका एकीकरण अकंरे माघ कविकेही कान्यमे दृष्टिगत होता है ""

उक्त शोक दडीके पदारित्यको सर्वोपरि श्रष्ठ मतिपादित करता है बह्धारमिश्रकेभोनपवध"मे भी यह्‌ कवि कारिदासादिकवियेकि साथ उनकी सभामे सुखपूवैक विहार करता हआ पाया जाता है इसका एक उदाहरण वतमान ठेखके आदिमे दियारी गया है इसके सिवाय इधरके मथकार तथा रसेकागय्रगण्य अप्पय दीक्षितनेभी दंडकि विषयमे अपनी नम्रता 'द्राकुमारचरितसंक्षेप' पद्रूपग्र॑थदारा परगट की है इसी भकारसे किंसी विनायक नामके कविने भी दडीको बहुत समानित किया है

कहना नही होगा कि विना कारण उक्तं पकारकी दविगुणितख्याति किसीकी नरी हयो सकती अतः उसका कारण यहां अवर्यमेव उद्टिखित किया जाना चाहिये पराचीनकाल्से इस देराके पडितोमे उसकी नो परपरासे सुख्याति चरी आती है उसका कारण उक्त शोक वर्णित पदलार्त्य है इस कविके आत्मराचित ग्रथमे यह गुण वास्तवमें सर्वत्र दख पडता है संस्कृतम पारे ता गयग्रथ योह उने गिने है; प्र जो है उनमेसे दंडीके दराकुमारचरितकी समताकरनेवाछा एकभी नही है ' पचतंत्र ओर हितोपदेश भभृतिकी पदरचना बहुतही निम्न ध्रेणीकी है, ओर 'वासवदत्ता' तथा (कादबरी की अत्यंत कृतिम है नित्यके व्यवहारे ायी जनिकैसी होकर रोड ओर साथही सर्वेथा कान्य-

दंडी २३७

शेरीका अनुसरणनेकरवारी रचना एकमात्र दश्कुमारचारेतकीरी देख पडती है उसकी मनोहरतादी विशेष अनी हेतौ उस गुणद्वारा वत्तेमान कवि पूरवसे- ही सुप्रसिद्ध हे रहा रै एेसा कहनेमें कई अनुचित बात नरी नान पडती।जव दूसरी यरोपके संस्कृतन्ञोमे फैटीहर ख्यातिका कारण सुविख्यात विद्यास्‌ विरुसन सारिव महादय कहे ना सकते है।यृरोपमे चिरकारसे जिस प्रकार ग्रीक ओर ल्याटिन भाषाओका प्रचार सर्वैर पायानाताहै, वैसा संस्कृतका तिर्मा भी नही है अतः नव कभी कोद मचड सस्कृतज्ञ किसी यरथको प्रकाशित करता है तभ उसको स्याति होती है ओर उस भकारसेनो कारित नही किये जाते वे महान्‌ योग्यताके भेटीहो पर उन्हे कोड नशे पछता, वे वसेह अपसिद्ध पडे रहते हे! इसमे, उदाहरणस्वरूपमे बाणभ- टकी कादवसी"जओर विदेषतः पडितरान जत्नाथके यंथोका नामो्धेख कि- या ना सकताहैयूरोपके सस्कृतज्ञटोग जिस भाति'हितोपदेरा'से परिचित हे वैस वे कादबरी, वा “किरातायुनीय*को नरी नानते कोई अचर्नकी वात नके करि 'भामिनीविरास' ओर "गंगाखहरी'भमृति निरुपम अंथेकि, तो बहुधा बहुत्तरे, सोगोको नामरो विदित नरी हाग।मृतपुत्वै परम विढान्‌ ग्रो साहिवके भसादसे अपने गोस्वामी तुटरीदासनीको जेसी श्रेष्ठता माप्त हुईं शक वैसेही वर्तमान कविको उत्त विलसन्‌ साहिबदारा वह पप्र इई सा माननेमे कोड बाधा नही जान पडती।यादि वैसा हआ होता तौ अपर अप्रसिद्ध संस्कृत कवियोकी माछिकामे उसेभी पडे रहना पडता!दसकं अति- क्त युसोपके खोगोको उसके विशेष पारेचित एव मान्यहोनेका कारण यदै [क उस कारुकी दद्ाका मतिविव उसमे रक्षित होताहै। एतावता इतिहास- ज्ञ तथा पुराकारुततत्ववत्तागणाको वह्‌ परमोपयागीदेनेके याग्यहै वत्तेमान येथकी स्यातिके जो कारण हमें ज्ञात थे उनका उपर निरूपण किया गया अव उपसंहारमे उसके विषयमे इतना ओर छिखते है किं वह्‌ मैथ रततिक पाटकोको यदहिरग गुणों अथात्‌ पदखाटित्यादिढारा नितना भिय हो सकेगा उतना अंतर्गण अथात्‌ रससेविधानकचातु्यादिदारा होसकेगा

२३८ सस्फृतक्विर्षचक

अब ““दशकुमारचरित! के स््रूपका कुछ ज्ञान हमारे पारकि हो इस अभिप्राये नीचे उस गंय कतिपय अवतरण दिये नाते है मथमतः भरगारविषयक संग्रह भेथका एकाएक आरभ इस परकारसे किया गयाहै शत्व तु भुवनवृत्तातसुत्तमांगना विस्मयविकामि ताक्षी सस्मितमिद्ममाषत दयित ! '“त्वल्मसा- दाद मे चरिताथां श्रोभवृत्तिर्यमे मनसि तमो- ऽपहस्त्वयादतो ज्ञानप्रदीपः पक्रमिदानीं त्वत्पाद्‌- पद्यपरिचय्याफलम्‌; अस्य त्वत्प्रसादस्यं किरुपृकत्य प्रयुपक्रतव॒ती भवेयम्‌ अभवदीयं हि मैव किचिन्मत्संवद्रम्‌ * अथवास्त्येवा- स्यापि जनस्य कचित्‌ प्रभुत्वं, अशक्य हि मदिच्छया विना सरस्वतीय्खम्रहणोच्छेषणी कृतो दशनच्छद्‌ एष्‌ चुंबयितं अडुजासनास्तन- तटोपथुक्तसुरःस्थलं चैतदालिगंयितुमिति "" त- तः प्रियोससे परादृडिव नमद्युपास्तीणंगुरुपयो

> श्चक्सपिवरकृत प्वेनिसनगरक्रा व्योषा, सज्ञक नारकमे नायिका नायककेो समोधन कर इसी भरकारसे कदी हैः- ¢ 255 क्षणत्‌ प026 15 कात्र, ६2 एतप वत्‌ सठप्ा५ 18 00 000दा९त्‌ , [प 10 एव> प्रा€ [तापे 07 {1118 पा पक्षशो, {ला फक 86 एक18 (प्रल्ला 0 एङृ$र्थ्‌ , धात्‌ एर्ढण 00 प, एप, पठ, द्र1118 10३6, 168९ अछाएव्ा8, शात्‌ उक्ा०९। 4861 16 कणप) 105 .10पत 1--'

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ददी २३९

ध्रमेडलापरोढकैदलीमुढुकमिव शूटरारूषितं च- ्रु्टासयन्ती, वर्िवहौवलीविडंविना इुसमचं द्रकशरेण मधुकरुरव्याकुटेन केशकलपिन स्फुरदरुणकिरण्केसरकरारुकदवश्रुुरुमिव कांत- स्याधरमणिमधीरमादघुब। तदारभर्छुरितया रागवृत््या भूयोप्यावत्तेतातिमा्रचिघोपचाश्शीफरो रतिप्रवधः दैढीके समस्त कुमारोकी अपेक्षा केवरु अपहार कम्मीका ही चरि रेवा चौडा रँ एव विचिजताविरिष्टहै ! उसकी पदे पदर नव रागभ॑लरीः, साथ मेहर ओर उन दोरनेकी चार आंखे हुई तबकी वटनाका वर्णन दडीने यो ङ्ख हैः एष्वेव दिवसेषु काम्मजयोः स्वसा यवीयसीः रागमजरीनाम पंचवीरगोष्टे संगीतकमदुस्था- स्यतीति साद्रादरः समागयन्नागरजनः। स्‌ चाहं सह सख्या धनमित्रेण तञ सल्यधिपि प्रव- ततरत्यायां तस्यां द्वितीयं र॑गपीठ ममाऽभुन्म- नः तहशिविभ्रमोत्पल्वनसचापाश्रयश्च पंचश- रो भावरसानां सामग्यात्‌ सञुदितवल इव माम- तिमा्रमन्यथयत्‌। असो नगरदेवतेव नगरमोष- रोषिता रीलकयक्षमालशंखलामि नीरोत्य- रपलाशदामर्यामलाभिमामवधात्‌ वृत्योत्थि- ताचसासिद्धिलामशोभिनी कि विलासा) कि-

२४० संस्कृतकविपंचक

ममिराषात्‌ ! किमकस्मादेव वा ! जानिऽसङ्ृ- न्मां सखीभिरप्यदुपलक्षितिनापांगपरक्षितेन सवि भ्रमारोचितश्रलतमभमिवीक््य सापदेशं किंचि दाविष्कृतदशनचंद्िकं स्मित्वा रोकटोचनमा- नसायुयाता प्रातिष्ठत

प्रमति जत्मचरित रानवाहनपति वणेन करता है

देव ! देवस्यान्वेषणाय «दिक्च अमत््रकप्‌- स्यापि विष्यपाश्रीरूटस्य वनस्पतेरधः पार णतपतंगवांलपछवावतंसिते पथ्िमदिगंगनायु- खे पल्वलखांभसि उपस्पृश्य उपास्य सं्यांतमःस- मीकृतेष॒ निश्नोत्तेषु गंवमक्षमः क्षमातले कि- सख्येरुपरचय्य शय्यां शिशयिषमाणः शि रसि कुर्व्॑नरि याऽस्मिन्‌ वनस्पतौ वसूति देवता, सेव मे शरणमस्तु शरारुचक्रचारभीषः- णायांश्वगलकयामशावराधकारपूराध्मातगभी-

रगहरायामस्यां मदाटव्यामेकाकिनो मे प्रस तस्येत्युपधाय वामथुजमशयिषि ततः क्षणादेवा- वनिदुरुंमेन स्पशैनाउखायिषत किमपि मे गा- आण्याहादयिषतेद्वियाण्यभ्यमनायिष्ट चांतरा त्मा विशेषतश्च हषितास्तनूरुहाः पयस्फ़रन्मेद्‌- क्षिणञुजः कथंत्विदामिति मंदमंदयुन्मिषदुपयं- च्छचद्रातपच्छेदकल्पं शुङ्कांश्कवितानमेक्षिषि

दंडी २४१

वामतो चलितरष्िः समया सोधमित्ति चिता- स्तरणशायिनमतिविश्रष्परस्तुतम्रंगनाजनयल-

क्षयम्‌ दक्षिणतो दत्तचक्षुरागक्तस्तनांशुकाम- मृतफेनपटलपांडरशयनशायिनीमादिवरादरदष्ट- शुजाललयायसखस्तदुग्धसागरदुकूखत्तरीयां,

मयसाष्वसमूच्छितामिव धरणीम्‌ अरुणाधरम- णिकिरणवारूकिसलख्यलास्यदेतुभिशननारविदं

परिमलोद्राहिभिर्निश्ासमातारधभिर्यश्ेक्षणद- हनदग्धं स्फुरिगशेषमनगमिव संधुक्षयंतीमंतः- सुप्तपट्पदर्मञ्जमिव जातनिद्रसामीलितलोचने- दीवरमाननं दधानामेरावतमदावरेपलूनापविद्ा- मिव नंदनवनकल्पवृक्षरत्नमंजरीं कामपि तरुणी- मारोकयम्‌।अतकेयंचकगतासामहारवी! कुत- दमृष्ध।डकपारसंपुरोेखि शक्तिष्वजशिखरदु- लोत्सधंसोषमागेतम्‌।कचतद्रण्यस्थलीसमास्ती- पवशयनम्‌! कुतस्त्यं चेदमिदुगमस्तिसंमार- भासुरं ईसतुल्दुकूलशयनम्‌ एषचकोवुशीतर- दिमफिरणरजतरज्जदोकापरिभष्टम्‌छित इवाप्स- रोगणः स्वैरसुप्तःसदरीजनःकाचेयंदेवीवारविदह- स्ता-शारदश्शांकमंडरमलदुकलोत्तरच्छदमाधि- रतेशयनतलम्‌नतावदेषादेवय पायतोमदेदि-

२४२ संस्करतकविपंचकः

दुकिरणेः संबा्यमानाकमलिनीवसंफुचति भयत तथ्युतरसविदुशबलितंपाकपांइचूतफलमिवोद्धि- घ्रस्वेदरेखंगंडस्थलमालक््यते, अमिनवयोवनवि दहदुकंमोष्मणि कुचतटे वेवण्य॑शुपेतिवणकम्‌। वससीचपरिभोगासखूपं धरूसरिमाणमादशंयतः। ठदेषामालष्येवादिष्या चारुच्छिष्टयोवनायतःसौ- छुमाय्य॑मागताःसंतोऽपिसंहता इवावयवाः प्रस्नि- ग्धतमापि पांडताचविद्धेवदेषच्छविः दैतपीडान- भिज्ञतया नातिविशदरागो युखेविद्रमद्युतिरधरम णिः+अनत्यापणेमारक्तमृलःचंपकयुकुलमिव कगे- रं कपोकतलम्‌, अनंगवाणपातसुक्ताशंकं विश्रन्यमधुरं सुप्यते, चेतद्रक्षःस्थङ निर्देयविम- दैविस्तारितमुखस्तनयुगलम्‌, अतिचानतिक्रात शिष्टमस्यांदचेतसो ममास्यामासक्षिः। आसक्तय- लद्पपुनराशिष्ठा यदि स्पष्ठमात्तेरेणेव सहानिद्र मो््यतिःअथाहं श्यामि चाठपष्िष्य शाये- तप्‌ अतो यद्धावि तद्भवतु, भाग्यम परीक्षिष्य्‌ इति स्प््टास्प्रष्मेव किंमप्याविद्धरागसाध्वसं लक्षसुप्तः स्थितोऽस्मि साऽपि किमप्युत्कपिना रोोद्धेदवता वामपाश्वन सुखायमानेन मदमदज- भिकारंभमंथसंगी वगद्य्रपक्ष्मणोश्क्षुपषोरलस- ताततारकफेण नातिपक्रनिद्वाकषायितापांगपरमभाः

द॑डी २४२

गेन युगलेनेषदुन्मिषन्ती आसविस्मयहषेरामशं- काविलासविभरमन्यवहितानि ब्रीडातराणि काले कान्यपि कामेनाद्धतासुमावेनावऽस्थांतराणि कायमाणापरिजनप्रबोषनोयतां गिरं कामविश- परशं इददयमंगानि साष्वसायासर्सवध्ययान- स्वेद्पुकानि कथं कथमपि निगद्य सस्पृहेण मधुरक्ूणितभरिमागेण मंदमदप्रचारितचक्चुषा सं दशानि निवेण्यं दरोत्सपितप्व्वेकामापि तस्मिघ्ेव शयनतरे सचकितमशयिष्ठ, अजनिष्ट मे रामा- विष्टचेतसोऽपि किमपि निद्रा पुनरननुकूलस्प्‌- शेदुःखायमानगायः प्राष्य प्रबुद्धस्य सेव मे महाटवी, तदेव तरुतटं स॒ एव पतरास्तरो मसः भूत्‌ विभावरी व्ययासीत्‌ अभूच्च मे मनसि किमयं स्वभ्रः ! किं विप्रलंमो वा! किमियमा- सुरी देवी वा कापि माया। यद्वावि तद्भवतु, नाह- मिदं त्वतो नाबडुष्य मो््यामि भूमिशय्या, यावदायुरत्याये देवताये प्रतिशयितोभवामीति निञ्चितमतिरतिष्टम्‌

चृत्यवणेन विद्युतामिव विडंवयन्तीं भूषणमणिरणितदत्तल- यसंवादिपादचारम्‌, अपदेशस्मितप्रभाभिपिक्तवि- वाधरम्‌अवसंसितप्रतिसमाहितशिखंडभारम्‌,स-

४४ संस्कतकाविपचकः

माघद्टितक्षणितरत्नमेखलायणम्‌, अंचितोत्थित- पृृनितवविरंविततविचरूदंशुकोज्वलम्‌, आच तप्सृतवेदितसुजरुतामिहतररितकंदुकम्‌!आव- जितवाहृपाशम्‌, उपरिपरिवतितवरिकविर्ररोल- कुतलम्‌, अवगलितकणंपूरकनकपयप्रतिसमाध- नशी्रतानतिक्रमितप्रकृतकरीडनम्‌, असकरदस्कि- प्यमाणहस्तवाद्याभ्यंतसरतिकंदुकम्‌ः अवनमन समननेरत्य॑नष्द्टमध्यय्िकम्‌, अवपतनोत्पत- ननिव्यवृस्थधक्तहारम्‌, अकुरितघमेसिरदूषि - तकपाकपभगंशोषणाधकृतश्रवणपदवानिखम्‌, आगलितस्तनतयांशुकनियमव्याप्तेकपाणिपंहट- वं निषदयोत्थाय निमील्योन्मीट्य स्थित्वा ग- त्वा चेवातिचिचं पर्यकीडत राजकन्या अभिहत्य गतखाकाशयोरपि ओडांतराणि दंशनीयान्यने- केनैव वानेकेनैव कंदुकेनादशयत्‌ उक्त संग्रहोद्ारा दंडीके पदलाछित्य गुणका पाठकोको परिचय मप्त हो उसकी परमोत्तम व्णनशेीका उन्हे सहनहीमे बोध हो सकता है इस प्रकारकी भंगाररीराए इस मरथमे भायः सर्वत्र पायी नाती हं तद्वारा स्पष्टरूपसे नानानासकता कि हमारा कवि दंडधारी यति था कितु काटिदास, गोवर्धनाचाय्यै, पंडितरान नगन्नाथादिकी नाई वह बडा विलासी पुरूष था इसके यथसे तो यही जान पडता है किं यह आत्मकान्‌

सव भकारके सांसारक सुखविखसादिका पूर्णातुभवी था (मृच्छकटिक नाटकमे उसके चनुर स्चयिताने नेसे स्वागसुंदर संविधानकको बाध

द्धी २४५

तत्समयको .उज्यिनी नगरीकी दशा भिन्नभित्र प्रकारसे प्रदरगित की है, शक बही ठग कुछ अर्मे द्राक्ुमार्चरित मे भी पाया नाता है इसके ममाणस्वरूपमे दितीय उच्छरासांतगेत युतक्रडाका निभ्रस्थ वणेन अवोकनं फे योग्य ह! , अनुप्रविरय यूतसमाजमक्षधत्तैः समगंसि तेषां पचविशतिप्रकारास सवासु दताश्रयासं कलासु को- शम्‌, अक्षभ्रमिहस्तादिषु चात्यतदुरुपरक्ष्याणि कूटकमाणि, तन्मूलानि सावलेपान्यधिक्षेपवच- नानि, जीवितनिरयेक्षाणि संरमविचेष्ितानि, स- भकप्रत्ययग्यवहारान्‌^न्यायवटग्रतापपायान्‌,अं गीकृताथंसाधनक्षमान्‌ विषु सात्वनानि, इवे- टेषु भस्सितानि, पक्षसचनानेपुण्यमुद्धावचान्यु- प्रलोभनानि ग्रदमरभेदवणेनानि द्रव्यसंविमागो- दायंम॑तरातराश्टीटप्रायाच्‌ कलकलान्‌ एतानि चान्यानि चानुमवन्नतृतिमध्यगच्छम्‌ असंच किचितूप्रमाददत्तशारे कचित्‌ किंतवे प्रतिफित्‌- षतु निदद्निव रोधताम्रया शा मामभिवीक्ष्य ' शिक्षयसिरे। यूतवत्मे दासन्याजेन आस्तामय- मरशिक्षितो वराकस्त्वयेव तावद्धिक्षणेन देवि- ष्यामीति'' घयूताध्यक्षासुमत्त्या व्यत्यषजत्‌। मथा जितश्वासो पोडशसदस्राणि दीनाराणाम्‌ तद- धं सभिकाय स्भ्येभ्यन्थ दत्वा स्वीफत्योद्‌- तिषठम्‌ उद्तिष्ठेथ तजगतानांदषैगमाः प्रशसा-

> संस्कृतकविप॑चकः

लापाःप्रीथेवमानसमिकानुरोधाञ्च तदगारेऽभ्य- वृहुरबिधिसकरवम्‌। यन्मूलश्च मे दुरोदरावतारः। भे विमर्दको नाम विश्वास्यतरं द्वितीयं इदय- मास्रीत्‌

उच्छास

अब संविधानकपाटव, रसपोषकता मकृतिवणनादिगुर्णोका दशकु- मारवास्ति) मे अभाव होनेपर भी वह संस्कृतज्ञोको कयोकर भिय हभ दै सो उक्त सेग्रहदवारा तुरंतदी ठक्षित हो सकता है ओर सच पृथि तो यह ेसा नरी है कि निसके ओर आधिक संग्रह यहांपर उद्धृत क्यि ना सके क्यो इस्‌ प्रथमे भायः कथामागही वणित है, निसमे पाठकोका मनोरनन करनेवारे वर्णेनादि वैते कुछ अधिक नरी है उक्त कैसे संग्रह यो कदी कदी पाये नते हैँ इसके सिवाय एतःूवेकाथित कवियोके ग्रथेसि नेसे मनमाने रसोके संग्रह उध्टृत करते बने, वैसे इस येथे नही करते बनते उक्त शेगारातिरिक्त ओर किसी रसका सग्रह उष्टृत करिया चाहो तो उसका मिरनाही कठिन है। सारांश ' ददाकुमारचारेत' का स्वरूप इस कारका है। उसकी भौदता भधानतः उसके स्वरूपपरही- निभर है ओर यह स्वरूप कितना उक्छृष्ट है सो उक्त संग्रहोदारा मेनन विद्यापारदरदी पाठकोको ततक्षण विदित हो सकता है ।इसके सिवाय वत्तेमान कविकी ओरसे पाटकोको यह भी सूचित करना हमे अभीष्ट नान पड़ता है कि गद्यकाव्यका आयोत्पादक यदी कवि हैनेके कारण,इसके अनंतर सुधारफ- सुवधुने ओर विशेषतः बाणमटने नो रसिकमिय भेम छिपिवद्ध कि हंउ- नके साथ 'दशकुमारचारेत' की तुखना करना उचित नहीं है उनकी मधु- रताका स्वाद चखती बार पाठकोको समुचित है कि वे दंडीके वारंवार उप- कर मानें नकि कृतघ्नतापव्यैक उसे भरू नँय

सुयधु-पृष्ठ ६९ मे सुबधुके विषयमे मो लिखा गया है सो टैक नही हे 1 वास्तवे वह उक्त कथनकी नाई दके विषयमे होना चाहिये था |

दंडी | २४७

उपरसहार्‌

उक्त पकारसे इस दूसरे कविददका वर्णेन शेष किया नाता दै पथम हमने जव इनके विषयमे टिखना प्रारभ किया था तब अंतिम दो कवि्योको भटी भोति अधीत नही किया था अतः उस समय उनके विषयमे हमारी नो सम्मति थी उसमे अब बहुत भिन्नता दष्टिगत होगी।जिन रोर्गोको ध्यानपुत्षैक यथावरोक- करनेका अभ्यास उन्हे उक्त मतमिन्रता रक्षित हरी चुकी होगी, ओर हमने गोरर पर उसे ओर भी स्पष्ट कर दिया है उसीको प्रधानता दे उक्त पांचो कवियोके उक्त व्णेनोका समासवर्णेन यहांपर पुनरपि छिखते दै आदिमे इमके जीवनकारुकी आरोचना की जाती है यह्‌ तो निर्विवादित वाती है कि इन पांचोमें काछ्िदास सबसे पुराने है यह बात पिच रुखर्मे सिद्धदी कर दी गयी है अब यहांपर केवर कविचतुष्टयके नीवनकारका ही विचार कर्तन्य है इन छोगोका जीवनक जो पीछे छा गया है उससे पतिपादित होता कि कारटक्रमानुसार पिट दंडी दुसरे भवभूति तीसरे सुबेधु ओर चौथे बाणम हे एतावता भवमूतिकी भी गणना मध्यम- कारन कवियोमे करनी पडती है, वह॒ काछिदासके समकक्षी नरी हो सकते 1 पर कविताकी योग्यताके अनुसार जब हम इनके विषयमे विचा- रांश करते हँ तौ यह्‌ सब उख भणीस्थ हो नति है-उनके समश्रेणीस्थ यदि नही हो सक्ते तो केवर बापु सुबधुही नही होसकते इनकी लि- सी हई 'वासवदत्ता'को नव हम विचारक्षेतमे छेते हँ ती जान पडता है कि केव्‌ यही दूसरे काविवगेमे, वहभी बडी कटिनतासे, स्थान पा सकत 1 सारांश हमारा माना हा द्वितीय कविवृंद सूनाही रहनाता है भ्यो कि कवितवस्पूत्ति, रसपारेपाक, भासादिक पदरचना, मृदुता, मधुरता ओर खादित्यमश्ति अशेष गुणोमे दंडी, बाण ओर अंशतः सुवंधु स्वयं काटि- दासकी समानताका सन्मानं भटेही पा सके पर उनसे निन्न भेणाकी गदीके यथार्थं अधिकारी यही छोग कहे ना सकते इस भवंधके याद- नमे मध्यम भकारे कवियोका नो दिग्दहन ङ्ख गया बह इनके विषयमे सवैथा चरिताथे नीं हो सकता हां यह सब

अमभ्कृुतक विष॑चकः

जवद्य सच कि-यह रोग वड विदान्‌ थे, ओर भूतपत्रै कवि्ोकि ग्रभभी इन्दे अध्ययना्े सपाप् थे, जिनके योगसे इनकी कर्पा तथा विचारशक्तिमे यथां नूतनताकी उनता देख पडती है, पर दुमे तनिकभी सदेह नही है किं काविताका मधान गुण सहदयता ओर उसीके साथ यथाथेस्फुतिं इन्हे अनुक थी सारांश, अब हमे इन रोगोको दूसरी श्रेणीमे पर्णित करना आवश्यक नही बोध होता प्र नो रोग दूसरावग स्थापितकरनके हठी हृभा चाहते है उन्हे अपनी रासा पूणे करनेकेहैतु उन सब कवियोक पद्रचनाकी कुबिमता, ओर काश्दा- सकी अपेक्षा उनके कवित्व, तथा कार्की हीनता अवद्रय उपयोगी सकती है

यहांो भूमिकांतगेत सस्रत कविताके दा भागोका व्णैन किया गया अब तीसरे भेदका निरूपण कियानाता है वास्तवमे तो यह छिखना, भी-कि पिछले मरतिपादनानुसार ऊपर दो भागोका वणन शेष होगरया- अनुचित नान पडता टै क्योकि दूसरे वृंदके कविगण बहुधा पहिरोकी मा्िका्मेही गुफित ह्‌ सकते हे पर तौभी विषयनिरूपणक) स॒गमताके , हेतु हमें दसरा भाग भी मानना पड़ा था। ओर उसी भकारसे अब्र तीसरे, की भी कत्पनां करनी पडती है इस तसरं वदमे बहुतसे; कवि, यद्यपि सकैमे तथापि संमति नो कदिगण सामान्यतः उसमें परिणत कयि जा सकते दँ उनका वणेन रिख यहभी मदरित किया नायगा कि वृत मान अवस्था इस तीसरे षग॑मे ही परिगणित की ना सकती है

दुसरे कविवभेके आदिमे यह बात छ्सी गयी थी उसमे स्थितः करनेके हेतु बहुतसे कवि पाये नाते हे पर तोभी चही तीनदी कवि चुने गये सुभासिद्ध रै, ओर जिनके ग्यकाव्य विशेषरूपे विस्यातह उसप्रकारकी चु- नाबरट यहां पर भयोननीय नही बोध होती क्योकि वे बहुतही थोड़े पाये नते ओर इसका कारणमी कोई गूदरहस्य नही. दै समतिकी. नाई निस सम- य॒ कावित्वका, सन्ृथा सहास हो.नाताहै तब उससमयमे पिरे कोई दूसरा , कवि उत्पन्न होता है, ओर उसके भी काग्यमें चिरकारलो रहनेयोग्य गुण

दडी। २४९

बहती थोडे, किंतु उनका अभावी हेनिके कारण उसका नाम ओर मरय दोनो सारी साथ दप होनाते.ह। इसके पात्‌ सौदो सो वषर अनतर यदि हृदी तौ ओरभ कोई नामी कवि उपनता है ईसके अ- तिरिकि महान्‌ चंड कारण यहभी कहा जा सकता किं उससमय सुदणा- ख्य नही ये ग्रथ केवर हाथहीस शिखे नाते थ। एसी अवस्थामे किसी मथकी प्रसिद्धि तभी होतीथी किं जेब ॒चारोओर पडितरोगोमे वह समा- देत किया नाता भा ओर अनेक शोगोको उसे छिखकर अपने सरस्वतीभवनमे संग्रह केकी अभिखाषा समुस्थित होती थी! यह परसिद्धि तभी हो सकती थी किं जव उस यरथकी उपयोगिता स्वय पडितसेमेकि मत्सर ओर दवेषकी प्णरुपसे दरति कर देती भी यंथकी ख्यातिके उक्त मनोविकार कैसे पचड विरोधी हँ सो माषीन कषियोके यर्थोकी परस्तावनादारया भटी भति ज्ञात हो सकता सारांश उनसे नो पार पानातावही आगे मानमान्यता प्रप्त कर सकता उसके पश्चात्‌ नव ॒ग्रथका फेटाव होने छगता तवसे उसकी सिद्धि मानी नाती है। प्रआनकरु मुद्रणकराकी सदायताके कारण ने बति अनुकूल दोगयी रसो पाठितसमानसे छिपी नरीह एकमा धनकी सहायता अनुकूरू कर रीनाय तो यथेष्ट मथ भरस्तुत हो डाक तथा रल्जादि फेखावके अमूल्य साधन, नो अवर इधर सर्वसाधारणको भाप है, तद्रारा वहती अर्प कामें समूचे धरातरपर ग्रंथोका विस्तार किया जा सकेता है ! युरोपमे आधुनिक यर्थोका फैखाव सदा इसी प्रकारते हआ करता ६ै सारंग, इन अनुकूलताओकि कारण मध्यम तथा कानिष्ठ मकारके सभी यथ इग्टेडादेमें नेसे नाये शेष रहगय ओर रहती नाते है, वैसे इधर नरी रहन पाये केवर व्ही भथ रहने पाये नो प्रमोत्कृष्ट निधित किये गये ओर जिनका केखाव अरप काटमे दी सर्त दो गया देषमे कोई भध कोई विर्वसे एसा करते करते धीरे सच नष्ट रोगयेसे नान पडतेह इस भ्रकारसे दुहए सेको यथेकि नामका पार्चवय आधुनिक सुप्रसिद्धं कर अरथेमिं पाया जाता है अभिभाययहहै कि पौरे अग्रेन कवियोके वर्णनमें मध्यम प्रकारक कवियोका वणेन ल्िखिनेके स्थि जसे बहुत कु सामग्री उपरुन्ध हई, ओर

संस्क्चतकवि्चकः

कनिष्ठ रेणे का्वर्यकिं विषयमे भी बहुत कुछ र्खिते बनता वैसा सेस्छेत कावि्ोके विषयमे नही करते बनता एतावता यहांपर इस तृतीय कविवद- का योह संक्षिप्त वर्णन कर उसमेसे कतिपय कावियोके विषयमे सविरेष निरू- पण करेगे

समस्त नातियोकी कविताके इतिहासमे एक एसा समय दृष्टिपथे आता है किं निषे उसका अन्यान एव शुद्धं स्वरूप अत्यंत विनष्ट हो वह एक विरक्षण भकार कृत्रिम रूपमे पायी जाती भायीन क्रियोकि कान्योमे भायः वही भाव सुबोधतापू्वैक व्यक्त कियेहए पाये जाते ह, जो निसगेतः भायः सवके मनमे आविभूत हमा करते ! प्र इन अंतिम कावियोके का- व्योम वह घात नही पायी नाती किंतु बहधा वही भाव हठादाक्ृ्ट कर रदित कियिहुए पाये नति है, नो कभी किसीको स्वप्रमे भी ज्ञात इए हो, ओर निस्तके यथम उक्तं भकारकी नय्कि एवं दुर्बोध उाक्तेयां रचुरताके साथ रक्षित होती ह, वही प्रमोत्टर्ट कवि माना जाता है इसी धकारसे पथम कविगणेकि गरथोमे अर्थहीकी ओर विष ध्यान दिया हआ पाया नाता है, शब्दांकी गढनपर किजष दृष्टि दी हई नहीं दीख पडती; पर दृसरोके यथोम उक्त सब बाति विपरीत द्गोचर होती हँ इनके मरथोमें तो यह बात करीं नाममात्रको भी नही क्षित होती कि कदी शब्दाटेकार ओर विदेषतः शेषके संपा- दित करनेका अवसर इनके हाथ खगा हो ओर इनरोगोनि उस अवसरको हाथसे नाने दिया हो हमारौ कवितामे सवैसाधारणकी बोखचाखकी नाड यदि सर एवं एकशजथे छाया जाय तौ उसकी परीटताही क्या कहाई! निदान उससे दा तीन तौभी भाव परगट होने चाहिये वसे ही किसी पदा थतो देख जो भाव सब मनुष्योके चित्तमे सहसा उपनते हँ वही हमनैसे महाकाविथोके चित्तमे भी उत्पन्न इए तौ हमारी विरेषता दी क्याहुे ! रेसे पागरु पनके धरम उनके मनःसलग्न होनानेके कारण उनके जोरूष ंथदधाा वहित हेति उनके विलक्षण एवं विचित्र हनं जाश्चस्यही क्या ! दुधिता ओर न्ट्ता दोषोकी भी नता उनमे नशे रहती; इन

दंडी २९१

दोपेकि कारण अर्थी हानि होती है सो कविता रसन्ञपाठरकोपर विदि- तही है अस्तु; इंग्छैढम एक वार एसे कवि बहुत हए थे, उन सक्मे परसिद्ध जीर अग्रगण्य कटे नामका कवि मानानाता था। डाक्टर जानूसन्‌ साहिषने अपने "कविचारे' मे उक्त कवीकी एसी मिद्टी खराब कर दी है कि आगे कीई फिर कभीं उसका नामों नल्व यदि कोई छिखा चाहे तो उसे संस्कृतके भी एेसे अनेक कवि मिरर्नायगे पर्वो- दिखित सुवधुके येमे एेसे भावोका अभाव नही है सो पीडे छिखाही जा चुका है 1 वरी वात कविरान काविकृत 'राघवपांडवीय' संज्ञक गरेथके विषयमे भी की ना सकती है निसका कि थोडासा उद्धेख षरे रो चुका. है 1 इस म्रथके नामानुसारही रामायण ओर भारतकी कहानी एकसे प्रदो दवारा बंधीनानेके कारण यह समृचा ग्रंथ एक खवा चौडा चेष हो गया हे एसा कहनेमे कदाचित्‌ कोई अव्यक्त होगी यहापर विशेषरूपे यह शिखनेकी कोई आवद्यकता नरी है कि काटिदासकृत माना नानेवाखा नोदय कान्यभी इसी मकारका है 1 अवे यह्‌ वात निश्वयपू्षकं नरी कही ना सकती कि उक्त भकारकी विष भवृत्ति किससे आरभ इड है; तोभी इसमे तो तनिकभी संदेह नश है कि आधुनिक पंडितोके मतानुसार पच- काव्यश्रष्ट ' नैषध " से उसकी वृत्ति आधिकतर प्रचछित इई

१-यदापर हमे यह लिखते परम हष हाता दै कि “नैषधः काव्यकी आलोचन देख- नेकी जिन्दं इच्छा हो वह लेग, काक्षीकी नागरी मचारिणी समाके मब, अमद्रस निष्य- हृदय पडित प्रकाड महावीरप्रसादजी द्विवेदी ङिखितत, नैष पचरितचची नामक लेखको मेगाकर, उसे अवलोकन द्वारा अपनी मनस्तुष्टिकर सकते हँ 1 अनुसघान करने प्र विद्धानोको श्रोरषमिश्रके विषयमे माजपर्यत जो जो बाते ज्ञात ^, बहरध- उन सवके साधक वाधक प्रमाणोके साथ उक्त द्विवेदी जनि इस केखमे शिखा आत्म- कमधा्लोलुषप कविद्धयकी-पडितराय जगन्नाथ तथा निसर्गोज्ज्विल महाकान्यके कन्त शरोदषैमिश्चकी -दुपोक्तयोके तारतम्यको द्विवेदौजनि अपने इख निवंधमे नितात क्रुश्ता प्रमुख प्रदुक्षत किया है मंतमे अयेन “नषधः” महाकान्यके भव्यान मनोहर स्थलेकि अनेकनिक अवतरणोको+ उनके भावाय, मौर अपनी आलेचनाके साथ इस निबधमे लिख- कर उसे समाप्त किया

संस्कतकवि पचक

इस भतिम महाकान्यके रचयिता महाराना श्रीह सर्ष पासिद् ही दै। देस मधम विचित्र उक्तियां तथा छषादिको्ी अत्यतं रे पेरु कर्‌ दी गयी हे।इस येथके अंतमे "चनी ' नामक एक सुमसिद्ध मकर- टै, इसमे सरस्वती दमयतीमति पांच नछोका वर्णन करती है, यहंपर तौ कािने अपनी प्रतिभारक पराकाष्ठा करदी है नहा बोनेवाछा पाच स्वय भगवती सरस्वती हे ओर काव्यमरणतृ कवि तत्कराधिष्ठित सुगा है, वहांकी वाती क्या पना है! मव्येक शक यथाथ नरके विषयमे घाश्ति कर वही इंदादि चारों कपटवेषधृक्‌ देवोके विषयमे भी स्थित किया नाता है सारांश, उसमे एेसेही चमत्कारिक वणन छि गये है अव अंतरंग कटपना ओर विचारमभृति कान्यके अतःस्वरूपकी उपेक्षा कर इस कविके काव्यका घाह्य स्वरूपही यदि विचारक्षे्रमे छिया नाय तो सर्वसाधारणको तुरंतही ज्ञात होति कि यह कान्य परमोक्कृष्ट है, अर्थात्‌ मृदुता, मधुरता, ओर खाछित्यादिगुण उसमे पूर्णरूपस पाये नात है केवट शब्दाकी गठन एसी कु विचित्र पायी नातींहै कि उसके श्रवणमात्रदवारा मन जनंदितह सुभसन्न हो नाताहै। यह कथन अनुचित साहस समज्ञा जायगा कि इस गुणमे उक्त गुण हमारे पुराने कवि स्वये काटिदासको भी कही करी पीड हय देतेहे।मात तो यहहै कि इसु परकारसे जिन कविय की गति कवितके साक्षात्‌ तत्वोपस्यत नही हो पाती वे बापुरे उसके बाह्य स्वरूपपरही अपनी करतूत को शेष कर देते हँ परंतु जा यथाभविद्‌ छाग है उन्दे कंविताका अतःस्वरूपही विरोेष मिय होनेके कारण बे रोग इन कविये।की बहिरग सनावटको विष समाहत नहीं करते।

इलति

राजतरमिणी मे वर्णित दष राजा यादि यही महारज हौगे तो इनका जीवनं काल अनुमान सवीसन १११३ माननेमें कोई हानि नि बोध रोतीहि सिद्ध नाटि- "लावक" ओर 'नागानद्‌) नाटकभी दन्दके कलिखेहए दै देसी किषदती प्रायः करी सुनी नाया करपी है